सचेतन:बुद्धचरितम्-10 छन्दकनिवर्तनम् (The Return of Chandak):
छन्दक (बुद्ध का सारथी) के रथ लौटाने और बुद्ध के अकेले तपस्या की ओर बढ़ने का वर्णन।
कुछ मुहूर्त में भगवान भास्कर के उदित हो जाने पर वे नरश्रेष्ठ एक आश्रम जा पहुँचे थे। सिद्धार्थ गौतम ने अपने सामने एक पवित्र स्थान देखा। यह था भार्गव ऋषि का आश्रम, जहाँ चारों ओर शांति और आध्यात्मिकता का वातावरण था। उन्होंने अपने घोड़े, कन्टक, को स्नेहपूर्वक सहलाया और बोले, “प्रिय मित्र, तुमने आज मुझे मेरी नई यात्रा की ओर बढ़ने में सहायता की।” घोड़े की आँखों में भी एक अजीब सी चमक थी, मानो वह अपने स्वामी की भावनाओं को समझ रहा हो।
इसके बाद सिद्धार्थ ने अपने प्रिय सेवक छन्दक की ओर स्नेहभरी दृष्टि डाली और कहा, “हे प्रिय छन्दक! तुमने मेरे प्रति जो निःस्वार्थ प्रेम और समर्पण दिखाया है, उससे मैं अत्यंत संतुष्ट हूँ। लेकिन अब समय आ गया है कि तुम इस अश्व को लेकर वापस लौट जाओ। राजा और परिवार को मेरी ओर से प्रणाम कहना।”
यह कहकर उन्होंने अपने सारे आभूषण उतार दिए और छन्दक को सौंप दिए। फिर उन्होंने अपने मुकुट से एक तेजस्वी मणि निकालकर छन्दक के हाथ में रखी और बोले, “हे छन्दक! इस मणि को लेकर राजा के पास जाओ और उनसे कहना कि मैंने यह निर्णय स्वर्ग की लालसा से या किसी वैराग्य और क्रोध से प्रेरित होकर नहीं लिया है। बल्कि मैं इस संसार के जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति पाने और सत्य की खोज में निकला हूँ। इसलिए मेरे जाने पर दुखी न हों।”
छन्दक यह सुनते ही भावुक हो गए। उनकी आँखों में आंसू छलक आए। उनकी आवाज़ कांप रही थी जब उन्होंने कहा, “हे स्वामी! यह बात सुनकर मेरा हृदय व्याकुल हो रहा है। आपकी इस यात्रा से आपके माता-पिता, पत्नी और पुत्र का हृदय भी अत्यंत दुःखी होगा। कृपया ऐसा न करें। अपने वृद्ध पिता को ऐसे न छोड़ें, जैसे कोई नास्तिक धर्म को त्याग देता है। अपनी दूसरी माता को भी भूल न जाएँ, जैसे कोई कृतघ्न सत्कार को भुला देता है।”
छन्दक की आँखों में आंसू थे, और वे याचना करते हुए आगे बोले, “हे स्वामी! आपकी पत्नी यशोधरा, जो आपके प्रति प्रेम और समर्पण से भरी हुई है, और आपका नन्हा पुत्र राहुल भी आपके बिना अधूरे रह जाएंगे। यदि आपने संसार को त्यागने का निश्चय कर ही लिया है, तो कम से कम मुझे अपने साथ ले चलिए। मैं सुमंत्र की तरह आपको छोड़कर वापस नहीं जाना चाहता, जैसे सुमंत्र राम को छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे।”
यह सुनकर सिद्धार्थ मुस्कुराए और बोले,
“हे छन्दक! तुम व्यर्थ ही दुखी हो रहे हो। यह संसार नश्वर है। मनुष्य और पशु-पक्षी सब एक दिन बिछड़ जाते हैं। यह नियम ही संसार का सत्य है। जैसे बादल आसमान में इकट्ठा होते हैं और फिर बिखर जाते हैं, वैसे ही प्राणी जन्म लेते हैं, मिलते हैं और फिर बिछड़ जाते हैं। इसलिए शोक मत करो।”
लेकिन सिद्धार्थ के मन में अब कोई संदेह नहीं था। उन्होंने करुणा भरी दृष्टि से छन्दक को देखा और बोले, “प्रिय मित्र, यह मार्ग मुझे अकेले तय करना होगा। सत्य की खोज और ज्ञान प्राप्ति के लिए मैं संसार के बंधनों से मुक्त होना चाहता हूँ। जाओ, और परिवार को मेरा संदेश दो।”
इसके बाद उन्होंने अपनी कमर से कृपाण निकाला और अपने सिर का मुकुट काटकर आकाश में उछाल दिया। यह एक ऐतिहासिक क्षण था—जिस राजकुमार को समस्त ऐश्वर्य प्राप्त हो सकता था, उसने उस वैभव को त्यागकर एक नया मार्ग चुना।
आश्चर्यजनक रूप से, जैसे ही मुकुट आकाश में गया, देवताओं ने उसे ससम्मान लिया और स्वर्ग में दिव्य सामग्री से उसकी पूजा की। यह संकेत था कि सिद्धार्थ का निर्णय केवल एक साधारण घटना नहीं थी, बल्कि यह पूरी मानवता के लिए एक नई दिशा तय करने वाला था।
दिव्य शिकारी और काषाय वस्त्र
उसी समय, एक देवता शिकारी (व्याध) के रूप में उनके पास आया। उसने काषाय वस्त्र (संन्यासी का वस्त्र) धारण किया हुआ था। सिद्धार्थ ने उससे विनम्रता से कहा,
“हे सौम्य! यदि तुम्हें इस वस्त्र से कोई विशेष मोह नहीं है, तो कृपया यह मुझे दे दो और मेरा यह वस्त्र ले लो।”
व्याध रूपी देवता ने बड़े हर्ष के साथ काषाय वस्त्र उन्हें दे दिया और स्वयं राजकुमार का वस्त्र लेकर दिव्य स्वरूप में स्वर्ग चला गया। यह संकेत था कि देवता भी इस महान त्याग की प्रशंसा कर रहे थे।
अब सिद्धार्थ ने काषाय वस्त्र धारण कर लिया था। वे अब राजकुमार नहीं, बल्कि एक संन्यासी बन चुके थे—संपूर्ण ऐश्वर्य और सांसारिक बंधनों से मुक्त।
छन्दक का विलाप और कंथक की विदाई
जब छन्दक ने अपने स्वामी को इस नए वेष में देखा, तो उसका हृदय व्यथित हो उठा। उसने रोते हुए कहा,
“हे स्वामी! मैं आपको इस रूप में देखकर अत्यंत दुखी हूँ। आपके बिना यह संसार सूना लग रहा है।”
लेकिन सिद्धार्थ अब अडिग थे। उन्होंने छन्दक को आदेश दिया कि वह महल लौट जाए। भारी मन से, छन्दक अपने स्वामी के बिना, घोड़े कंथक को लेकर महल की ओर लौट गया। किंतु वह केवल शरीर से लौटे, उनका हृदय और मन अभी भी वहीं, अपने स्वामी के साथ ही था।
एक नई यात्रा की शुरुआत
अब सिद्धार्थ अकेले थे, लेकिन उनका मन शांत और दृढ़ था। उन्होंने संन्यासी के रूप में आश्रम की ओर प्रस्थान किया। इस एक क्षण ने मानव इतिहास को बदल दिया—एक राजकुमार जिसने सुख-सुविधाओं का त्याग किया, वह आगे चलकर महात्मा बुद्ध बना और पूरी दुनिया को ज्ञान और शांति का मार्ग दिखाया।इस प्रकार, यह संन्यास केवल राजकुमार का त्याग नहीं था, बल्कि यह मानवता के लिए एक नई राह की शुरुआत थी। सिद्धार्थ एक नई यात्रा पर निकल पड़े—एक ऐसी यात्रा जो उन्हें गौतम बुद्ध बनाएगी और पूरी दुनिया को करुणा, ज्ञान और मुक्ति का मार्ग दिखाएगी।