सचेतन- बुद्धचरितम् 24- 21 सर्ग बुद्ध और उनका धर्म-प्रसार
सचेतन- बुद्धचरितम् 24- 21 सर्ग बुद्ध और उनका धर्म-प्रसार
भगवान बुद्ध, जिन्हें हम तथागत भी कहते हैं, जब स्वर्ग में अपनी माता और वहाँ के देवताओं को धर्म की दीक्षा दे चुके, तो उन्होंने सोचा कि अब धरती पर चलकर अन्य लोगों को भी सत्य धर्म की शिक्षा दी जाए।
“तथागत” शब्द पाली भाषा से लिया गया है, जिसका अर्थ है “जैसा बोला गया है, वैसा ही किया गया है”. इसका मतलब है कि बुद्ध जो कुछ भी कहते थे, उसे वे अपने जीवन में भी करते थे. इसलिए, उन्हें “तथागत” कहा जाता है, जो सत्य और ज्ञान का प्रतीक है.
वे धरती पर लौटे और कई जगहों पर भ्रमण करने लगे। जहाँ-जहाँ वे गए, वहाँ उन्होंने अनेक राजाओं, यक्षों (देवता-सदृश प्राणी), और ब्राह्मणों को अपने धर्म में दीक्षित किया। लोग उनके ज्ञान और करुणा से बहुत प्रभावित हुए और उनकी प्रशंसा तथा प्रतिष्ठा दिन-ब-दिन बढ़ती चली गई।
लेकिन बुद्ध की इस बढ़ती हुई लोकप्रियता को देखकर देवदत्त, जो कि उनका ही एक संबंधी और पूर्व शिष्य था, ईर्ष्या से भर गया। उसने संघ (बौद्ध भिक्षुओं के समूह) में फूट डालने की कोशिश की। वह इतना द्वेषपूर्ण हो गया कि उसने बुद्ध को मारने का षड्यंत्र रच डाला।
एक दिन उसने एक मतवाले (गुस्सैल और उग्र) हाथी को उकसाया और बुद्ध की ओर भेज दिया ताकि वह उन्हें कुचल दे। जब लोगों ने यह दृश्य देखा तो चारों ओर हाहाकार मच गया। लेकिन जैसे ही वह हाथी बुद्ध के पास पहुँचा, वह शांत हो गया, मानो किसी ने उसकी क्रोधाग्नि बुझा दी हो। बुद्ध ने प्यार से उसके मस्तक पर हाथ फेरा, और हाथी पूरी तरह शांत और विनम्र हो गया।
इसके बाद बुद्ध गंधार नगर पहुँचे, जहाँ एक भयंकर विषधर साँप लोगों को बहुत परेशान कर रहा था। बुद्ध ने अपने तप और ज्ञान से उसे भी विषहीन और इंद्रियों पर नियंत्रण रखने वाला बना दिया।
इस प्रकार भगवान बुद्ध ने अजातशत्रु जैसे कई राजाओं और अनगिनत पुरुषों और स्त्रियों को धर्म की दीक्षा दी और अपने चमत्कारों से लोगों को मोह लिया। उन्होंने समाज में एक नई धर्मधारा का प्रवाह कर दिया—जो शांति, करुणा और ज्ञान पर आधारित थी।
देवदत्त ने जो भी बुरा कार्य किया, वह अंततः लज्जाजनक साबित हुआ, और समाज में उसकी निंदा हुई।
इस तरह यह सर्ग दिखाता है कि बुद्ध का मार्ग सच्चाई, अहिंसा और करुणा का था, और उन्होंने अपने उदाहरण से यह सिद्ध किया कि सत्य की राह में कोई भी बाधा उन्हें रोक नहीं सकती।
(बुद्धचरितम् – बाइसवाँ सर्ग की कथा)
कुछ समय राजगृह में रहने के बाद महात्मा बुद्ध ने पाटलिपुत्र की ओर यात्रा की। वहाँ मगधराज के मंत्री वर्षकार ने बुद्ध का स्वागत किया। वर्षकार ने लिच्छवियों के लिए एक मजबूत और सुंदर किला बनवाया था। जब बुद्ध ने देखा कि उस किले में देवता स्वर्ग से धन लाकर ला रहे हैं, तो उन्होंने कहा, “यह नगर संसार में एक प्रमुख नगर बनेगा।”
वर्षकार ने बड़ी श्रद्धा और विधिपूर्वक बुद्ध की पूजा की। वहाँ से बुद्ध गंगा के किनारे पहुँचे। जिस द्वार से वे निकले, उसका नाम बाद में “गौतम द्वार” रखा गया।
बुद्ध ने अपने योग बल से गंगा को पार किया — वे आकाश मार्ग से उस पार चले गए। जहाँ से वे पार गए, उस स्थान को “गौतम तीर्थ” कहा जाने लगा।
गौतम तीर्थ से आगे बढ़ते हुए वे कुटी ग्राम पहुँचे और वहाँ शम (शांति) धर्म का उपदेश दिया। फिर नदी ग्राम होते हुए वे वैशाली नगरी पहुँचे और वहाँ की प्रसिद्ध नर्तकी आम्रपाली के उपवन में कुछ दिन ठहरे।
जब आम्रपाली को यह समाचार मिला कि बुद्ध उसके उपवन में आए हैं, तो वह बुद्ध के दर्शन करने वहाँ चली आई।
बुद्ध ने जब आम्रपाली को आते हुए देखा, तो अपने शिष्यों से कहा,
“यह आम्रपाली आ रही है, जो मन को मोहित कर सकती है। इसलिए तुम सभी सावधान रहो। अपने मन को बोध (ज्ञान) रूपी औषधि से संयमित करो और ज्ञान में स्थिर रहो।”
थोड़ी देर बाद आम्रपाली वहाँ पहुँची। उसने महात्मा बुद्ध को प्रणाम किया और हाथ जोड़कर श्रद्धा से उनके सामने बैठ गई।
बुद्ध ने शांत स्वर में कहा,
“युवा स्त्रियों में धर्म के प्रति जिज्ञासा बहुत कठिन होती है। फिर भी, बैठो।”
इसके बाद उन्होंने आम्रपाली को धर्म का उपदेश दिया।इस प्रकार बुद्ध का यह चरण जीवन के उन प्रसंगों में से है, जहाँ वे समाज के हर वर्ग से जुड़ते हैं और सबको धर्म, ज्ञान और करुणा का मार्ग दिखाते हैं।