सचेतन 209: शिवपुराण- वायवीय संहिता – कुमारावस्था अति मनोरम और दिव्य होता है।

श्वेतलोहित नामक उन्नीसवें कल्प में शिवजी का सद्योजात नामक अवतार हुआ है। यही शिवजी का प्रथम अवतार कहा जाता है।सद्योजात का अर्थ है की जिसने अभी या कुछ ही समय पहले जन्म लिया हो। यह ऐसे भाव को दर्शाता है की मानो एक माँ नवजात शिशु को बार-बार दुलार रही होती है। शिवजीके सद्योजात, वामदेव, तत्पुरुष, अघोर और ईशान नामक पाँच अवतारों का वर्णन है। 

भगवान शंकर के पश्चिमी मुख को ‘सद्योजात’ कहा जाता है, जो श्वेतवर्ण का है। सद्योजात पृथ्वी तत्व के अधिपति है और बालक के समान परम स्वच्छ, शुद्ध और निर्विकार है। सद्योजात ज्ञानमूर्ति बनकर अज्ञानरूपी अंधकार को नष्ट करके विशुद्ध ज्ञान को प्रकाशित कर देते है।

सद्योजात अवतार के पश्चात रक्त नामक बीसवां कल्प आया। इसमें ब्रह्माजी का शरीर रक्तवर्ण का हो गया। इस प्रकार ध्यान करते हुए उनके मन में अचानक पुत्र प्राप्ति का विचार आया। उसी समय उन्हें एक पुत्र प्राप्त हुआ। उसने लाल रंग के कपड़े पहन रखे थे तथा उसके सभी आभूषण और आंखें भी लाल ही थीं। तब उस पुत्र का नाम वामदेव हुआ जिसको भगवान शिव का दिया हुआ प्रसाद जानकर ब्रह्माजी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने भगवान शिव की स्तुति करनी आरंभ कर दी। उस लाल वस्त्रधारी के विरज, विवाह, विशाख और विश्वभान नाम के चार पुत्र हुए। तत्पश्चात वामदेव भगवान शिव ने ब्रह्माजी को सृष्टि की रचना करने की आज्ञा प्रदान की।

शिव के इस स्वरूप वामदेव, का संबंध संरक्षण से है। अपने इस स्वरूप में शिव, कवि भी हैं, पालनकर्ता भी हैं और दयालु भी हैं। शिवलिंग के दाहिनी ओर पर मौजूद शिव का यह स्वरूप उत्तरी दिशा की ओर देखता है।

वामदेव की चर्चा ऋग्वेद के चतुर्थ मंडल के सूत्तद्रष्टा, गौतम ऋषि के पुत्र तथा “जन्मत्रयी” के तत्ववेत्ता के रूप में भी है, जिन्हें गर्भावस्था में ही अपने विगत जन्मों का ज्ञान हो गया था और उसी अवस्था में इंद्र के साथ तत्वज्ञान पर इसकी चर्चा हुई थी। वैदिक उल्लेखानुसार सामान्य मनुष्यों की भाँति जन्म न लेने की इच्छा से इन्होंने माता का उदर फाड़कर उत्पन्न होने का निश्चय किया। 

वामदेव की जन्म की कथा में कहा गया है की वामदेव जब माँ के गर्भ में थे तभी से उन्हें अपने पूर्वजन्म आदि का ज्ञान हो गया था। उन्होंने सोचा, माँ की योनि से तो सभी जन्म लेते हैं और यह कष्टकर है, अत: माँ का पेट फाड़ कर बाहर निकलना चाहिए। वामदेव की माँ को इसका आभास हो गया। अत: उसने अपने जीवन को संकट में पड़ा जानकर देवी अदिति से रक्षा की कामना की। अदिति और इंद्र ने प्रकट होकर गर्भ में स्थित वामदेव को बहुत समझाया, किंतु वामदेव नहीं माने और वामदेव ने इंद्र से कहा, “इंद्र! मैं जानता हूँ कि पूर्वजन्म में मैं ही मनु तथा सूर्य रहा हूँ। मैं ही ऋषि कक्षीवत (कक्षीवान) था। कवि उशना भी मैं ही था। मैं जन्मत्रयी को भी जानता हूँ। वामदेव कहने लगे जीव का प्रथम जन्म तब होता है, जब पिता के शुक कीट माँ के शोणिक द्रव्य से मिलते है। दूसरा जन्म योनि से बाहर निकलकर है, और तीसरा जन्म मृत्युपरांत पुनर्जन्म है। यही प्राणी का अमरत्व भी है।” वामदेव ने इंद्र को अपने समस्त ज्ञान का परिचय देकर योग से श्येन पक्षी का रुप धारण किया तथा अपनी माता के उदय से बाहर निकल आये।

श्येन एक दिव्य बाज पक्षी है, जो पृथ्वी पर मौजूद सभी वस्तुओं के कायाकल्प और पुनरोद्धार के इरादे से सोम (अमृत) को पृथ्वी पर लाने के लिए स्वर्ग गये। वैदिक अनुष्ठान में ईंटों से बाज के आकार में बनायी गयी वेदी को भी श्येन कहते हैं। यजुर्वेद में इस अग्नि-वेदी के निर्माण के दौरान पढ़ी जाने वाली प्रार्थनाओं और मंत्रों का उल्लेख है जो सर्जक और सृजित का प्रतिनिधित्व करता है। पुराणों में, श्येन भगवान विष्णु का वाहन गरुड़ है, जिसका उल्लेख महाभारत के आदि पर्व में भी मिलता है, और जो नागों की माँ और ऋषि कश्यप की सह-पत्नी कद्रू के कहने पर अमृता को स्वर्ग से लाया था।

वैसे वामदेव अवतार के अनेक पुराणेतिहासिक व्यक्तियों का उल्लेख प्राप्त होता है जिनमें मत्स्यपुराण के अनुसार मनु-शतरूपा के पुत्र रूप में शिवावतार के रूप में वर्णन है। अंगिरस और सुरूपा का पुत्र वामदेव है। रामायण के काल में रामचंद्र के समय के एक ऋषि और ग्यारह रुद्रों में से दसवें रुद्र वामदेव अवतार आदि उल्लेखनीय हैं।