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पंचतंत्र की कथा-10 : धोखा और लालच: साधू देव शर्मा की कहानी
नमस्कार दोस्तों, स्वागत है! आज हम सुनाएंगे एक रोचक और शिक्षाप्रद पंचतंत्र की कहानी, जिसमें हमारे साथ हैं साधू देव शर्मा और एक चालाक ठग। यह कहानी हमें मनुष्य के स्वभाव, लालच, और विश्वास के बारे में महत्वपूर्ण सबक देती है। तो आइए शुरू करते हैं…
कहानी की शुरुआत:
किसी समय की बात है, एक गाँव के मंदिर में देव शर्मा नाम का एक प्रतिष्ठित साधू रहता था। वह भिक्षा मांगकर अपना गुजारा करता और गाँव के लोग उसकी साधुता और सेवा भावना के कारण उसका बहुत सम्मान करते थे। साधू जी को गाँव के लोग तरह-तरह के उपहार, वस्त्र, और खाद्य सामग्री दान में दिया करते थे। साधू जी ने धीरे-धीरे उन वस्त्रों और उपहारों को बेचकर अच्छा-खासा धन इकट्ठा कर लिया था।
हालांकि, देव शर्मा एक बात को लेकर हमेशा चिंतित रहते थे—उनका धन। उन्होंने अपने धन को एक पोटली में बाँध रखा था, जिसे वे हमेशा अपने साथ रखते थे। वे किसी पर भी पूरी तरह से विश्वास नहीं करते थे और अपने धन की सुरक्षा को लेकर हमेशा सतर्क रहते थे।
ठग की योजना:
उसी गाँव में एक चालाक ठग भी रहता था। उस ठग की नजर काफी समय से साधू जी की पोटली पर थी। उसने कई बार साधू का पीछा किया, लेकिन साधू कभी अपनी पोटली को अपने से अलग नहीं करते थे। ठग को समझ आ गया कि अगर उसे इस धन को पाना है, तो उसे साधू का विश्वास जीतना होगा।
ठग ने एक दिन एक नया रूप धारण किया। उसने छात्र का वेश पहनकर साधू के पास पहुंचा और साधू से कहा, “महाराज, मैं ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूँ। कृपया मुझे अपना शिष्य बना लें।” साधू जी एक दयालु व्यक्ति थे, उन्होंने उसकी प्रार्थना स्वीकार की और उसे अपना शिष्य बना लिया। इस तरह से ठग ने साधू के साथ रहना शुरू कर दिया।
ठग का विश्वास जीतना:
शिष्य बनने के बाद ठग ने साधू जी की बहुत सेवा की। उसने मंदिर की सफाई की, साधू जी का ख्याल रखा, और हर वह काम किया जिससे साधू जी को खुश रखा जा सके। धीरे-धीरे ठग साधू जी का विश्वासपात्र बन गया और साधू को लगने लगा कि यह शिष्य वास्तव में उसकी भलाई के लिए है।
साधू की यात्रा और धोखा:
एक दिन साधू जी को पास के गाँव में एक अनुष्ठान के लिए बुलावा आया। उन्होंने अपने शिष्य को भी साथ चलने के लिए कहा। यात्रा के दौरान उन्हें एक नदी पार करनी पड़ी। साधू जी ने स्नान करने की इच्छा व्यक्त की और उन्होंने अपनी पोटली को एक कम्बल में रखकर नदी किनारे छोड़ दिया। उन्होंने अपने शिष्य से कहा, “इस पोटली का ध्यान रखना।” यह वही क्षण था जिसका ठग को इंतजार था।
जैसे ही साधू जी स्नान करने के लिए नदी में डुबकी लगाने लगे, ठग तुरंत पोटली उठाकर भाग निकला। साधू जी, जिन्होंने ठग पर पूरा विश्वास किया था, उसी ने उनकी मेहनत की सारी संपत्ति चुरा ली।
कहानी से सीख:
इस कहानी से हमें एक महत्वपूर्ण शिक्षा मिलती है—विश्वास सोच-समझकर करना चाहिए। ठग ने अपनी चालाकी और मीठी बातों से साधू जी का विश्वास जीता और अंत में उन्हें धोखा दिया। हमें यह समझना चाहिए कि हर कोई वैसा नहीं होता जैसा वह दिखता है। हमें अपने आसपास के लोगों पर भरोसा करने से पहले उनकी नीयत और उनके व्यवहार को अच्छे से समझ लेना चाहिए।
कहानी का एक और पहलू यह भी है कि धन और संपत्ति के प्रति अति मोह मनुष्य को अपने आदर्शों से भटका सकता है। साधू देव शर्मा, जो पहले एक त्यागमयी जीवन जी रहे थे, अपनी संपत्ति के प्रति मोह के कारण असुरक्षित महसूस करने लगे। यही असुरक्षा और विश्वास का गलत चुनाव अंततः उनके पतन का कारण बना।
समाप्ति और संदेश:
तो दोस्तों, यह थी साधू देव शर्मा की कहानी। इस कहानी से हमें यह सिखने को मिलता है कि किसी अजनबी की चिकनी-चुपड़ी बातों में आकर जल्दी से विश्वास नहीं करना चाहिए। साथ ही, यह भी जानना आवश्यक है कि बहुत अधिक धन-संपत्ति की लालसा और सुरक्षा की चिंता, जीवन में शांति को छीन लेती है।
आशा है कि आपको यह कहानी पसंद आई होगी और इससे कुछ नई बातें सीखने को मिली होंगी। हम फिर मिलेंगे एक नई और दिलचस्प कहानी के साथ। तब तक खुश रहें, सतर्क रहें, और सच्ची शांति की खोज करते रहें। धन्यवाद!
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पंचतंत्र की कथा-09 : स्त्री स्वभाव दंतिल और गोरंभ की कहानी का विश्लेषण
दंतिल और गोरंभ की कहानी का विश्लेषण
पंचतंत्र के विदेशी अनुवादों की कहानी काफी दिलचस्प और प्रेरणादायक है। विद्वानों का कहना है कि पंचतंत्र एक ऐसा पर्वत है, जहाँ ज्ञान की बूटियाँ छिपी हुई हैं, जिनके सेवन से मूर्खता से जूझ रहा इंसान फिर से जी उठता है। इस अमृत की महिमा पंचतंत्र नामक ग्रंथ में समाहित है। इस ज्ञान का पहला बीज विदेश में तब बोया गया जब एक विद्वान, बुजुए, पंचतंत्र की एक प्रति ईरान ले गया और उसने इसे पहलवी भाषा में अनुवादित किया। हालांकि, अब वह अनुवाद उपलब्ध नहीं है, परन्तु यह किसी विदेशी भाषा में पंचतंत्र का पहला अनुवाद था।
कुछ वर्षों बाद, लगभग 570 ईस्वी में, पहलवी पंचतंत्र का अनुवाद सीरिया की प्राचीन भाषा में हुआ। यह अनुवाद उन्नीसवीं सदी के मध्य में अचानक प्रकाश में आया और जर्मन विद्वानों ने इसका सम्पादन और अनुवाद किया। यह अनुवाद मूल संस्कृत पंचतंत्र के भावों और कहानियों के सबसे करीब माना जाता है।
इसके बाद पंचतंत्र का अनुवाद कई भाषाओं में हुआ और यह सिलसिला अब्दुल्ला के अरबी अनुवाद से शुरू हुआ। इस अनुवाद में अब्दुल्ला ने अपनी भूमिका जोड़ी और कई कहानियाँ भी इसमें शामिल कीं। इस रूप में यह ग्रंथ अरबी भाषा के सबसे लोकप्रिय ग्रंथों में से एक बन गया। अरबी अनुवाद के आधार पर पंचतंत्र के विदेशी अनुवादों का ऐसा सिलसिला शुरू हुआ, जिसने यूरोप की लगभग सभी भाषाओं को अपनी चपेट में ले लिया।
ग्यारहवीं सदी में सबसे पहले यूनानी भाषा में यूरोप का अनुवाद हुआ, जिससे रूसी और अन्य स्लाव भाषाओं में भी इसका प्रसार हुआ। पश्चिमी यूरोप के देशों को भी इस यूनानी अनुवाद का परिचय मिला और सोलहवीं सदी से लेकर कई बार इसे लैटिन, इटैलियन और जर्मन भाषाओं में अनुवाद किया गया।
लगभग 1251 ईस्वी में अरबी पंचतंत्र का एक अनुवाद प्राचीन स्पैनिश भाषा में किया गया। इससे पहले हेब्रू भाषा में भी अरबी से एक अनुवाद हुआ था। इस हेब्रू अनुवाद के आधार पर दक्षिणी इटली के कपुआ नगर के एक यहूदी विद्वान, जौन, ने इसे लैटिन में अनुवादित किया। इसका नाम रखा गया “कलीला व दमनः की पुस्तक – मानवी जीवन का कोष”। इस अनुवाद ने मध्यकालीन यूरोप में बड़ी धूम मचाई और इसके आधार पर पश्चिमी यूरोप के कई देशों ने अपनी-अपनी भाषाओं में पंचतंत्र का अनुवाद किया।
1480 के करीब जर्मन भाषा में कपुआ वाले पंचतंत्र के संस्करण का अनुवाद हुआ और यह इतना लोकप्रिय हुआ कि पचास साल में इसके बीस से अधिक संस्करण प्रकाशित हुए। इसके बाद डेन्मार्क, हॉलैंड, और आइसलैंड जैसी भाषाओं में भी इस जर्मन संस्करण के आधार पर अनुवाद किए गए।
पंचतंत्र का यह अनुवादों का सफर हमें दिखाता है कि यह केवल एक ग्रंथ नहीं था, बल्कि ज्ञान, नैतिकता और जीवन के गूढ़ सिद्धांतों का ऐसा खजाना था जिसने सीमाओं को पार किया और विभिन्न संस्कृतियों में अपनी अमूल्य छाप छोड़ी।
यह कहानी प्राचीन भारतीय साहित्यिक कथा परंपरा का हिस्सा लगती है, जिसमें मानव स्वभाव, रिश्ते, और सामाजिक धारणाओं को व्यंग्यात्मक और आलोचनात्मक तरीके से प्रस्तुत किया गया है। ये कथाएँ उस समय के समाज की सोच और परंपराओं को दर्शाती हैं और मनुष्य के अनुभवों, कमजोरियों, और संबंधों की जटिलता पर रोशनी डालती हैं। आइए इसे विस्तार से समझते हैं:
दंतिल और गोरंभ की कहानी का विश्लेषण करें तो स्वप्न और मानसिक इच्छाएँ को समझ सकते हैं।
कथाकार विष्णु शर्मा का कहना है कि मनुष्य दिन में जो सोचता है, देखता है, या जिन चीज़ों की उसे इच्छा होती है, वे बातें उसके सपनों में भी दिखाई देती हैं। इस विचार के माध्यम से यह बताया गया है कि मनुष्य की मानसिक स्थिति और उसके विचार उसके व्यवहार और सपनों में झलकते हैं। उदाहरण के लिए, व्यक्ति जो कुछ दिन में अनुभव करता है, वह अक्सर उसे सपने में भी नजर आता है। इसके अलावा, अवचेतन मन के अच्छे या बुरे विचार भी नशे की स्थिति या सपनों में प्रकट हो सकते हैं।
स्त्रियों का व्यवहार
गोरंभ, दंतिल से अपने अपमान का बदला लेने के लिए सपने का उदाहरण देते हुए राजा के मन में संदेह पैदा किया और बोला “अरे! दंतिल ने महारानी को आलिंगन किया।” राजा यह सुनते ही चौंक गया और उसने गोरंभ से पूछा, “यह सच है?” गोरंभ ने कहा, “मुझे नहीं पता, शायद मैं नींद में कुछ बोल गया हूँ।” लेकिन राजा के मन में संदेह पैदा हो गया और उसने दंतिल से दूरी बना ली। उसके बाद राजा ने दंतिल को महल से निकाल दिया और उससे पूरी तरह मुँह मोड़ लिया।
इस अंश में स्त्रियों के स्वभाव को लेकर व्यंग्यात्मक तरीके से बातें कही गई हैं। इसमें यह बताया गया है कि महिलाएँ एक व्यक्ति से बात करती हैं, दूसरे को नखरे दिखाती हैं, और किसी तीसरे को अपने मन में स्थान देती हैं। इसे एक नकारात्मक दृष्टिकोण से दिखाया गया है, जिसमें यह बताया गया है कि उनके मन में कौन प्रिय है, इसे समझ पाना मुश्किल है। यह विचार उस समय की सामाजिक धारणाओं को दर्शाता है, जिसमें स्त्रियों के प्रति अविश्वास और संदेह को जगह दी गई थी।
अंश में यह भी कहा गया है कि स्त्रियाँ मर्यादा में तभी रहती हैं जब एकांत का अवसर नहीं होता, या उनके पास कोई पुरुष नहीं होता। यह कथन स्त्रियों की वफादारी को संदेह की दृष्टि से देखता है और यह मानता है कि उनके सतीत्व का पालन केवल परिस्थितियों के कारण ही होता है, न कि उनकी इच्छाशक्ति से। यह विचार उस समय के समाज में स्त्रियों के प्रति पूर्वाग्रह को दर्शाता है।
राजा का क्रोध और दंतिल की स्थिति
राजा ने दंतिल पर कृपा करना बंद कर दी और उसे दरबार से बाहर कर दिया। इस पर दंतिल सोचता है कि धन मिलने पर कौन अहंकार नहीं करता, किसका मन स्त्रियों ने नहीं तोड़ा, और कौन काल के हाथ से बच सका है। यह विचार दर्शाता है कि मानव जीवन में अहंकार और मोह कैसे असर डालते हैं और किस तरह संबंधों में मनमुटाव पैदा हो जाता है।
इस कहानी में मनुष्य के जीवन की कमजोरियाँ, इच्छाएँ, और संबंधों की जटिलता को दिखाया गया है। इसमें विशेष रूप से स्त्रियों के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण है, जो उस समय के समाज की धारणाओं और पूर्वाग्रहों को उजागर करता है। इस कथा का उद्देश्य सामाजिक और नैतिक शिक्षाएं देना था, लेकिन आज के समय में इस प्रकार की धारणाओं को आलोचनात्मक दृष्टि से देखा जा सकता है और इन पर सवाल उठाए जा सकते हैं।
इस प्रकार की कहानियाँ उस समय के समाज की सोच और धारणाओं को दिखाती हैं। हालांकि, वर्तमान में इन धारणाओं का विश्लेषण जरूरी है ताकि हम समझ सकें कि कैसे समय के साथ सामाजिक धारणाएं बदली हैं और कैसे हमें हर व्यक्ति के प्रति समान दृष्टिकोण रखना चाहिए।
कहानी का अंत इस पर होता है कि दमनक संजीवक को लेकर पिंगलक के पास आता है। पिंगलक, जो जंगल का राजा है, संजीवक का स्वागत करता है और उसकी प्रशंसा करता है। यह दृश्य इस बात का संकेत है कि कहानी का अगला चरण अब शुरू होने वाला है।
धन्यवाद दोस्तों, उम्मीद है आपको यह व्याख्या पसंद आई होगी। इस कहानी से हमें यह समझने का अवसर मिलता है कि हमारे समाज में पूर्वाग्रह कैसे काम करते थे और हमें किस तरह आज उन धारणाओं को चुनौती देने और बदलने की आवश्यकता है। अगली बार फिर मिलेंगे एक नई कहानी के साथ। तब तक के लिए, खुश रहिए और सकारात्मक रहिए!
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पंचतंत्र की कथा-08 : दंतिल और गोरंभ की कहानी
पंचतंत्र की रचना करने वाले विष्णु शर्मा एक ऐसे विद्वान ब्राह्मण थे जिनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने भारतीय नीतिशास्त्र में अपनी गहरी पकड़ बना ली थी। कई लोग विष्णु शर्मा के अस्तित्व पर सन्देह करते हैं, लेकिन इसके पीछे कोई ठोस कारण नहीं है। दरअसल, पंचतंत्र के सभी संस्करणों में उनके नाम को इस ग्रंथ के लेखक के रूप में लिखा गया है, इसलिए इस बात में किसी प्रकार का संदेह नहीं होना चाहिए।
कहा जाता है कि जब उन्होंने पंचतंत्र की रचना की थी, तब वे लगभग अस्सी वर्ष के थे। उनकी उम्र का यह समय अनुभव और ज्ञान से भरपूर था, और उनका मन सभी प्रकार के भौतिक भोगों और इच्छाओं से मुक्त हो चुका था। विष्णु शर्मा ने स्वयं कहा है, “मैंने इस शास्त्र की रचना अत्यन्त बुद्धिपूर्वक की है जिससे औरों का हित हो।” इसका अर्थ यह है कि वे लोकहित को ध्यान में रखकर कार्य करते थे, और अपनी विद्या को दूसरों के लाभ के लिए समर्पित करना उनका मुख्य उद्देश्य था।
पंचतंत्र की रचना के पीछे विष्णु शर्मा का उद्देश्य यही था कि वे अपने ज्ञान को लोकहित के लिए प्रस्तुत कर सकें। उन्होंने मनु, बृहस्पति, शुक्र, पराशर, व्यास और चाणक्य जैसे महान आचार्यों के राजशास्त्र और अर्थशास्त्रों को अपने अनुभव से मथकर पंचतंत्र रूपी नवनीत तैयार किया। पंचतंत्र की कहानियाँ केवल मनोरंजन के लिए नहीं हैं, बल्कि वे हमें जीवन की सच्चाईयों से अवगत कराती हैं और नीतियों की शिक्षा देती हैं।
पिछले विचार के सत्र में विष्णु शर्मा का दृष्टिकोण हमें बहुत सीख दिया है –
पंचतंत्र के माध्यम से विष्णु शर्मा ने यह दर्शाया कि किस प्रकार नीति और चतुराई से जीवन की कठिनाइयों का सामना किया जा सकता है। दमनक ने चालाकी से अपने स्वामी को अपने वश में कर लिया और अपने फायदे के लिए संजीवक और पिंगलक के बीच फूट डाल दी। लेकिन यह भी स्पष्ट हुआ कि झूठ और छल से केवल अस्थायी सफलता ही पाई जा सकती है।
विष्णु शर्मा का उद्देश्य इस प्रकार की कहानियों के माध्यम से नीतिगत शिक्षा देना था, ताकि लोग जीवन के व्यवहारिक पक्षों को समझ सकें और अपने लिए उचित मार्ग चुन सकें। पंचतंत्र की कहानियाँ केवल शेर, बैल, और सियारों की कहानियाँ नहीं हैं; वे हमारी सामाजिक और व्यक्तिगत समस्याओं को उजागर करती हैं और हमें यह सिखाती हैं कि कैसे अपनी बुद्धि और विवेक का उपयोग करके कठिन परिस्थितियों से बाहर निकला जा सकता है।
पंचतंत्र की कहानियाँ हमें सिखाती हैं कि जीवन में चालाकी और चतुराई की भी आवश्यकता होती है, लेकिन साथ ही नीतिगत मूल्यों और सच्चाई का पालन करना अत्यंत महत्वपूर्ण है। पिंगलक और संजीवक की मित्रता का टूटना हमें इस बात की सीख देता है कि हमें अपने विश्वास को बिना सोचे-समझे किसी और के हाथों में नहीं सौंपना चाहिए। साथ ही, यह भी कि सच्ची मित्रता और विश्वास को बनाए रखना कठिन है, लेकिन अगर यह टूट जाए तो उसका नुकसान बहुत बड़ा होता है।
आज हम दंतिल और गोरंभ की कहानी की शुरुआत करते हैं-
नमस्कार दोस्तों! स्वागत है आप सभी का पंचतंत्र की कहानियों की इस दिलचस्प श्रृंखला में। आज हम सुनने जा रहे हैं दंतिल और गोरंभ की कहानी। यह कहानी हमें बताती है कि कैसे हमारे द्वारा किया गया अपमान हमारे लिए बड़ी मुसीबत बन सकता है। तो चलिए, शुरू करते हैं।
इस कहानी की शुरुआत होती है वर्द्धमान नाम के नगर से। इस नगर में दंतिल नाम का एक सेठ रहता था, जो बहुत समझदार था और उसने अपनी चतुराई से नगरवासियों और राजा, दोनों को खुश रखा। वह नगर का अगुवा था और सभी लोग उसकी इज्जत करते थे। लेकिन एक दिन एक घटना ने उसकी खुशहाली को बदल दिया।
दंतिल की बेटी का विवाह हुआ और उसने नगर के सभी महत्वपूर्ण लोगों और राजा के लोगों को अपने घर बुलाकर आदर-सत्कार किया। राजा के महल में झाडू देने वाला गोरंभ नामक सेवक भी वहाँ आया था। जब दंतिल ने उसे अनुचित स्थान पर बैठा देखा, तो गुस्से में आकर उसने उसे बाहर निकाल दिया। इस घटना ने गोरंभ को बहुत आहत किया और उसने दंतिल से बदला लेने की ठान ली।
गोरंभ ने अपने अपमान का बदला लेने के लिए एक योजना बनाई। एक सुबह जब राजा अर्ध-निद्रा में थे, गोरंभ सफाई कर रहा था। उसी समय उसने बोल दिया, “अरे! दंतिल ने महारानी को आलिंगन किया।” राजा यह सुनते ही चौंक गया और उसने गोरंभ से पूछा, “यह सच है?” गोरंभ ने कहा, “मुझे नहीं पता, शायद मैं नींद में कुछ बोल गया हूँ।” लेकिन राजा के मन में संदेह पैदा हो गया और उसने दंतिल से दूरी बना ली। उसके बाद राजा ने दंतिल को महल से निकाल दिया और उससे पूरी तरह मुँह मोड़ लिया।
दंतिल, जो राजा का प्रिय और नगर का सम्मानित व्यक्ति था, अचानक ही सब कुछ खो बैठा। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसा क्यों हुआ। एक दिन जब वह राजा के महल के द्वार पर खड़ा था, गोरंभ ने उसका मजाक उड़ाया और कहा, “अब दंतिल को भी वही सजा मिली है, जो मुझे मिली थी।” दंतिल को समझ में आ गया कि यह सब गोरंभ की चाल थी।
दंतिल ने सोच-समझकर गोरंभ को शाम को अपने घर बुलाया और उसका बहुत आदर-सत्कार किया। उसने उससे माफी मांगी और कहा, “भाई, मैंने गुस्से में आकर तुम्हारा अपमान किया था। मुझे माफ कर दो।” गोरंभ, जो अब खुश था, ने उसे माफ कर दिया और वादा किया कि वह राजा से उसके लिए बात करेगा।
गोरंभ राजा के पास गया और अर्ध-निद्रा में सफाई करते हुए उसने राजा से कहा, “अरे हमारे राजा कितने मूर्ख हैं, पाखाना जाते समय ककड़ी खा रहे हैं।” यह सुनकर राजा चौंक गया और उसने गोरंभ से पूछा, “क्या तुमने सच में मुझे ऐसा करते देखा है?” गोरंभ ने जवाब दिया, “महाराज, शायद मैं नींद में कुछ बकवास कर रहा हूँ। मुझे माफ करें।”
राजा ने सोचा, “जैसे यह मूर्ख मेरे बारे में गलत बातें कह रहा है, वैसे ही दंतिल के बारे में भी जरूर झूठ बोला होगा।” राजा को अपनी गलती का एहसास हुआ और उसने दंतिल को वापस बुलाया, उसे सम्मानित किया, और फिर से उसके पद पर नियुक्त कर दिया।
कहानी से सीख:
इस कहानी से हमें यह सीखने को मिलता है कि हमें किसी का अपमान नहीं करना चाहिए। हमें सभी को बराबर सम्मान देना चाहिए, चाहे वह छोटा हो या बड़ा। दंतिल ने गोरंभ का अपमान किया और उसका परिणाम उसे भुगतना पड़ा। हमें अपने व्यवहार में हमेशा विनम्रता और आदर का ध्यान रखना चाहिए।
तो दोस्तों, यह थी दंतिल और गोरंभ की कहानी। इस कहानी से हमें बहुत कुछ सीखने को मिलता है। हमें यह समझ में आता है कि दूसरों का सम्मान करना कितना महत्वपूर्ण है और हमें किसी भी परिस्थिति में किसी का दिल नहीं दुखाना चाहिए। आशा करता हूँ आपको यह कहानी पसंद आई होगी। जुड़े रहिए हमारे साथ पंचतंत्र की और भी कहानियों के लिए। धन्यवाद, और सुनते रहिए, सीखते रहिए!
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पंचतंत्र की कथा-07 : दमनक और संजीवक के बीच बातचीत:
पिंगलक एक शेर था, जंगल का शक्तिशाली राजा। वहीं संजीवक एक साधारण बैल था जिसे उसके मालिक ने उसकी बीमारी और कमजोरी के कारण त्याग दिया था। संजीवक को अकेला छोड़ दिया गया और वह यमुना नदी के किनारे आकर रहने लगा। वहीं हरी घास खाकर और आराम करके वह धीरे-धीरे स्वस्थ और मजबूत हो गया।
एक दिन पिंगलक शेर, अपनी प्यास बुझाने के लिए यमुना के किनारे पहुंचा। लेकिन तभी उसे संजीवक की गहरी और गूंजती हुई हुंकार सुनाई दी। शेर को लगा कि यह कोई बड़ा और भयानक जीव है, और डर के मारे वह पास के एक पेड़ के नीचे छिप गया।
पिंगलक के दो सियार मंत्री थे—कर्कट और दमनक। कर्कट शांत स्वभाव का था और अधिक हस्तक्षेप से बचता था, जबकि दमनक बहुत चतुर और महत्वाकांक्षी था। उसने शेर को इस हालत में देखकर सोचा कि यह उसके लिए अवसर हो सकता है। दमनक ने पिंगलक के डर का फायदा उठाने की ठानी और संजीवक के पास पहुंचा।
दमनक और संजीवक के बीच बातचीत:
जब दमनक ने देखा कि शेर पिंगलक संजीवक की गर्जना से डरकर पेड़ के नीचे छिप गया है, तो उसने इस स्थिति को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करने का निश्चय किया। दमनक महत्वाकांक्षी था और वह चाहता था कि शेर के दरबार में उसका फिर से महत्व बढ़े। इसलिए उसने संजीवक से मिलने का निर्णय लिया।
दमनक संजीवक के पास गया और उसने चतुराई से बातचीत शुरू की। उसने संजीवक को बताया कि शेर पिंगलक जंगल का राजा है और उसकी कोई बुरी मंशा नहीं है। दमनक ने कहा, “स्वामी पिंगलक तुम्हारे गर्जन से भयभीत हैं, लेकिन यह भय सिर्फ अज्ञानता का परिणाम है। अगर तुम उनसे मिलकर अपने उद्देश्यों को स्पष्ट कर दोगे तो तुम्हारी और उनकी मित्रता बन सकती है। और एक बार शेर तुम्हारा मित्र बन गया, तो तुम्हें किसी भी प्रकार के खतरे से डरने की जरूरत नहीं होगी।”
संजीवक पहले डर गया था। आखिरकार, वह जानता था कि शेर कितना भयंकर शिकारी होता है। लेकिन दमनक की चतुराई भरी बातें और उसके आश्वासन ने संजीवक का मन बदल दिया। उसने सोचा कि अगर वह शेर का मित्र बन जाएगा, तो जंगल में वह सुरक्षित रह सकेगा और बिना किसी डर के जीवन जी सकेगा। अंततः संजीवक पिंगलक से मिलने के लिए तैयार हो गया।
पिंगलक और संजीवक की मित्रता:
दमनक ने संजीवक को पिंगलक से मिलवाया और दोनों के बीच मित्रता करा दी। पिंगलक को भी संजीवक की मासूमियत और साहस से प्रभावित हुआ। धीरे-धीरे, दोनों के बीच गहरी मित्रता होने लगी। संजीवक ने पिंगलक के साथ समय बिताना शुरू किया और उसकी कंपनी में पिंगलक अपनी जिम्मेदारियों को भूलने लगा। वह शिकार करने या जंगल के कानून बनाए रखने के बजाय संजीवक के साथ चर्चा करने और समय बिताने में लगा रहा।
संजीवक पिंगलक को खेती, घास और पशुओं के जीवन के बारे में बातें बताता था, जबकि पिंगलक उसे जंगल के शासकों की कहानियाँ सुनाता था। दोनों का यह संग साथ इतना गहरा हो गया कि शेर अपनी राजसी जिम्मेदारियों को भी संजीवक के साथ बैठकर बातें करने के लिए छोड़ने लगा। यह स्थिति जंगल के अन्य जानवरों के लिए बहुत ही चिंताजनक हो गई थी।
जंगल में असुरक्षा की भावना:
शेर की यह उदासीनता जंगल के अन्य जानवरों के लिए खतरे का कारण बन गई। पिंगलक, जो जंगल का राजा था, अब अपनी शक्ति और जिम्मेदारियों का सही से पालन नहीं कर रहा था। इससे जंगल में अराजकता फैलने लगी। छोटे जानवर और अन्य जीव जो शेर के संरक्षण में रहते थे, अब असुरक्षित महसूस करने लगे थे। वे सोचने लगे थे कि अगर शेर ही अपनी जिम्मेदारियों को छोड़ देगा तो उन्हें कौन बचाएगा?
कर्कट, जो पिंगलक का दूसरा मंत्री था, इस स्थिति से खुश नहीं था। उसने दमनक से कहा कि यह स्थिति जंगल के लिए ठीक नहीं है। लेकिन दमनक ने उसकी बातों को अनसुना कर दिया। दमनक के मन में पिंगलक और संजीवक की मित्रता को लेकर ईर्ष्या थी। उसे यह बात सहन नहीं हो रही थी कि एक साधारण बैल शेर के इतने करीब कैसे हो सकता है। वह चाहता था कि शेर सिर्फ उसकी सलाह माने और उसे महत्व दे।
दमनक की चालाकी और मित्रता में दरार:
दमनक ने धीरे-धीरे अपनी योजना पर काम करना शुरू किया। उसने पिंगलक और संजीवक के बीच गलतफहमियाँ पैदा करनी शुरू कर दीं। उसने पिंगलक को समझाया कि संजीवक उसकी जगह लेना चाहता है और उसके खिलाफ षड्यंत्र रच रहा है। दमनक ने कहा, “स्वामी, संजीवक आपसे मित्रता सिर्फ इसलिए कर रहा है ताकि वह आपकी जगह ले सके। वह चाहता है कि जंगल के सभी जानवर उसे अपना राजा मानें। आपको उस पर विश्वास नहीं करना चाहिए।”
दूसरी ओर, उसने संजीवक को भी पिंगलक के इरादों के बारे में संदेह पैदा कर दिया। उसने कहा, “संजीवक, पिंगलक तुम्हें सिर्फ इस्तेमाल कर रहा है। जब उसका काम खत्म हो जाएगा, तो वह तुम्हें खत्म करने की कोशिश करेगा। उसे केवल अपनी शक्ति और राजपाट की चिंता है।”
दमनक की इन चालाकियों ने दोनों के बीच का विश्वास तोड़ दिया। पिंगलक को लगने लगा कि संजीवक उसके खिलाफ षड्यंत्र कर रहा है, जबकि संजीवक को पिंगलक की नीयत पर शक होने लगा। दोनों के बीच की मित्रता धीरे-धीरे समाप्त हो गई। अंततः, उनकी दोस्ती का अंत एक भयंकर लड़ाई में हुआ, जिसमें संजीवक की मृत्यु हो गई।
दमनक की चालाकी का परिणाम:
दमनक की चालाकी और षड्यंत्र के कारण पिंगलक और संजीवक के बीच की मित्रता समाप्त हो गई और जंगल में फिर से अराजकता फैल गई। दमनक ने अपनी चालाकी से शेर का विश्वास जीता, लेकिन उसकी यह चालाकी अंततः जंगल के जानवरों के लिए घातक सिद्ध हुई। पिंगलक ने अपनी शक्ति और राजसी कर्तव्यों को छोड़कर एक साधारण मित्रता में अपनी सारी ऊर्जा लगा दी, और जब वह मित्रता टूटी तो उसे केवल पश्चाताप और खोया हुआ समय ही मिला।
कहानी से सीख:
इस कहानी से हमें यह सीखने को मिलता है कि हमें ईर्ष्या, चालाकी और झूठ से दूर रहना चाहिए। सच्ची मित्रता में विश्वास और निष्ठा का होना बहुत आवश्यक है। यदि किसी के बीच शक और षड्यंत्र आ जाएं, तो वह संबंध कभी भी लंबे समय तक टिक नहीं सकता। दमनक ने अपनी चतुराई से पिंगलक और संजीवक की मित्रता को तोड़ दिया, लेकिन अंततः इसका नुकसान सभी को हुआ—पिंगलक को, संजीवक को, और पूरे जंगल को।
इसलिए हमें सच्ची मित्रता और विश्वास को संजोकर रखना चाहिए और दूसरों के बारे में गलतफहमी फैलाने वाले लोगों से दूर रहना चाहिए। यही पंचतंत्र की इस कहानी का संदेश है।