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  • सचेतन, पंचतंत्र की कथा-13 : देव शर्मा  का बुनकर और उसकी पत्नी से मुलाक़ात 

    नमस्कार दोस्तों, स्वागत है आपका हमारे सचेतन के इस विचार के सत्र में। आज हम आपके लिए एक ऐसी कहानी लेकर आए हैं जिसमें है विश्वासघात, मोह, और मानवीय स्वभाव की जटिलताएँ कैसे आगे जीवन पर असर डालती है। यह कहानी है देव शर्मा नाम के एक संन्यासी की, जिसे उसके ही शिष्य ने धोखा दिया। तो आइए, बिना देर किए इस दिलचस्प कहानी को शुरू करते हैं।

    किसी गाँव के मंदिर में देव शर्मा नाम का एक संन्यासी रहता था। वह सरल और भोला था, और लोग उसका बहुत सम्मान करते थे। एक दिन देव शर्मा को एक ठग ने ठग लिया, जिसका नाम था आषाढ़भूति। आषाढ़भूति ने खुद को संन्यासी का शिष्य बनाकर उसका विश्वास जीत लिया, और फिर मौके का फायदा उठाकर देव शर्मा का सारा धन चुरा लिया। ठगी का शिकार होने के बाद देव शर्मा को बहुत दुख और गुस्सा हुआ। उसने आषाढ़भूति के पैरों के निशान का पीछा किया और धीरे-धीरे एक गाँव तक पहुँच गया।

    गाँव पहुँचने पर देव शर्मा की मुलाकात एक बुनकर से हुई। बुनकर अपनी पत्नी के साथ पास के नगर में शराब पीने जा रहा था। देव शर्मा ने बुनकर से निवेदन किया, “भैया, मुझे रात बिताने के लिए आश्रय चाहिए। मैं इस गाँव में किसी और को नहीं जानता।” बुनकर दुविधा में था, लेकिन उसने अतिथि धर्म निभाने का निर्णय लिया। उसने अपनी पत्नी से कहा, “तुम संन्यासी को घर ले जाओ, उनकी देखभाल करो, और मैं जल्दी वापस आऊँगा।”

    बुनकर की पत्नी संन्यासी को घर ले गई, लेकिन उसका मन अपने प्रेमी देवदत्त में अटका था। उसने संन्यासी को एक टूटी हुई खाट पर बैठा दिया और बहाना बनाकर कहा, “मैं अपनी सखी से मिलने जा रही हूँ, जल्दी ही लौट आऊँगी।” असल में, वह अपने प्रेमी से मिलने की तैयारी कर रही थी, लेकिन तभी उसने अपने पति को शराब की बोतल लिए हुए लौटते देखा। वह घबरा कर तुरंत घर वापस चली आई और अपने सारे शृंगार को उतारकर पहले जैसी बन गई।

    बुनकर ने अपनी पत्नी को सजी-धजी भागते हुए देखा तो उसके मन में संदेह पक्का हो गया। उसने गुस्से में अपनी पत्नी से पूछा, “पापिन, तू कहां जा रही थी?” पत्नी ने सफाई देते हुए कहा कि वह कहीं नहीं गई थी। बुनकर का गुस्सा और बढ़ गया और उसने अपनी पत्नी को खूंटे से बांध दिया और शराब के नशे में वहीं सो गया।

    स्त्री की चालाकी और नाइन की मदद

    बुनकर के पत्नी की सखी, जो एक नाइन थी, उसी समय वहाँ आई। उसने बुनकर को सोया हुआ पाया और उसकी पत्नी से कहा कि देवदत्त उसका इंतजार कर रहा है। लेकिन पत्नी ने अपनी मजबूरी बताई और कहा कि वह इस हालत में नहीं जा सकती। इस पर नाइन ने उसे उकसाते हुए कहा, “सच्चा आनंद वही है जो इस जीवन में प्राप्त हो सके। चलो, मैं तुम्हारी जगह बंध जाती हूँ, और तुम जल्दी से वापस आ जाना।”

    धोखे का नाटक

    पत्नी ने अपनी सखी की मदद से बंधन खोला और देवदत्त से मिलने चली गई। थोड़ी देर बाद बुनकर का नशा कम हुआ और वह जाग गया। उसने अपनी पत्नी से सवाल पूछे, लेकिन नाइन ने कोई जवाब नहीं दिया। गुस्से में आकर बुनकर ने तेज हथियार से उसकी नाक काट दी। उसने सोचा कि उसकी पत्नी ने उसे धोखा दिया है।

    बाद में, पत्नी वापस आकर नाइन को मुक्त करती है। बुनकर ने लुआठी की रोशनी में देखा कि उसकी पत्नी की नाक ठीक हो चुकी थी और जमीन पर खून बह रहा था। इसे देखकर बुनकर बड़ा अचंभित हुआ और उसने अपनी पत्नी को मुक्त कर दिया और माफी मांगी।

    दोस्तों, इस कहानी से हमें कई बातें सीखने को मिलती हैं। सबसे पहली बात तो यह है कि हमें किसी पर भी आंख मूंदकर भरोसा नहीं करना चाहिए। देव शर्मा ने आषाढ़भूति पर भरोसा किया और इसका नतीजा यह हुआ कि वह ठगी का शिकार हो गया। दूसरी बात यह है कि रिश्तों में विश्वास और ईमानदारी बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। बुनकर और उसकी पत्नी के बीच का अविश्वास और धोखा रिश्ते को कमजोर बनाता है।

    कहानी यह भी दिखाती है कि कैसे लोभ और मोह से भरे लोग अपने निकटतम लोगों को भी धोखा दे सकते हैं। चाहे वह आषाढ़भूति हो या बुनकर की पत्नी, दोनों ने अपनी इच्छाओं के चलते दूसरों को कष्ट पहुँचाया।

    यह कहानी हमें यह सिखाती है कि हमें सतर्क रहना चाहिए और किसी के मीठे बोलों में आकर उसका विश्वास नहीं करना चाहिए। दुनिया में कई लोग ऐसे हैं जो अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए दूसरों को धोखा देने से नहीं हिचकते।

    यह कहानी हमें उस समय के समाज में महिलाओं के प्रति जो दृष्टिकोण था, उसे समझने का मौका देती है। इसमें स्त्रियों को चालाक, मक्कार, और धोखा देने वाली के रूप में दिखाया गया है, जो उस समय की सामंती और पितृसत्तात्मक सोच को दर्शाता है। लेकिन आज के समय में इसे आलोचनात्मक दृष्टिकोण से देखना बहुत जरूरी है। आइए इस पर गहराई से बात करते हैं।

    समाजिक दृष्टिकोण और स्त्रियों का चित्रण

    कहानी में स्त्रियों के प्रति जो दृष्टिकोण सामने आया है, वह हमें उस समय की सामंती और पितृसत्तात्मक सोच के बारे में बताता है। स्त्रियों को अक्सर चालाक, मक्कार, और धोखा देने वाली के रूप में दिखाया जाता था। यह दृष्टिकोण उस समय की समाजिक मान्यताओं को दर्शाता है, जिसमें महिलाओं के प्रति अविश्वास और संदेह की भावना थी। यह बहुत महत्वपूर्ण है कि हम इस दृष्टिकोण को आज के समय में आलोचनात्मक नज़र से देखें और समझें कि स्त्रियों के बारे में ऐसे विचारों का समाज पर कितना नकारात्मक प्रभाव हो सकता है।

    विश्वास का महत्व

    कहानी से यह भी स्पष्ट होता है कि विश्वास का टूटना रिश्तों को कमजोर बना देता है। चाहे वह पति-पत्नी का रिश्ता हो या गुरु-शिष्य का, जब विश्वास टूटता है, तो रिश्ते में तनाव और कड़वाहट आ जाती है। इसलिए हमें अपने जीवन में धोखे और छल से दूर रहना चाहिए और सच्चाई और ईमानदारी का पालन करना चाहिए। ईमानदारी और सच्चाई न केवल हमारे रिश्तों को मजबूत बनाती हैं, बल्कि हमारे जीवन को भी अधिक शांतिपूर्ण और सुखद बनाती हैं।

    मानव स्वभाव की जटिलता

    इस कहानी से हमें यह भी संदेश मिलता है कि मानवीय रिश्ते और उनके बीच की जटिलता को समझने के लिए हमें धैर्य, ईमानदारी और सच्चाई का महत्व समझना चाहिए। यह कहानी हमें मानव स्वभाव की गहरी और जटिल समझ प्रदान करती है, खासकर उस समय के समाज के परिप्रेक्ष्य में। इसमें स्त्रियों के व्यवहार, चालाकी, और पुरुषों के उनके प्रति स्वभाव पर विचार किया गया है, जो आज भी हमें सोचने पर मजबूर करता है।

    आधुनिक दृष्टिकोण

    हालांकि यह कहानी एक पुरानी कथा है, लेकिन आज के संदर्भ में हमें इसे अलग नज़रिए से देखना चाहिए। हमें यह समझना चाहिए कि समय के साथ-साथ समाज की सोच और मान्यताएं भी बदलनी चाहिए। आज हमें महिलाओं को सम्मान और समानता के साथ देखना चाहिए। उनका स्थान समाज में बराबरी का है, और उन्हें किसी भी प्रकार से कमजोर या अविश्वसनीय मानना उचित नहीं है।

    निष्कर्ष

    इस कहानी से यह स्पष्ट होता है कि रिश्तों की जटिलता और मानवीय स्वभाव को समझने के लिए सच्चाई, धैर्य और ईमानदारी का पालन करना बेहद जरूरी है। हमें अपने रिश्तों में पारदर्शिता और आपसी समझ बनाए रखनी चाहिए। यह हमें एक सुखी और संतुलित जीवन जीने में मदद करेगा।आशा है कि आज की चर्चा ने आपको सोचने पर मजबूर किया होगा। अगले एपिसोड में हम एक और दिलचस्प विषय पर बात करेंगे। तब तक के लिए, सच्चाई और ईमानदारी के पथ पर चलिए और अपने रिश्तों को मजबूत बनाइए। धन्यवाद और नमस्कार!

  • सचेतन, पंचतंत्र की कथा-12 : आषाढ़भूति, सियार और दूती आदि की कथा-2

    यह कहानी एक महत्वपूर्ण सीख देती है कि किस प्रकार मनुष्य को संयम, सतर्कता, और विश्वास का संतुलन साधना चाहिए। इसमें देव शर्मा नामक एक संन्यासी और आषाढ़भूति नामक एक धूर्त पात्र के बीच की घटनाओं को दर्शाया गया है, जिसमें ज्ञान, धोखा और लोभ की परतें उजागर होती हैं।

    शांति और वैराग्य की चर्चा: एक दिन आषाढ़भूति देव शर्मा के पास गया और उनसे दीक्षा मांगने की इच्छा व्यक्त की। उसने यह बताते हुए कहा कि उसे संसार के भोगों से वैराग्य हो गया है। देव शर्मा उसकी बातों से प्रभावित हुए और उसे शिक्षा दी। उन्होंने कहा, “जो मनुष्य अपनी जवानी में ही शांत हो जाता है, वही सच्चा शांत है। जब शरीर की धातुएं छीजने लगती हैं और शरीर बूढ़ा हो जाता है, तो शांति आना कोई बड़ी बात नहीं है।”

    उन्होंने यह भी समझाया कि “भलेमानसों को पहले मन में बुढ़ापा आता है और फिर शरीर में। परंतु दुष्ट लोगों को सिर्फ शरीर में ही बुढ़ापा आता है, उनके मन में वह शांति और परिपक्वता नहीं आती।”

    शिव मंत्र की दीक्षा: आषाढ़भूति ने देव शर्मा से पूछा कि वह कैसे इस संसार-सागर को पार कर सकता है। देव शर्मा ने उसे शिव मंत्र की दीक्षा देने का प्रस्ताव रखा। उन्होंने बताया कि चाहे कोई शूद्र हो या चांडाल, यदि वह शिव मंत्र से दीक्षित होकर जटा धारण करे और शरीर में भस्म लगाए, तो वह शिव रूप हो सकता है। और यदि कोई व्यक्ति छः अक्षरों वाले मंत्र से शिवलिंग के ऊपर एक फूल भी चढ़ा दे, तो उसे फिर से जन्म नहीं लेना पड़ता।

    यह सुनकर आषाढ़भूति ने संन्यासी के पांव पकड़ लिए और उनसे दीक्षा देने की विनती की। देव शर्मा ने उसकी विनती स्वीकार की, लेकिन साथ ही एक शर्त रखी—रात में मठ के भीतर सोने की अनुमति नहीं थी। उन्होंने कहा, “यतियों के लिए अकेलापन जरूरी है, मेरे और तुम्हारे दोनों के लिए।”

    अकेलेपन और संयम की महत्ता: देव शर्मा ने कहा कि अकेलापन संन्यासियों के लिए जरूरी होता है, क्योंकि यह मनुष्य को आत्ममंथन और साधना का अवसर देता है। उन्होंने कई उदाहरण देते हुए समझाया कि गलत संगत, अभिमान, और अनियमितता से कैसे रिश्ते, धन, और जीवन की समृद्धि नष्ट हो जाती है।

    उन्होंने आषाढ़भूति से कहा, “तुझे मठ के दरवाजे पर फूंस की झोपड़ी में सोना होगा।” आषाढ़भूति ने इसे स्वीकार किया और संन्यासी के निर्देशानुसार चलने का वचन दिया। इस प्रकार देव शर्मा ने शास्त्रोक्त विधि से उसे अपना शिष्य बना लिया।

    आषाढ़भूति का धूर्ततापूर्ण योजना: आषाढ़भूति ने संन्यासी की सेवा कर उनका विश्वास जीतने की पूरी कोशिश की। उसने दिन-रात उनकी सेवा की, उनके हाथ-पैर दबाए, और सभी कार्यों में उनका सहयोग किया। लेकिन फिर भी, देव शर्मा अपने धन की थैली को कभी अपने से दूर नहीं करते थे। इस बात से आषाढ़भूति निराश था। उसने महसूस किया कि चाहे वह कितनी भी सेवा करे, संन्यासी उसे अपने धन के करीब आने नहीं देंगे।

    उसने सोचा, “यह संन्यासी मुझ पर कभी विश्वास नहीं करेगा। तो क्या मुझे इसे दिन में ही मार देना चाहिए या इसे विष देकर इसे समाप्त कर देना चाहिए?” लेकिन वह अपनी योजना को अंजाम देने का सही मौका ढूंढ रहा था।

    आगामी घटना: इसी बीच, एक दिन देव शर्मा के एक शिष्य का लड़का वहां आया और उसने देव शर्मा को यज्ञोपवीत संस्कार (जनेऊ) के लिए अपने घर आने का निमंत्रण दिया। देव शर्मा ने उस निमंत्रण को खुशी-खुशी स्वीकार किया और आषाढ़भूति को भी अपने साथ ले लिया।

    यहां से कहानी एक नए मोड़ की ओर बढ़ती है, जहां आषाढ़भूति अपनी धूर्तता को अंजाम देने का सही अवसर पाने की कोशिश में रहता है।

    कहानी का संदेश: इस कहानी से हमें यह महत्वपूर्ण सीख मिलती है कि संयम और सावधानी किसी भी स्थिति में अत्यधिक जरूरी है। देव शर्मा ने आषाढ़भूति की सभी मीठी बातों के बावजूद अपने धन की थैली को कभी अपने से दूर नहीं किया, क्योंकि उन्हें इस दुनिया की वास्तविकता का भान था।

    कहानी यह भी दर्शाती है कि चाहे कोई व्यक्ति कितना भी भला और त्यागी क्यों न हो, उसे हमेशा सजग रहना चाहिए। इस संसार में बहुत से लोग होते हैं जो भले ही बाहर से नेक और ईमानदार दिखें, लेकिन उनके मन में छिपे हुए स्वार्थ और लोभ की भावना होती है।

    अंततः, यह कथा हमें सिखाती है कि विश्वास करना अच्छी बात है, लेकिन सावधानी और विवेक से काम लेना और भी जरूरी है। बिना सोचे-समझे किसी पर भरोसा करने से हमें नुकसान हो सकता है, और इसीलिए विवेक और संयम का पालन करना ही समझदारी है।

    कहानी का विस्तार:

    आषाढ़भूति का दुष्ट विचार: कई दिनों की सेवा और संन्यासी के साथ रहने के बाद भी, आषाढ़भूति देव शर्मा का विश्वास जीतने में असफल रहा। उसने महसूस किया कि देव शर्मा अपनी धन की थैली से कभी दूर नहीं होंगे। इसलिए उसने सोचा कि उसे किसी न किसी तरह से उस थैली को प्राप्त करना ही होगा। उसके मन में कई दुष्ट विचार आए—क्या वह देव शर्मा को दिन में ही मार दे, विष दे दे, या पशु की तरह उनका वध कर दे? लेकिन इस सोच में ही वह लगा हुआ था, तभी अचानक देव शर्मा का एक चेला वहां आया और उसने देव शर्मा को यज्ञोपवीत संस्कार के लिए अपने घर आमंत्रित किया। देव शर्मा ने यह निमंत्रण स्वीकार किया और आषाढ़भूति को भी अपने साथ ले लिया।

    धोखा देने का अवसर: रास्ते में, वे दोनों एक नदी के किनारे पहुंचे। देव शर्मा ने नदी में स्नान करने का निश्चय किया और अपनी थैली को एक कथरी में छिपा दिया। उन्होंने आषाढ़भूति से कहा, “जब तक मैं निबट आऊं, तब तक तुम इस कथरी की देखभाल करो।” यह कहकर देव शर्मा स्नान के लिए चले गए। आषाढ़भूति के लिए यही अवसर था जिसका वह इंतजार कर रहा था। उसने बिना किसी संकोच के थैली उठाई और वहां से भाग निकला।

    देव शर्मा की निरीक्षण: इसी बीच देव शर्मा स्नान और देव-पूजा करने के बाद निबटने के लिए नदी किनारे गए। वहां उन्होंने देखा कि दो सुनहली ऊन वाले मेढ़े लड़ रहे हैं। वे एक-दूसरे से पीछे हटकर फिर सामने आते और गुस्से में अपने सिर से टक्कर मारते। उनके सिर से खून बह रहा था, और उसी खून को चाटने के लिए एक सियार वहाँ आ गया। सियार लहू का स्वाद लेने के लालच में उनके बीच में आकर बार-बार खून चाटने लगता था। देव शर्मा ने यह दृश्य देखा और सोचा कि “यह सियार कितना मूर्ख है, अगर वह दोनों मेढ़ों की टक्कर में आ गया तो अवश्य मारा जाएगा।”

    ठीक ऐसा ही हुआ—लहू का स्वाद लेने के लोभ में सियार दोनों मेढ़ों के बीच में आ गया और उनकी टक्कर में मारा गया। देव शर्मा यह सब देखकर सोचने लगे कि लोभ किस प्रकार किसी का भी सर्वनाश कर सकता है।

    सच्चाई का अहसास: जब देव शर्मा ने स्नान समाप्त किया और अपनी कथरी की ओर लौटे, तो उन्होंने पाया कि आषाढ़भूति और धन की थैली दोनों ही गायब थे। यह देख देव शर्मा के होश उड़ गए। उन्होंने जल्दी-जल्दी अपने हाथ-पैर धोए और कथरी की जांच की, लेकिन उसमें धन की थैली नहीं थी। वे जोर-जोर से चिल्लाने लगे, “हाय! मैं तो लुट गया!” और बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़े। कुछ समय बाद जब उन्हें होश आया, तो वे रोते हुए पुकारने लगे, “अरे आषाढ़भूति, मुझे ठगकर तू कहाँ भाग गया? मेरी बात का जवाब दे!”

    धोखा और दुख: देव शर्मा का दुख किसी से छिपा नहीं था। आषाढ़भूति ने उनका विश्वास तोड़कर उन्हें बहुत बड़ा धोखा दिया था। देव शर्मा ने अपने शिष्य पर भरोसा किया था, और उसी ने उनकी सारी मेहनत की कमाई को चुरा लिया। अपनी सारी उम्मीदें टूट जाने के बाद, देव शर्मा ने आषाढ़भूति के पैरों के निशान देखे और उनका पीछा करने लगे। धीरे-धीरे चलते-चलते वे संध्या के समय किसी गाँव में पहुँचे। वे बेहद थके और दुखी थे, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और अपने शिष्य को खोजने का संकल्प किया।

    कहानी का संदेश: यह कहानी हमें यह सिखाती है कि मनुष्य को कभी भी लालच के मोह में नहीं पड़ना चाहिए, क्योंकि इसका परिणाम हमेशा दुखद होता है। आषाढ़भूति का लोभ और धोखे की प्रवृत्ति ने उसे एक दुष्ट कार्य करने पर मजबूर कर दिया, और देव शर्मा जैसे भले व्यक्ति का विश्वास तोड़ दिया।

    देव शर्मा के उदाहरण से यह भी स्पष्ट होता है कि किसी पर भी आंख मूंदकर भरोसा करना हमेशा सही नहीं होता। हमें हमेशा सतर्क रहना चाहिए और लोगों के वास्तविक स्वभाव को समझने का प्रयास करना चाहिए। वहीं, सियार और मेढ़ों की घटना भी इस बात का उदाहरण है कि कैसे लोभ व्यक्ति को मुश्किल में डाल सकता है। सियार का खून चाटने का लालच उसे मार डालता है, ठीक उसी प्रकार जैसे आषाढ़भूति का लालच उसे अंततः दुख और कष्ट की ओर ले जाएगा।

    इस कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है कि सच्चा संतोष और शांति धन में नहीं, बल्कि लोभ और मोह से मुक्त रहने में है। हमें अपनी इच्छाओं और लालच पर नियंत्रण रखना चाहिए, क्योंकि वही हमारी असली शांति का मार्ग है।

  • सचेतन, पंचतंत्र की कथा-11 : आषाढ़भूति, सियार और दूती आदि की कथा

    नमस्कार दोस्तों, स्वागत है! आज हम सुनाएंगे एक रोचक और शिक्षाप्रद पंचतंत्र की कहानी, आषाढ़भूति, सियार और दूती आदि की कथा

    पंचतंत्र के लेखक विष्णुशर्मा एक विद्वान ब्राह्मण थे। हालांकि कुछ लोग उनके अस्तित्व पर संदेह करते हैं, लेकिन पंचतंत्र के मूल ग्रंथ में उनका नाम लेखक के रूप में दिया गया है, जिसका कोई विरोधाभास नहीं दिखता। उनके बारे में विस्तृत जानकारी तो नहीं मिलती, लेकिन पंचतंत्र के शुरुआती अध्यायों से इतना जरूर पता चलता है कि वे नीतिशास्त्र के पारंगत विद्वान थे। जब उन्होंने पंचतंत्र की रचना की, तब वे लगभग 80 वर्ष के थे और उनके पास नीतिशास्त्र का परिपक्व अनुभव था। उन्होंने स्वयं कहा है कि इस ग्रंथ की रचना का उद्देश्य अत्यंत बुद्धिमत्ता से लोगों का कल्याण करना है। उनकी मानसिकता हर प्रकार के भौतिक आकर्षण से मुक्त थी, और वे अपने जीवन के अंतिम काल में समाज के कल्याण के लिए समर्पित हो गए थे।

    विष्णुशर्मा ने मनु, बृहस्पति, शुक्र, पराशर, व्यास, और चाणक्य जैसे विद्वानों के राजशास्त्र और अर्थशास्त्र को मथकर पंचतंत्र की रचना की। यह एक प्रकार का नवनीत (मक्खन) है जिसे उन्होंने लोगों के कल्याण के लिए प्रस्तुत किया।

    इस ग्रंथ की महत्ता इस बात से भी प्रमाणित होती है कि इसे “अमृत” की संज्ञा दी गई है। प्राचीन ईरानी सम्राट खुसरो के प्रमुख राजवैद्य और मंत्री बुजुए ने इसे अमृत कहा है। उन्होंने सुना था कि भारत में एक पहाड़ है जहाँ संजीवनी नामक औषधि मिलती है, जिसके सेवन से मृत व्यक्ति भी जीवित हो जाते हैं। इस जिज्ञासा से प्रेरित होकर वे 550 ई. के आसपास भारत आए और संजीवनी की खोज शुरू की। जब उन्हें वह औषधि नहीं मिली, तब उन्होंने एक भारतीय विद्वान से पूछा, “अमृत कहाँ है?” उस विद्वान ने उत्तर दिया, “अमृत तो तुम्हारे सामने है। यह ज्ञान ही अमृत है, और यह विद्वान व्यक्ति ही वह पर्वत है जहाँ संजीवनी जैसी बौद्धिक औषधि पाई जाती है। इसके सेवन से मूर्ख व्यक्ति भी फिर से जीवन प्राप्त कर लेता है।”

    इस प्रकार, विष्णुशर्मा का पंचतंत्र एक अद्भुत ज्ञान का संग्रह है, जो अपने नैतिक, सामाजिक, और व्यावहारिक उपदेशों से लोगों को जीवन जीने का सही मार्ग दिखाता है। यह ग्रंथ न केवल प्राचीन भारत में बल्कि अन्य देशों में भी ज्ञान का अमूल्य स्रोत बना रहा और आज भी इसका महत्व बना हुआ है।

    यह कहानी प्राचीन भारतीय कथा साहित्य की एक प्रसिद्ध कथा है जिसमें मुख्य पात्र देव शर्मा नामक संन्यासी और आषाढ़भूति नाम का एक धूर्त ठग है। यह कहानी मनुष्य के स्वभाव, लोभ और विश्वासघात के बारे में बहुत महत्वपूर्ण सीख देती है। आइए इस कथा को विस्तार से समझते हैं।

    कहानी की शुरुआत: किसी एकांत प्रदेश में एक मठ था जहाँ देव शर्मा नामक एक परिव्राजक (घुमंतू साधू) रहते थे। देव शर्मा के पास गाँव के कई साहूकारों द्वारा दिए गए महीन वस्त्रों को बेचकर काफी धन इकट्ठा हो गया था। वे किसी पर भरोसा नहीं करते थे और हमेशा अपनी धन की थैली को अपनी बगल में रखते थे। वे इसे रात-दिन अपने पास ही रखते थे, शायद यह सोचकर कि किसी पर विश्वास करना खतरे से खाली नहीं।

    धूर्त आषाढ़भूति की योजना: उसी गाँव में आषाढ़भूति नाम का एक धूर्त व्यक्ति रहता था, जो दूसरे का धन चुराने में माहिर था। उसकी नजर हमेशा से देव शर्मा की धन-थैली पर थी। एक दिन उसने उस थैली को देखकर सोचा कि उसे इस संन्यासी का धन चुराने का कोई तरीका ढूंढना चाहिए। उसने सोचा कि चूंकि मठ की दीवारें बहुत मजबूत हैं और दरवाजा ऊँचा है, इसलिए सेंधमारी या चुपके से भीतर घुसना संभव नहीं है। इसीलिए उसने कपट की योजना बनाई। उसने निश्चय किया कि वह किसी तरह से देव शर्मा का विश्वास जीतकर उनका शिष्य बन जाएगा। इस तरह से वह उम्मीद करता था कि एक दिन संन्यासी उसे अपने धन के करीब जाने देगा।

    संन्यासी का विश्वास जीतने की कोशिश: आषाढ़भूति देव शर्मा के पास गया और विनम्रता से ‘ओं नमः शिवाय’ का जाप करते हुए उनसे कहा, “भगवान, यह संसार असार है। जीवन एक पहाड़ी नदी की तेजी की तरह है, जो जल्दी ही बह जाता है। यह जीवन फूस की आग के समान अस्थायी है और भोग भी जाड़े के बादलों की छाया की तरह अस्थिर हैं। मैंने सबका अनुभव किया है और अब मैं इस संसार के बंधनों से मुक्त होना चाहता हूँ। कृपया मुझे यह बताएं कि मैं कैसे इस संसार-सागर को पार कर सकता हूँ?”

    देव शर्मा उसकी बातों से प्रभावित हुए और बोले, “वत्स, तुम धन्य हो कि इतनी कम उम्र में ही तुम्हें वैराग्य की अनुभूति हो गई है। यही सच्ची शांति है। अगर तुम संसार-सागर को पार करने का उपाय जानना चाहते हो, तो मैं तुम्हें शिव मंत्र से दीक्षित कर सकता हूँ।”

    आषाढ़भूति की दीक्षा: आषाढ़भूति ने संन्यासी के पांव पकड़कर विनती की, “भगवन, कृपया मुझे दीक्षा दीजिए।” देव शर्मा ने उसे दीक्षा देने का वचन दिया, लेकिन कहा कि उसे रात में मठ के भीतर नहीं सोना होगा। उन्होंने समझाया कि यतियों के लिए अकेलापन प्रशंसनीय है और इसलिए आषाढ़भूति को मठ के दरवाजे पर ही सोना होगा। आषाढ़भूति ने संन्यासी की यह शर्त मान ली और इस तरह उसे शिष्य बना लिया गया।

    आषाढ़भूति ने संन्यासी की सेवा कर उनका विश्वास जीतने की पूरी कोशिश की। उसने उनकी हर प्रकार से सेवा की, लेकिन फिर भी संन्यासी ने अपनी धन की थैली को कभी अपने से दूर नहीं किया। आषाढ़भूति ने समझ लिया कि यह संन्यासी कभी भी उस पर पूरी तरह विश्वास नहीं करेगा।

    धोखा देने की योजना: कुछ समय बाद, आषाढ़भूति सोचने लगा कि अगर वह संन्यासी का विश्वास नहीं जीत सकता तो उसे कोई और तरीका अपनाना होगा। उसने सोचा कि वह संन्यासी को दिन में ही मार डाल सकता है या उसे विष देकर उसका धन ले सकता है। लेकिन तभी एक दिन देव शर्मा के एक अन्य शिष्य का लड़का वहां आया और उसने देव शर्मा को अपने घर यज्ञोपवीत (जनेऊ) संस्कार के लिए आमंत्रित किया। देव शर्मा इस निमंत्रण को खुशी-खुशी स्वीकार कर आषाढ़भूति के साथ उस कार्यक्रम में जाने के लिए निकल पड़े।

    कहानी का संदेश: इस कहानी से हमें कई महत्वपूर्ण सीख मिलती हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि किसी भी अजनबी पर तुरंत विश्वास नहीं करना चाहिए, चाहे वह कितना भी अच्छा और विनम्र क्यों न दिखे। आषाढ़भूति ने मीठी बातों से संन्यासी का विश्वास जीतने की कोशिश की, लेकिन उसके इरादे बुरे थे। धन के प्रति मोह और दूसरों पर जरूरत से ज्यादा भरोसा करने से मनुष्य को नुकसान उठाना पड़ सकता है।

    कहानी यह भी दर्शाती है कि धन प्राप्त करना और उसे सुरक्षित रखना हमेशा कठिन होता है। देव शर्मा अपने धन की सुरक्षा को लेकर हमेशा चिंतित रहते थे और इस चिंता ने उन्हें मानसिक शांति से वंचित कर दिया। अंततः आषाढ़भूति जैसा व्यक्ति उनके विश्वास का फायदा उठाकर उन्हें धोखा देने की कोशिश में था।

    इसलिए, यह कहानी हमें सिखाती है कि हमें अपने जीवन में संयम, सतर्कता और विवेक का पालन करना चाहिए। दूसरों पर विश्वास करना अच्छी बात है, लेकिन जरूरत से ज्यादा विश्वास करने से हमें हानि भी हो सकती है।

  • पंचतंत्र की कथा-10 : धोखा और लालच: साधू देव शर्मा की कहानी

    नमस्कार दोस्तों, स्वागत है! आज हम सुनाएंगे एक रोचक और शिक्षाप्रद पंचतंत्र की कहानी, जिसमें हमारे साथ हैं साधू देव शर्मा और एक चालाक ठग। यह कहानी हमें मनुष्य के स्वभाव, लालच, और विश्वास के बारे में महत्वपूर्ण सबक देती है। तो आइए शुरू करते हैं…

    कहानी की शुरुआत:

    किसी समय की बात है, एक गाँव के मंदिर में देव शर्मा नाम का एक प्रतिष्ठित साधू रहता था। वह भिक्षा मांगकर अपना गुजारा करता और गाँव के लोग उसकी साधुता और सेवा भावना के कारण उसका बहुत सम्मान करते थे। साधू जी को गाँव के लोग तरह-तरह के उपहार, वस्त्र, और खाद्य सामग्री दान में दिया करते थे। साधू जी ने धीरे-धीरे उन वस्त्रों और उपहारों को बेचकर अच्छा-खासा धन इकट्ठा कर लिया था।

    हालांकि, देव शर्मा एक बात को लेकर हमेशा चिंतित रहते थे—उनका धन। उन्होंने अपने धन को एक पोटली में बाँध रखा था, जिसे वे हमेशा अपने साथ रखते थे। वे किसी पर भी पूरी तरह से विश्वास नहीं करते थे और अपने धन की सुरक्षा को लेकर हमेशा सतर्क रहते थे।

    ठग की योजना:

    उसी गाँव में एक चालाक ठग भी रहता था। उस ठग की नजर काफी समय से साधू जी की पोटली पर थी। उसने कई बार साधू का पीछा किया, लेकिन साधू कभी अपनी पोटली को अपने से अलग नहीं करते थे। ठग को समझ आ गया कि अगर उसे इस धन को पाना है, तो उसे साधू का विश्वास जीतना होगा।

    ठग ने एक दिन एक नया रूप धारण किया। उसने छात्र का वेश पहनकर साधू के पास पहुंचा और साधू से कहा, “महाराज, मैं ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूँ। कृपया मुझे अपना शिष्य बना लें।” साधू जी एक दयालु व्यक्ति थे, उन्होंने उसकी प्रार्थना स्वीकार की और उसे अपना शिष्य बना लिया। इस तरह से ठग ने साधू के साथ रहना शुरू कर दिया।

    ठग का विश्वास जीतना:

    शिष्य बनने के बाद ठग ने साधू जी की बहुत सेवा की। उसने मंदिर की सफाई की, साधू जी का ख्याल रखा, और हर वह काम किया जिससे साधू जी को खुश रखा जा सके। धीरे-धीरे ठग साधू जी का विश्वासपात्र बन गया और साधू को लगने लगा कि यह शिष्य वास्तव में उसकी भलाई के लिए है।

    साधू की यात्रा और धोखा:

    एक दिन साधू जी को पास के गाँव में एक अनुष्ठान के लिए बुलावा आया। उन्होंने अपने शिष्य को भी साथ चलने के लिए कहा। यात्रा के दौरान उन्हें एक नदी पार करनी पड़ी। साधू जी ने स्नान करने की इच्छा व्यक्त की और उन्होंने अपनी पोटली को एक कम्बल में रखकर नदी किनारे छोड़ दिया। उन्होंने अपने शिष्य से कहा, “इस पोटली का ध्यान रखना।” यह वही क्षण था जिसका ठग को इंतजार था।

    जैसे ही साधू जी स्नान करने के लिए नदी में डुबकी लगाने लगे, ठग तुरंत पोटली उठाकर भाग निकला। साधू जी, जिन्होंने ठग पर पूरा विश्वास किया था, उसी ने उनकी मेहनत की सारी संपत्ति चुरा ली।

    कहानी से सीख:

    इस कहानी से हमें एक महत्वपूर्ण शिक्षा मिलती है—विश्वास सोच-समझकर करना चाहिए। ठग ने अपनी चालाकी और मीठी बातों से साधू जी का विश्वास जीता और अंत में उन्हें धोखा दिया। हमें यह समझना चाहिए कि हर कोई वैसा नहीं होता जैसा वह दिखता है। हमें अपने आसपास के लोगों पर भरोसा करने से पहले उनकी नीयत और उनके व्यवहार को अच्छे से समझ लेना चाहिए।

    कहानी का एक और पहलू यह भी है कि धन और संपत्ति के प्रति अति मोह मनुष्य को अपने आदर्शों से भटका सकता है। साधू देव शर्मा, जो पहले एक त्यागमयी जीवन जी रहे थे, अपनी संपत्ति के प्रति मोह के कारण असुरक्षित महसूस करने लगे। यही असुरक्षा और विश्वास का गलत चुनाव अंततः उनके पतन का कारण बना।

    समाप्ति और संदेश:

    तो दोस्तों, यह थी साधू देव शर्मा की कहानी। इस कहानी से हमें यह सिखने को मिलता है कि किसी अजनबी की चिकनी-चुपड़ी बातों में आकर जल्दी से विश्वास नहीं करना चाहिए। साथ ही, यह भी जानना आवश्यक है कि बहुत अधिक धन-संपत्ति की लालसा और सुरक्षा की चिंता, जीवन में शांति को छीन लेती है।

    आशा है कि आपको यह कहानी पसंद आई होगी और इससे कुछ नई बातें सीखने को मिली होंगी। हम फिर मिलेंगे एक नई और दिलचस्प कहानी के साथ। तब तक खुश रहें, सतर्क रहें, और सच्ची शांति की खोज करते रहें। धन्यवाद!