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सचेतन 215: शिवपुराण- वायवीय संहिता – शरीर शुभ-अशुभ विचारों और कर्मों से पोषित हो कर भाग्य का निर्माण करता है।
आत्म साक्षात्कार से कर्मबंधन सर्वथा मुक्त हो सकते है
क्षर का अर्थ होता है जिसका क्षरण होता हो जो नाशवान् या नष्ट होने वाला है जैसे हमारा शरीर क्षर है जो यहाँ का यहीं रहा जाता है लेकिन इस शरीर के बिना हमारे अस्तित्व की उत्पत्ति का बोध होना मुश्किल है। हम अपने शरीर से बंधे हुए हैं यह जड (प्रकृति ) है।
दूसरा उससे विपरीत अक्षर पुरुष है।अक्षर शब्द का अर्थ है – ‘जो न घट सके, न नष्ट हो सके’ जैसे हमारी ‘वाणी’ या ‘वाक्’ और यह चेतना यानी हमारा जीवंत रूप, यह हमारी मायाशक्ति है। क्षर और अक्षर पुरुष मिलकर भगवान् स्वयं अपने रूप में आते हैं। हमारा शरीर और जीवात्मा दोनों इस प्रकृति का कूटस्थ है। कूटस्थ का अर्थ है कूट का अधिष्ठान अथवा आधार। कूट यानी माया है जिसको हम वञ्चना, छल, कुटिलता आदि पर्याय देते हैं और कूटस्थ, भारतीय दर्शन में आत्मा, पुरुष, ब्रह्म तथा ईश्वर के लिए प्रयुक्त शब्द है जिसका निवास इसी क्षर शरीर में है।
जब से हमने होंश संभाला है तब क्षर और अक्षर यानी शरीर और जीवात्मा में ईश्वर के निवास का ज्ञान तो सिर्फ़ हम सुन कर रहे हैं। अभी तक ईश्वर का हमारे शरीर और जीवात्मा में रहने का ज्ञान और आभास हमारे इंद्रिय, वाणी, मन तथा बुद्धि के द्वारा नहीं हो पाया है। अगर हम कहें की हम सभी क्षर और अक्षर शरीर में ईश्वर के निवास होता है सिर्फ़ इसके ज्ञाता हैं लेकिन ज्ञेय नहीं है।
ज्ञेय का अर्थ है की जो जाना जा सके अर्थात् जिसका जानना संभव हो, जिसको जानने योग्य बना सकते है और यह जानना हमारा कर्तव्य है। वैसे तो ब्रह्मज्ञानी लोग एकमात्र ब्रह्म को ही ज्ञेय मानते है, जिसको जाने बिना मोक्ष नहीं हो सकता ।
प्रकृति से उत्पन्न सभी पदार्थ क्षर तथा नश्वर हैं किंतु कूटस्थ ब्रह्म अक्षर अथवा अविनाशी है। यह ज्ञान ही हमारी शुद्ध चेतना है और हम इसके केवल ज्ञाता हैं लेकिन ज्ञेय नहीं।
ज्ञेय होने के लिए इंद्रिय, वाणी, मन तथा बुद्धि को ज़रूरत नहीं है उसके लिए आत्म साक्षात्कार करना होता है। जिसे योगी कूटस्थ और जितेंद्रिय कहते हैं।
हम सभी के साथ जीवन का द्वंद्व चलते रहता है जिसके कारण हम ज्ञेय की अवस्था यानी आत्म साक्षात्कार तक पहुँच नहीं पाते है। अगर आत्म साक्षात्कार हो जाए तो हम कर्मबंधन से सर्वथा मुक्त हो जाएँगे तथा मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
वैसे तो प्रकार का ज्ञान है शास्त्रज्ञ और तत्त्वज्ञ दोनों होत्रा है। शास्त्रज्ञ केवल अपने लिये कर्म करते हैं और शास्त्र में लिखे गये ज्ञान से वह ब्रह्म को समझते हैं। तत्त्वज्ञ वो हैं जो बिना शास्त्र पढ़े कर्म करने में कभी प्रमाद, आलस्य आदि नहीं करते हैं बल्कि सावधानी और तत्परतापूर्वक साङ्गोपाङ्ग विधिसे कर्म करते हैं। क्योंकि सृष्टि की मान्यता है कि कर्मों को करने में कोई कमी आ जाने से उनके फल में भी कमी आ जायगी। तत्त्वज्ञ कर्म करने की रीति को आदर्श मानकर सर्वथा आसक्तिरहित लोकसंग्रह के लिये कर्म करने की प्रेरणा करते हैं।
आप अपने शरीर में मन, बुद्धि, अहंकार और माया (प्राकृत) शक्ति से आपका व्यक्तित्त्व निर्मित होता है। इस शरीर का यह क्षेत्र का रूप बहुत व्यापक है। हम सभी को पूरी तरह से अपने शरीर का ज्ञान होना अपने शरीर का ज्ञाता बनना, हमारे व्यक्तित्व के सभी पहलू को समझना ही सबसे बड़ा ज्ञान है। जिस प्रकार किसान खेत में बीज बो कर खेती करता है। इसी प्रकार से हम अपने शरीर को शुभ-अशुभ विचारों और कर्मों से पोषित करते हैं और परिणाम स्वरूप अपना भाग्य बनाते हैं।
शरीर शुभ-अशुभ विचारों और कर्मों से पोषित हुआ करते हैं जिसे आपके कर्मों से पोषित करके अपने भाग्य का निर्माण करना होता है।
आपके विचार और कर्म ही आपकी माया है जिसका नाम प्रकृति है।हम अभी उस माया से आवृत पुरुष हैं। मन और कर्म के द्वारा प्रकृति का पुरुष के साथ सम्बन्ध होता है। मन और कर्म या क्षर और अक्षर, इन दोनों के प्रेरक ईश्वर शिव हैं। माया यानी आपकी प्रकृति महेश्वर की शक्ति है। चित्स्वरूप जीव उस माया से आवृत होता है। चेतन जीव जब माया से आच्छादित हो कर अज्ञानमय रहता है तो वह अवस्था पाश या मन कहलाता है। उससे शुद्ध हो जाने पर जीव स्वत: शिव हो जाता है। वह विशुद्ध ही शिवत्व है।
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सचेतन 214: शिवपुराण- वायवीय संहिता – क्षर और अक्षर पुरुष दोनों भगवान् स्वयं ही हैं।
सचेतन 214: शिवपुराण- वायवीय संहिता – क्षर और अक्षर पुरुष दोनों भगवान् स्वयं ही हैं।
क्षर, अक्षर तथा अतीत तीन तत्त्व के बारे में जानकारी
किसी भी वस्तु के तीन भेद बताये हैं- जड (प्रकृति ), चेतन (जीव) और उन दोनों का नियन्ता (परमेश्वर)। इन्हीं तीनों को क्रम से पाश, पशु तथा पशुपति कहते हैं। तत्त्वज्ञ पुरुष प्राय: इन्हीं तीन तत्त्व को क्षर, अक्षर तथा उन दोनों से अतीत कहते हैं।
क्षर का अर्थ होता है जिसका क्षरण होता हो जो नाशवान् या नष्ट होने वाला है जैसे हम कहते हैं की क्षर देह यहाँ का यहीं रहा जाता है। क्षर तत्त्व का ही नाम पाश है। क्षर पुरुष की उत्पत्ति का बीज है। यानी यह शरीर के बिना हमारे अस्तित्व की उत्पत्ति का बोध होना मुश्किल है। हम अपने शरीर से बंधे हुए हैं यह जड (प्रकृति ) है।
दूसरा उससे विपरीत अक्षर पुरुष है।अक्षर शब्द का अर्थ है – ‘जो न घट सके, न नष्ट हो सके’। इसका प्रयोग हमलोग ज़्यादातर ‘वाणी’ या ‘वाक्’ के लिए एवं शब्दांश के लिए करते हैं जो चेतना (जीव) है। अक्षर भगवान की मायाशक्ति है।अनेक संसारी जीवों की कामना और कर्म आदि के संस्कारों का आश्रय हमारे शरीर ही है। अक्षर ही पशु कहा गया है।
क्षर और अक्षर पुरुष दोनों भगवान् स्वयं ही हैं। वह मूल द्रव्य जो हमारे इस पृथ्वी पर आने का कारण है यानी इस सृष्टि का मुख्य उपकरण है जिनकी सहायता से सारी सृष्टि और हम सभी की रचना हुई है जिसे महाभूत हैं वैसे प्राचीन भारतीय विचारधारा में सृष्टि के पाँच मूलभूत या महाभूत हैं – पृथ्वी, वायु, जल, अग्नि और आकाश।
समस्त भूत अर्थात प्रकृति का सारा विकार तो क्षर पुरुष है यानी हमारा शरीर कूटस्थ है। अर्थात् जो कूट यानी माया है जिसको हम वञ्चना, छल, कुटिलता आदि पर्याय देते हैं यानी कूटस्थ, भारतीय दर्शन में आत्मा, पुरुष, ब्रह्म तथा ईश्वर के लिए प्रयुक्त शब्द। यह परम सत्ता के स्वरूप को व्यक्त करता है। कूटस्थ का अर्थ है कूट का अधिष्ठान अथवा आधार। जो वस्तु ऊपर से अच्छी प्रतीत होती है किंतु अंदर से दोषपूर्ण है, उसे कूट कहते हैं।इस प्रकार माया जीवों के जन्म, मरण, अज्ञान, दु:ख आदि का कारण होने से अनेक दोषों से परिपूर्ण है। माया का अधिष्ठान होने के कारण आत्मा, ब्रह्म अथवा ईश्वर कूटस्थ कहे गए हैं।
कूटस्थ का एक दूसरा अर्थ यह भी है कि ढेर की भाँति निष्क्रिय रूप से स्थित हो यानी अक्षर पुरुष ‘जो कुछ नहीं करता है जो घट भी नहीं सकता और जिसका नष्ट होना भी दुर्लभ है। वह केवल ज्ञाता है, ज्ञेय यानी जो जानने योग्य नहीं है।इंद्रिय, वाणी, मन तथा बुद्धि के द्वारा उसका ज्ञान नहीं हो सकता क्योंकि वह इन सबका आधार है। उसी की चेतना के प्रकाश से ये सब भी प्रकाशित होते हैं।
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सचेतन 212: शिवपुराण- वायवीय संहिता – हमारी आध्यात्मिक यात्रा
जीवन में वास्तविकता और आपके चेतना के बीच संतुलन आपको ‘पशुपति’ बना देता है।
सचेतन तो हमारी यात्रा है- पशु से परमात्मा बनने तक। हम वानर (बंदर) थे। हम नर बन गये हैं । हमें नारायण (सभी पशु और मानव विशेषताओं का स्वामी, जो इन दोनों से परे है) बनना है। यह हमारी आध्यात्मिक यात्रा है.
उदाहरण के लिए, छाया प्रकाश के बिना मौजूद नहीं हो सकती। अवलोकन की कसौटी के आधार पर, दोनों प्रमुख पहलुओं में से कोई भी किसी विशेष वस्तु में अधिक मजबूती से प्रकट हो सकता है। यिन और यांग प्रतीक (या ताईजितु) प्रत्येक अनुभाग में विपरीत तत्व के एक हिस्से के साथ दो विपरीत तत्वों के बीच संतुलन दिखाता है।
संतुलन हमारे वास्तविकता यानी यथार्थ या कहें की आपकी मूलभुत-मौलिक प्रकृति, अस्तित्व, अस्मिता, परिवर्तन, समय, कार्य-कारणता, अनिवार्यता तथा संभावना और आपके चेतना की प्रकृति और मन और गुण के बीच, और आपकी क्षमता और वास्तविक संभावना के बीच संबंध के बारे में अपने आपको ‘पशुपति’ के रूप में शामिल करना पड़ता है।
भारत में हम इन दो पहलुओं को पुरुष और प्रकृति कहते हैं। शिव और शक्ति, देवता और असुर, देवताओं और असुरों का युद्ध, हमारे भीतर की इन दो शक्तियों के बीच संघर्ष का प्रतीक है।
मुनियों ने वायु देवता से पूछा-आपने वह कौन सा मनमन्थ प्राप्त किया, जो सत्य से भी परम सत्य एवं शुभ है तथा जिसमें उत्तम निष्ठा रखकर पुरुष परमानन्द को प्राप्त करता है?
वायु देवता का उत्तर था हमारा मनमन्थ सिर्फ़ जीवन में वास्तविकता यानी यथार्थ या कहें की आपकी मूलभुत-मौलिक प्रकृति, अस्तित्व, अस्मिता, परिवर्तन, समय, कार्य-कारणता, अनिवार्यता तथा संभावना और आपके चेतना की प्रकृति और मन और गुण के बीच संतुलन बनाने के लिए होना चाहिए।
आपको मनमन्थ उन संभावनाओं की करनी है जो आपकी क्षमता और वास्तविक के बीच संबंध के बारे में ज्ञान दे। आपको अपने आपको ‘पशुपति’ के रूप में शामिल करना पड़ता है।
आपको मनमन्थ उन दो पहलुओं के लिए करनी है जिसको हम पुरुष और प्रकृति कहते हैं। शिव और शक्ति, देवता और असुर, देवताओं और असुरों का युद्ध, जो हमारे भीतर चलता इन दो शक्तियों के बीच संघर्ष के लिये मनमन्थ करना है।
वायु देवता बोले-महर्षियो ! पूर्वकाल में पशु-पाश और पशुपति का जो ज्ञान प्राप्त किया था, सुख चाहने वाले पुरुष को उसी में ऊँची निष्ठा रखनी चाहिये। अज्ञान से उत्पन्न होनेवाला दुख ज्ञान से ही दूर होता है। वस्तु के विवेक का नाम ज्ञान है। इंसान हर जीव की मिली जुली अभिव्यक्ति है। तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में लिखा है कि सत्संग के बिना विवेक नहीं होता।वैसे तो मनमन्थ से हम सचेतन की ओर यात्रा करना शुरू कर चुके हैं – पशु से परमात्मा बनने तक की यह हमारी आध्यात्मिक यात्रा है।
वायु देवता ने महर्षियो को वस्तु के तीन भेद बताये हैं- जड (प्रकृति ), चेतन (जीव) और उन दोनों का नियन्ता (परमेश्वर)। इन्हीं तीनों को क्रम से पाश, पशु तथा पशुपति कहते हैं। तत्त्वज्ञ पुरुष प्राय: इन्हीं तीन तत्त्व को क्षर, अक्षर तथा उन दोनों से अतीत कहते हैं। अक्षर ही पशु कहा गया है। क्षर तत्त्व का ही नाम पाश है तथा क्षर और अक्षर दोनों से परे जो परम तत्व है, उसी को पति या पशुपति कहते हैं। प्रकृति को ही क्षर कहा गया है। पुरुष (जीव) -को ही अक्षर कहते हैं और जो इन दोनों को प्रेरित करता है, वह क्षर और अक्षर दोनों से भिन्न तत्त्व परमेश्वर कहा गया है।
तत्त्वज्ञ वह है जो सभी जीवों का सत्य स्वरूप जानता है और कर्म करके सभी प्रकार के दर्द का निवारण करता है।
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सचेतन 211: शिवपुराण- वायवीय संहिता – परमात्मा और पशु या यिन और यांग जिसे ब्रह्माण्ड की दो शक्तियों के रूप में माना गया है।
जीवन में वास्तविकता और आपके चेतना के बीच का संतुलन ‘पशुपति’ बना देता है।
मानव पशु से भिन्न है क्योंकि हम सचेत प्राणी हैं और स्वयं को नियंत्रित कर सकते हैं। जानवरों में भी चेतना होती है, लेकिन उनकी चेतना हमारी तरह विकसित नहीं है।
हमारा मानस उन सभी आदिम प्रवृत्तियों का भंडार है जो हमने विकास की प्रक्रिया के दौरान अर्जित की थीं। ये वृत्तियाँ और प्रवृत्तियाँ वेशक हमें जानवर बनाती हैं लेकिन एक बार जब हम मानव बन जाते हैं, तो हम पूरी तरह से अपने पशु स्वभाव से आगे निकल सकते हैं और दिव्य चेतना प्राप्त कर सकते हैं। भगवान पशुपति इसी का प्रतीक हैं।
‘पशुपति’ का अर्थ है ‘पशु का भगवान’। कोई व्यक्ति जो अपने पशुवत स्वभाव को पार कर चुका है, कोई जो अब किसी पाश के भीतर नहीं है, कोई जो पशु स्वभाव के हर रूप से मुक्त है, उसे पशुपति कहा जा सकता है। भगवान शिव इस अतिक्रमण के प्रतीक हैं। इसीलिए, उन्हें पशुपति कहा जाता है।
क्या चीज़ हमें जानवर बनाती है? हमारी भूख और यह भूख आपके शब्द में भी है और आपके रूप में भी है। आपकी इच्छाएँ, भय, अतीत की आदिम छापें – ये वो चीज़ें हैं जो हमें जानवर बनाती हैं। क्या आपने नहीं देखा, कभी-कभी जब हम शुद्ध होते हो, तो स्वार्थी इच्छाओं से मुक्त होते हैं और प्रेम तथा भक्ति से भरे होते हैं तो हम भगवान की तरह व्यवहार करते हैं? और कभी-कभी आप एक जानवर बन जाते हैं, जब आप स्वार्थी, लालची, क्रोधी, अहंकारी, कुत्ते की तरह हिंसक हो जाते हैं। हम अपने भीतर इन दो आयामों के बीच झूलते रहते हैं।
हममें से प्रत्येक के ये दो पहलू हैं- परमात्मा और पशु। चीनी प्रतीक ताइजीतु इसी का प्रतीक है- यिन और यांग जिसे ब्रह्माण्ड में दो शक्तियों के रूप में माना गया है। यह दार्शनिक अवधारणा है जो विपरीत लेकिन परस्पर जुड़ी शक्तियों का वर्णन करती है जो हमारे ब्रह्माण्ड के विज्ञान में वस्तुओं और जीवन के साथ साथ चलता है।
यिन यानी जो ग्रहणशील है और यांग अर्थात् सक्रिय सिद्धांत है, जो सभी प्रकार के परिवर्तन और अंतर में देखा जाता है जैसे कि वार्षिक चक्र (सर्दी और गर्मी), परिदृश्य (उत्तर की ओर छाया और दक्षिण की ओर की चमक), लिंग (महिला और पुरुष), पात्रों के रूप में पुरुषों और महिलाओं दोनों का गठन, और सामाजिक-राजनीतिक इतिहास (अव्यवस्था और व्यवस्था)।
जैसे जैसे हम ‘पशुपति’ यानी अपने पशुवत स्वभाव को पार करने का अभ्यास करते हैं तो परमात्मा और पशु, यिन और यांग, हमारी विपरीत अवधारणा एक साथ होता महसूस होने लगता है। इस एकता को आप अपनी चेतना और निरन्तर तपस्या, योग और सचेतन होने की अवस्था के माध्यम से जान सकते हैं क्योंकि यह हमारे अंदर का द्वंद्व और विरोधाभास है जो आदिम प्रवृत्तियों के कारण, हमारे मस्तिष्क के निचले हिस्से को सरीसृप मस्तिष्क के प्रभाव से, हमारी सभ्यता, संस्कृति, संस्कार कुछ मूलों बंधनों से जकड़ी अस्तित्व, समाज और परिवार के साथ जुड़ी होती हैं।
‘पशुपति’ को व्यक्त करने के प्रयास में मेहनत लगता है। यहाँ यिन और यांग को पूरक (विरोधी के बजाय) ताकतों के रूप में सोचा जा सकता है जो एक गतिशील प्रणाली बनाने के लिए अपने आपको अपनी सोच को तैयार करना, उसके लिए स्वयं से बातचीत करना जिसमें संपूर्ण होने का भाव है इकट्ठा करना है जो हर चीज़ में यिन और यांग दोनों पहलू को स्वीकार करता है।
उदाहरण के लिए, छाया प्रकाश के बिना मौजूद नहीं हो सकती। अवलोकन की कसौटी के आधार पर, दोनों प्रमुख पहलुओं में से कोई भी किसी विशेष वस्तु में अधिक मजबूती से प्रकट हो सकता है। यिन और यांग प्रतीक (या ताईजितु) प्रत्येक अनुभाग में विपरीत तत्व के एक हिस्से के साथ दो विपरीत तत्वों के बीच संतुलन दिखाता है।