सचेतन 114 : श्री शिव पुराण- शतरुद्र संहिता-  तत्पुरुष रूप में स्वतंत्रता का आधार 

हम चाहे किसी भी धर्म, वंश, जाति, लिंग, संप्रदाय के हों और यहाँ तक की जन्‍म का स्‍थान भी भिन्न भिन्न हो अगर हमारे साथ भेदभाव का निषेध होता है तो यही समान अवसर कहलता है। अगर हम अपनी भाषा और विचार को स्‍वतंत्रता रूप से प्रकट कर सकते हैं कहीं  आने-जाने, निवास करने और कोई भी जीविकोपार्जन एवं व्‍यवसाय करने की इक्षा को व्यवहार में ला सकते हैं और अपने आप को सुरक्षा, विदेशी देशों के साथ भिन्‍नतापूर्ण संबंध सार्वजनिक व्‍यवस्‍था, शालीलनता और नैतिकता के अधीन मिलता है तो वही स्वतंत्र होने का आभास है। 

आस्‍था एवं अन्‍त:करण की स्‍वतंत्रता, किसी भी धर्म का अनुयायी बनना, उस पर विश्‍वास रखना एवं धर्म का प्रचार करना इसमें शामिल हैं।

किसी भी वर्ग के नागरिकों को अपनी संस्‍कृति सुरक्षित रखने, भाषा या लिपि बचाए रखने और अल्‍पसंख्‍यकों को अपनी पसंद की शैक्षिक संस्‍थाएं चलाने का अधिकार; और मौलिक अधिकार के प्रवर्तन के लिए सांवैधानिक उपचार का अधिकार।

भगवान शिव का तत्पुरुष स्वरूप हमारे स्वतंत्र होने के स्वरूप का बोध कराता है। जहां से हम बंधन मुक्त हो कर जीना शुरू करते हैं। और यह पूर्णतया मानसिक रूप से स्वतंत्र होने का सूचक है।

हम सभी का व्यक्तित्व भिन्न है। यही हर व्यक्तियों में पाई जाने वाली असमानता भी है। एक व्यक्ति का व्यक्तित्व प्रत्येक दूसरे से भिन्न होता है यहाँ तक कि एक ही माता–पिता के जुड़वाँ बच्चे, एक दूसरे से भिन्न होते हैं तथा उनका व्यवहार, उसी भिन्नता पर आधारित होता है।