सचेतन 209: शिवपुराण- वायवीय संहिता – कुमारावस्था अति मनोरम और दिव्य होता है।

हम सबके पालक पिता महेश्वर शिव के रूप में प्रवेश करते हैं तो हमारी सोच हमारा मन और हमारा वचन सब कुछ उतम ज्ञान पाने के लिए तत्पर रहता है।

कल हमने बात किया था की हम सभी के जीवन के प्रथम वर्ष से ही देवाधिदेव महेश्वर के दर्शन का इंतज़ार होना प्रारंभ हो जाता है। सूत जी अपनी कथा में कहते हैं की वायु देवता दिव्य कुमारावस्था से युक्त रूप धारण करके रूपवानो में श्रेष्ठ श्वेत नामक मुनि होकर दिव्य वाणी बोलते हुए उनके सामने उपस्थित हुए। जब हमारा प्राण वायु प्रारंभ होता है तो सबसे पहले ध्वनि स्वरूप हम रोते हैं और बाल्य उम्र में हमारी किलकारी सभी को लुभाती है और फिर धीरे  धीरे कुमारावस्था आते आते हमारे रूप और कांति बढ़ती जाती है एक प्रेममय से युक्त रूप हम धारण करते हैं। हमारी आभा और श्रेष्ठ उज्जवल रूप जिसे शास्त्र में श्रेष्ठ श्वेत नामक मुनि की संज्ञा दी है वह हमारे शरीर में प्रकट होते हैं। हमारी हर एक बातें कुमारावस्था अति मनोरम और दिव्य वाणी की तरह होती है। 

कहते हैं की वेदों के अधिपति तथा सबके पालक पिता महेश्वर का दर्शन करके गायत्री सहित ब्रह्माजी कुमारावस्था में आपको प्रणाम किया करते हैं। हम सबके पालक पिता महेश्वर शिव के रूप में प्रवेश करते हैं हमारी सोच हमारा मन और हमारा वचन सब कुछ उतम ज्ञान पाने के लिए तत्पर रहता है। हमारे इसी ज्ञान से हम रचना प्रारंभ करते हैं और कहते हैं की यह ज्ञान पाकर विश्वकर्मा चतुर्मुख ब्रह्मा सम्पूर्ण चराचर भूतों की सृष्टि करने लगते हैं।  

मान्यता है कि भगवान विश्वकर्मा ने ही इंद्रपुरी, द्वारिका, हस्तिनापुर, स्वर्गलोक, सोने की लंका, जगन्नाथपुरी का निर्माण किया। भगवान विश्वकर्मावास्तुदेव के पुत्र हैं।

भगवान विश्वकर्मामहान ऋषि और ब्रह्मज्ञानी हैं। उन्होंनेही देवताओं के घर, नगर और उनके अस्त्र-शस्त्र आदि का निर्माण किया। भगवान विश्वकर्मा ने कर्णका कुंडल,

भगवान श्री हरि विष्णुका सुदर्शन चक्र, पुष्पक विमान, भगवान शिव का त्रिशूल, यमराज का कालदंड आदि का निर्माण किया। उन्होंनेमहर्षि दधिचि की हड्डियों से

दिव्यास्त्रों का निर्माण किया। प्रभु विश्वकर्मा का स्वरूप विराट है, इसीलिए उनको विराट विश्वकर्माभी कहा जाता है। इनकी आराधना सेसुख-समृद्धि और धन-धान्य का

आगमन होता है। कुछ कथाओं के अनुसार भगवान विश्वकर्माका जन्म देवताओं और असुरों के बीच हुए समुद्र मंथन से माना जाता है।

आज अगर जो भी नया विकास हो रहा है वह सभी तो हम मानव ही कर रहे हैं और ये सारी कला हम सभी में है और वह भी हमारे बाल्यकाल से ही है। लेकिन इसके लिए ज्ञान की आवश्यकता होती है। 

सूत जी कहते हैं की साक्षात् परमेश्वर शिव से सुनकर ब्रह्माजी ने अमृतस्वरूप ज्ञान प्राप्त किया था। यह शिव भी आपके पास ही है यानी जब तक आपका मन चिंतन और आत्म मंथन आपको बोलेगा नहीं तब तक आप कुछ सुन नहीं सकते हैं। और आपका मन चिंतन और आत्म मंथन आपको बोल रहा है कोई योजना बता रहा है और आपका मन उसे नहीं सुन पा रहा है तब तक ज्ञान का पाना संभव नहीं है। अगर  आपका मन चिंतन और आत्म मंथन आपको कुछ योजना या लक्ष्य दे रहा है और और उसे सुनकर ब्रह्माजी की भाँति भगवान विश्वकर्मा  की तरह कार्य प्रारंभ करते हैं तो आप भी  स्वर्गलोक, पुष्पक विमान, दिव्यास्त्रों और नया विकास कर सकते हैं।   

इसलिये आपकी तपस्या स्वयं के अंतर्ज्ञानकी ओर होना चाहिए। 

कहते हैं की वेदों के अधिपति तथा सबके पालक पिता महेश्वर का दर्शन करने के लिए गायत्री सहित उन्हें प्रणाम करके उतम ज्ञान पाया जा सकता है। 

गायत्री मंत्र ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।का पहला अर्थ है: हम पृथ्वीलोक, भुवर्लोक और स्वर्लोक में व्याप्त उस सृष्टिकर्ता प्रकाशमान परमात्मा के तेज का ध्यान करते हैं। हमारी बुद्धि को सन्मार्ग की तरफ चलने के लिए परमात्मा का तेज प्रेरित करे।

साक्षात् परमेश्वर शिव यानी हम अपने स्वयं के मन को सुन कर ब्रह्माजी की त्रह अमृतस्वरूप ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। इसलिये तपस्या आवश्यक है और वह भी बालक के प्रारंभिक जीवन से ही।