Welcome to Sachetan

Sachetan Logo

  • सचेतन:बुद्धचरितम्-1

    “बुद्धचरितम्” का कथानक वास्तव में गौतम बुद्ध के जीवन और उपदेशों पर आधारित है, जिसे अश्वघोष ने कविता के रूप में गाया है। इस महाकाव्य की कथावस्तु बुद्ध के जीवन के विभिन्न प्रसंगों से प्रेरित है, जिनमें उनका जन्म, युवावस्था, वैराग्य, बोधिप्राप्ति, उपदेश काल, और महापरिनिर्वाण शामिल हैं।

    कथानक के स्रोत:

    1. महापरिनिर्वाणसूत्र:  बील और मैक्समूलर द्वारा सुझाया गया कि बुद्धचरित का कथानक महापरिनिर्वाणसूत्र से प्रेरित हो सकता है। यह सूत्र बुद्ध के अंतिम दिनों और उनकी मृत्यु पर केंद्रित है, जिसमें उनके जीवन के अंतिम प्रसंग और उनकी शिक्षाओं का संग्रह होता है। महापरिनिर्वाण सूत्र, थेरवाद बौद्ध ग्रंथ त्रिपिटक के सुत्तपिटक के दीघनिकाय का 16वाँ सूत्र है, जो बुद्ध की मृत्यु और महापरिनिर्वाण से संबंधित है और त्रिपिटक का सबसे लंबा सूत्र है. 

    महापरिनिर्वाण सूत्र का अर्थ है “अति महान निर्वाण।” इसका मतलब है कि बुद्ध ने अपने शरीर का त्याग कर दिया और अब किसी भी नए जीवन में जन्म नहीं लेंगे, बल्कि निर्वाण की स्थिति में प्रवेश करेंगे, जहाँ पुनर्जन्म की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती.

    1. ललितविस्तर: कीथ के अनुसार, अश्वघोष का काव्य “ललितविस्तर” नामक ग्रन्थ से प्रेरित है, जो बुद्ध के जीवन का विस्तार से वर्णन करता है। “ललितविस्तर” हीनयान बौद्ध सम्प्रदाय से सम्बन्धित एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है, जो बुद्ध के जीवन के अनेक महत्वपूर्ण प्रसंगों को बड़ी सजीवता से प्रस्तुत करता है।
    2. अन्य स्रोत: बुद्धचरित की कथावस्तु महावस्तु, निदानकथा, और जातक कथाओं से भी अत्यधिक साम्य रखती है। ये सभी ग्रंथ बुद्ध के जीवन और उनकी शिक्षाओं के विभिन्न पहलुओं को दर्शाते हैं।

    बुद्धचरितम् न केवल बुद्ध के जीवन की एक काव्यात्मक प्रस्तुति है, बल्कि यह उनके धार्मिक और नैतिक विचारों को भी प्रस्तुत करता है। यह महाकाव्य बुद्ध के व्यक्तित्व और उनके दार्शनिक विचारों को समझने के लिए एक अमूल्य संसाधन है, जिसमें उनकी शिक्षाओं का गहरा अध्ययन किया गया है।

    इस महाकाव्य का अध्ययन बुद्ध के जीवन को समग्र रूप से समझने और उनके उपदेशों के प्रभाव को मानव इतिहास और संस्कृति पर देखने के लिए महत्वपूर्ण है।

    कृति की विशेषताएँ:

    1. शैली और प्रभाव: “बुद्धचरितम्” की शैली वाल्मीकि की “रामायण” की याद दिलाती है, जो इसे भारतीय काव्य परंपरा में एक विशिष्ट स्थान प्रदान करती है। इसमें धार्मिक और नैतिक शिक्षाओं को कथा के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है, जो श्रोताओं या पाठकों पर गहरा प्रभाव डालती हैं।
    2. अनुवाद और प्रसार: इसके चीनी और तिब्बती अनुवादों ने “बुद्धचरितम्” को एशिया के व्यापक क्षेत्रों में पहुंचाया, जिससे इसकी शिक्षाएँ और भी दूर-दूर तक प्रसारित हुईं। इसका चीनी अनुवाद विशेष रूप से महत्वपूर्ण है क्योंकि यह संस्कृत से सीधे चीनी भाषा में किया गया था।
    3. अपूर्णता और महत्व: दुर्भाग्य से, “बुद्धचरितम्” के संस्कृत मूल टेक्स्ट के कई सर्ग खो गए हैं, लेकिन चीनी और तिब्बती अनुवादों के माध्यम से पूरे महाकाव्य का संरक्षण हुआ है। यह भारतीय साहित्य के इतिहास में एक बड़ी क्षति है, परंतु यह भी दर्शाता है कि कैसे भारतीय साहित्यिक कृतियों का प्रभाव अन्य संस्कृतियों में भी पहुँचा है।

    काव्यात्मक और दार्शनिक महत्व:

    “बुद्धचरितम्” न केवल एक धार्मिक महाकाव्य है, बल्कि यह दार्शनिक चिंतन और मानवीय मूल्यों का भी एक महत्वपूर्ण स्रोत है। इसकी कथा में व्यक्त आदर्श, जैसे कि करुणा, सहानुभूति, और ज्ञान की खोज, आज भी प्रासंगिक हैं और व्यापक रूप से सम्मानित हैं।

    “बुद्धचरितम्” के सर्गों का वर्णन गौतम बुद्ध के जीवन की विभिन्न अवस्थाओं और घटनाओं को सुंदर काव्यात्मक भाषा में प्रस्तुत करता है। बुद्धचरित 28 सर्गों में था जिसमें 14 सर्गों तक बुद्ध के जन्म से बुद्धत्व-प्राप्ति तक का वर्णन है। किन्तु बुद्धचरितम् मूल रूप में अपूर्ण ही उपलब्ध है। 28 सर्गों में विरचित इस महाकाव्य के दूसरे सर्ग से लेकर तेरहवें सर्ग तक पूर्ण रूप से तथा पहला एवं चौदहवाँ सर्ग के कुछ अंश ही मिलते हैं।प्रमुख सर्गों की संक्षिप्त व्याख्या निम्नलिखित है:

    1. भगवत्प्रसूति (The Divine Birth): इस सर्ग में बुद्ध के दिव्य जन्म का वर्णन है, जिसमें उनकी माता माया का उन्हें लुम्बिनी वन में जन्म देना शामिल है।
    2. अन्तःपुरविहार (Life in the Palace): इसमें बुद्ध के राजमहल में बिताए गए युवावस्था के दिनों का वर्णन है, जहाँ उनकी जीवनशैली और विलासिता का चित्रण होता है।
    3. संवेगोत्पत्तिः (The Genesis of Disenchantment): बुद्ध के मन में वैराग्य की उत्पत्ति का वर्णन है, जब उन्होंने वृद्धावस्था, रोग और मृत्यु का सामना किया।
    4. स्त्रीविघातन (Renunciation of Women): यह सर्ग बुद्ध की महल की स्त्रियों और उनके प्रति उनकी अनासक्ति का वर्णन करता है।
    5. अभिनिष्क्रमण (The Great Renunciation): बुद्ध के महल छोड़ने और संन्यासी जीवन को अपनाने का वर्णन।
    6. छन्दकनिवर्तनम् (The Return of Channa): चन्दका (बुद्ध का सारथी) के रथ लौटाने और बुद्ध के अकेले तपस्या की ओर बढ़ने का वर्णन।
    7. तपोवनप्रवेशम् (Entry into the Forest of Austerities): बुद्ध के तपस्या के लिए वन में प्रवेश का विवरण।
    8. अन्तःपुरविलाप (Lamentation of the Palace): महल में बुद्ध के जाने के बाद की विलाप का वर्णन।
    9. कुमारान्वेषणम् (Search for the Prince): बुद्ध की खोज में निकले लोगों की कथा।
    10. श्रेणभिगमनम् (Approach to the Assembly): बुद्ध का विभिन्न आध्यात्मिक गुरुओं और सभाओं से संपर्क।
    11. कामविगर्हणम् (Condemnation of Desire): बुद्ध द्वारा कामनाओं की निंदा और आध्यात्मिक जीवन की महत्ता का वर्णन।
    12. आराडदर्शन (Meeting with Arada): बुद्ध का आराड कालम के साथ मुलाकात और चर्चा।
    13. मारविजय (Victory over Mara): मारा (भ्रांतियों और विकारों का देवता) के ऊपर बुद्ध की विजय।

    ये सर्ग बुद्ध के जीवन के विभिन्न आयामों को प्रदर्शित करते हैं, उनकी आध्यात्मिक यात्रा, उनके संघर्ष और अंतिम विजय की कथा कहते हैं। इन सर्गों के माध्यम से बुद्ध के जीवन की गहराई और उनकी शिक्षाओं की व्यापकता का पता चलता है, जो आज भी विश्वभर में प्रासंगिक हैं।

  • सचेतन: ज्ञान योग-6: माया की भूमिका

    माया एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ होता है ‘जो नहीं है’ या ‘भ्रम’। अद्वैत वेदांत के अनुसार, ब्रह्म ही सत्य है, जो कि एक अनंत, अव्यक्त, और निराकार सत्ता है। माया उस पर्दे की तरह है जो ब्रह्म और जीवात्मा के बीच में होती है, जिससे जीवात्मा खुद को ब्रह्म से अलग और भिन्न समझती है।

    माया और अविद्या का संबंध

    माया वह शक्ति है जो अविद्या को जन्म देती है। अविद्या यहाँ ज्ञान की अनुपस्थिति को दर्शाती है, जो आत्मा को यह भ्रम देती है कि वह शारीरिक और मानसिक विशेषताओं वाला एक व्यक्ति है। इस भ्रांति के कारण ही जीव जन्म, मृत्यु, और पुनर्जन्म के चक्र में फंसा रहता है।

    अविद्या की अवधारणा

    अविद्या, जो संस्कृत में “अज्ञान” या “ज्ञान की अनुपस्थिति” का प्रतीक है, भारतीय दर्शन, विशेषकर वेदांत और सांख्य दर्शन में एक महत्वपूर्ण संकल्पना है। अविद्या को वास्तविकता की सच्ची प्रकृति को न समझ पाने की स्थिति के रूप में देखा जाता है, जिससे व्यक्ति सांसारिक मोह और दुखों का अनुभव करता है। अविद्या का मुख्य विचार यह है कि यह मानवीय समझ की सीमाओं को दर्शाता है और यह बताता है कि कैसे वास्तविक ज्ञान की अनुपस्थिति में मनुष्य भ्रम और दुखों का अनुभव करता है।

    एक कहानी: अंधेरे गुफा का रहस्य

    एक समय की बात है, एक गांव के पास एक बड़ी और गहरी गुफा थी। गांव वाले इस गुफा से बहुत डरते थे क्योंकि उन्हें लगता था कि उसमें एक भयानक दानव रहता है जो किसी को भी अंदर जाने पर पकड़ लेता है। इस भय के कारण, गांव के लोग कभी भी गुफा के नजदीक नहीं जाते थे।

    एक दिन, एक बुद्धिमान साधु उस गांव में आया और गुफा के बारे में सुना। उसने सोचा कि यह अविद्या का प्रतीक है, और उसने तय किया कि वह गुफा का रहस्य जानेगा।

    साधु ने एक मशाल ली और गुफा के अंदर प्रवेश किया। जैसे ही वह अंदर गया, उसने देखा कि गुफा में कोई दानव नहीं था, बल्कि एक सुंदर झील थी जिसमें चमकदार पत्थर जगमगा रहे थे। ये पत्थर इतने चमकीले थे कि जब भी पानी में पत्थर गिरता, तो प्रतिबिंब की वजह से ऐसा लगता कि कोई जीव हिल रहा है।

    साधु गांव लौटा और उसने सभी गांव वालों को बताया कि उनका डर अज्ञानता का परिणाम था। उसने उन्हें समझाया कि जब तक वे स्वयं जांच नहीं करते और सच्चाई का पता नहीं लगाते, तब तक वे अपने भय में बंधे रहेंगे।

    इस कहानी के माध्यम से, साधु ने गांव वालों को यह सिखाया कि अविद्या यानी अज्ञानता से मुक्ति पाने के लिए उन्हें खुद से ज्ञान की खोज करनी चाहिए।

    वेदांत में अविद्या

    वेदांत दर्शन में अविद्या को ब्रह्मांडीय भ्रम के रूप में माना जाता है, जो ब्रह्म (अनंत चेतना) और आत्मा की वास्तविक एकता को छिपाती है। इसके कारण व्यक्ति आत्मा और शरीर के बीच के भेद को नहीं पहचान पाता और सांसारिक जीवन के चक्र में फँसा रहता है।

    वेदांत दर्शन में अविद्या उस भ्रांति को दर्शाती है जिसके कारण जीवात्मा अपने असली स्वरूप से अनजान रहती है और सांसारिक दुनिया के मोह में फँसी रहती है। यह विचार अद्वैत वेदांत की मूल धारणाओं में से एक है, जिसे आदि शंकराचार्य ने प्रमुखता से प्रस्तुत किया।

    ब्रह्म और जीवात्मा का एकत्व

    वेदांत कहता है कि समस्त ब्रह्मांड और उसमें मौजूद प्रत्येक जीव ब्रह्म से उत्पन्न हुए हैं, और वास्तव में सब कुछ ब्रह्म ही है। यहां ब्रह्म का अर्थ है परम सत्ता, जो अनंत, अविनाशी और अपरिवर्तनीय है। जब जीवात्मा इस तथ्य को नहीं समझ पाती कि वह ब्रह्म का ही एक अंश है, तो उसे अविद्या की स्थिति कहा जाता है।

    अविद्या के प्रभाव

    इस अविद्या के कारण, जीवात्मा खुद को शरीर और मन के साथ एकाकार मान लेती है और उसकी पहचान इसी से बन जाती है। यह भ्रम सांसारिक बंधनों को जन्म देता है जैसे कि इच्छा, क्रोध, लोभ और अहंकार जो कि दुःख और व्यथा के मुख्य कारण हैं। ये भावनाएँ और ताप व्यक्ति को अधिक से अधिक सांसारिक क्रियाओं में उलझाते हैं।

    अविद्या का निवारण

    वेदांत दर्शन अविद्या के निवारण के लिए ज्ञान-मार्ग को अपनाने की सलाह देता है। ज्ञान योग के द्वारा जीवात्मा को यह अनुभव होता है कि वास्तविक आत्मा न तो जन्म लेती है और न ही मरती है; यह नित्य, शाश्वत और अविनाशी है। इस तरह के आत्मज्ञान से अविद्या दूर होती है, और जीवात्मा ब्रह्म के साथ अपनी एकता का अनुभव करती है, जिसे मोक्ष या निर्वाण कहा जाता है।

    इस प्रकार, वेदांत में अविद्या को न सिर्फ एक बाधा माना जाता है बल्कि इसे दूर करने का मार्ग भी दर्शाया गया है, जिससे आत्मा को उसकी असली, शाश्वत और सर्वव्यापी प्रकृति का बोध हो सके।

    माया का निवारण

    माया का निवारण ज्ञान के माध्यम से संभव है। जब जीवात्मा को अपनी असली प्रकृति का बोध होता है, तब वह इस माया के प्रभाव से मुक्त हो जाती है। यह बोध या आत्म-ज्ञान उसे सांसारिक मोह और दुखों से मुक्त करता है और उसे ब्रह्म के साथ एकत्व की अनुभूति कराता है।

    इस प्रकार, माया और अविद्या वेदांत दर्शन में जीवात्मा के सांसारिक जीवन और मुक्ति की यात्रा के केंद्रीय तत्व हैं। ये दोनों हमें यह समझने में मदद करते हैं कि जीवन की सांसारिक उलझनों से कैसे पार पाया जा सकता है और कैसे हम अपनी वास्तविक और अंतर्निहित एकता को पहचान सकते हैं।

  • सचेतन: ज्ञान योग-5: जीवन की सच्ची समझ हासिल करने के लिए भ्रम को पार करना

    भारतीय दर्शन में जीवन की सच्ची समझ को हासिल करने के लिए भ्रम को पार करने की अवधारणा अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस प्रक्रिया में माया और अविद्या के भ्रम को समझना और उन्हें पार करना शामिल है। यह प्रक्रिया व्यक्ति को आत्म-साक्षात्कार की ओर ले जाती है, जिससे वह जीवन की गहराई और इसके असली अर्थ को समझ सके।

    भ्रम का स्वरूप

    भ्रम में व्यक्ति वास्तविकता को उसके वास्तविक स्वरूप में नहीं देख पाता, बल्कि उसे किसी दूसरे रूप में अनुभव करता है। इसमें सांसारिक वस्तुओं, भावनाओं, और संबंधों को उनकी अस्थायी प्रकृति के बावजूद स्थायी मान लेना शामिल है। भ्रम हमें यह विश्वास दिलाता है कि सांसारिक सुख-दुख ही सब कुछ हैं, जबकि वास्तविक सत्य कुछ और ही है।

    भ्रम को पार करना

    भ्रम को पार करने के लिए अनेक आध्यात्मिक पथ और प्रक्रियाएं हैं, जैसे कि:

    1. ध्यान और योग: ये प्रथाएं मन को शांत करती हैं और आंतरिक ज्ञान को जागृत करती हैं। ध्यान के द्वारा व्यक्ति अपने आप को गहराई से समझ सकता है और अपनी आत्मा की अस्थायी प्रकृति को पहचान सकता है।
    2. आत्म-चिंतन: स्वयं के बारे में गहराई से चिंतन करना, अपने विचारों और भावनाओं के मूल कारणों को समझना, और उनकी सत्यता की पड़ताल करना।
    3. ज्ञान मार्ग: वेदांत और अन्य दार्शनिक ग्रंथों का अध्ययन करना, जिससे व्यक्ति को ब्रह्मांड और आत्मा के बीच के संबंध की सही समझ हो सके।
    4. गुरु का मार्गदर्शन: एक योग्य गुरु का मार्गदर्शन अमूल्य होता है क्योंकि वे अपने ज्ञान और अनुभव से शिष्य को सही दिशा दिखा सकते हैं।

    अंतिम लक्ष्य

    भ्रम को पार करने का अंतिम लक्ष्य आत्म-साक्षात्कार है, जहां व्यक्ति अपने और ब्रह्म के बीच की एकता को समझता है। इस स्तर पर पहुंचने के बाद, व्यक्ति को सांसारिक बंधनों से मुक्ति मिल जाती है और वह सच्चे सुख और शांति का अनुभव करता है।

    इस प्रकार, जीवन की सच्ची समझ के लिए भ्रम को पार करना न केवल आत्म-विकास की एक यात्रा है, बल्कि यह व्यक्ति को उसकी आत्मा के सच्चे स्वरूप से परिचित कराने का भी एक साधन है।

    भारतीय दर्शन में, विशेषकर अद्वैत वेदांत में, माया की अवधारणा अत्यंत महत्वपूर्ण है। माया को अक्सर उस अविद्या के रूप में देखा जाता है जो सत्य या वास्तविकता को छिपाती है। यह समझना जरूरी है कि माया कैसे कार्य करती है और यह हमें ब्रह्मांड की सच्ची प्रकृति से कैसे दूर रखती है।

  • सचेतन: ज्ञान योग-4: मायावाद – भ्रम का स्वरूप

    “अपनी प्रकृति” और “मायावाद” दोनों शब्द भारतीय दर्शन में गहराई से उलझे हुए संकल्पनाएं हैं, जिन्हें समझने के लिए इनके मूल अर्थों पर विचार करना जरूरी है।

    अपनी प्रकृति

    “अपनी प्रकृति” का अर्थ है किसी व्यक्ति की वह बुनियादी या मूलभूत प्रकृति जो उसके व्यवहार और निर्णयों को निर्देशित करती है। यह प्रकृति संस्कृतियों, व्यक्तिगत अनुभवों, और जैविक प्रवृत्तियों से प्रभावित होती है। इस प्रकृति की पहचान और समझ स्व-ज्ञान और आत्म-साक्षात्कार की ओर ले जा सकती है, जिससे व्यक्ति अपने आप को और बेहतर ढंग से समझ पाता है और जीवन में अधिक प्रभावी ढंग से कार्य कर सकता है।

    मायावाद

    मायावाद, जिसे अक्सर अद्वैत वेदांत के संदर्भ में समझा जाता है, वह दर्शन है जो सिखाता है कि सांसारिक अनुभव और सामग्र जगत माया के कारण हमें भ्रमित करते हैं। माया उस अविद्या का प्रतिनिधित्व करती है जो सच्चाई को छिपाती है, जिससे हमें लगता है कि जगत विभाजित और बहुतायत से भरा है, जबकि वास्तविकता में, सब कुछ एक अखंड ब्रह्म से निर्मित है। इस प्रकार, मायावाद हमें यह सिखाता है कि जीवन की सच्ची समझ हासिल करने के लिए हमें इस भ्रम को पार करना होगा।

    जीवन की सच्ची समझ हासिल करने के लिए भ्रम को पार करना

    भारतीय दर्शन में जीवन की सच्ची समझ को हासिल करने के लिए भ्रम को पार करने की अवधारणा अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस प्रक्रिया में माया और अविद्या के भ्रम को समझना और उन्हें पार करना शामिल है। यह प्रक्रिया व्यक्ति को आत्म-साक्षात्कार की ओर ले जाती है, जिससे वह जीवन की गहराई और इसके असली अर्थ को समझ सके।

    भ्रम का स्वरूप

    भ्रम में व्यक्ति वास्तविकता को उसके वास्तविक स्वरूप में नहीं देख पाता, बल्कि उसे किसी दूसरे रूप में अनुभव करता है। इसमें सांसारिक वस्तुओं, भावनाओं, और संबंधों को उनकी अस्थायी प्रकृति के बावजूद स्थायी मान लेना शामिल है। भ्रम हमें यह विश्वास दिलाता है कि सांसारिक सुख-दुख ही सब कुछ हैं, जबकि वास्तविक सत्य कुछ और ही है।