हनुमान जी अंतःपुर का विचरण करते करते सोचा की, निश्चय ही सीता गुणों की दृष्टि से रावण की सभी भार्याओं की अपेक्षा बहुत ही बढ़-चढ़कर हैं। फिर हनुमान जी और आगे बढ़े अन्तःपुर में सोये हुए रावण को देखा।
वहाँ इधर-उधर दृष्टिपात करते हुए हनुमान जी ने एक दिव्य एवं श्रेष्ठ वेदी देखी, जिस पर पलंग बिछाया जाता था। वह वेदी स्फटिक मणि की बनी हुई थी और उसमें अनेक प्रकार के रत्न जड़े गये थे। वहाँ वैदूर्यमणि (नीलम)-के बने हुए श्रेष्ठ आसन(पलंग) बिछे हुए थे, जिनकी पाटी-पाये आदि अंग हाथी-दाँत और सुवर्ण से जटित होने के कारण चितकबरे दिखायी देते थे। उन महामूल्यवान् पलंगों पर बहुमूल्य बिछौने बिछाये गये थे। उन सबके कारण उस वेदी की बड़ी शोभा हो रही थी।
उस पलंग के एक भाग में उन्होंने चन्द्रमा के समान एक श्वेत छत्र देखा, जो दिव्य मालाओं से सुशोभित था। वह उत्तम पलंग सुवर्ण से जटित होने के कारण अग्नि के समान देदीप्यमान हो रहा था। हनुमान जी ने उसे अशोक पुष्पों की मालाओं से अलंकृत देखा।
उसके चारों ओर खड़ी हुई बहुत-सी स्त्रियाँ हाथों में चँवर लिये उस पर हवा कर रही थीं। वह पलंग अनेक प्रकार की गन्धों से सेवित तथा उत्तम धूप से सुवासित था। उस पर उत्तमोत्तम बिछौने बिछे हुए थे। उसमें भेड़ की खाल मढ़ी हुई थी तथा वह सब ओर से उत्तम फूलों की मालाओं से सुशोभित था।
उस प्रकाशमान पलंग पर महाकपि हनुमान जी ने वीर राक्षसराज रावण को सोते देखा, जो सुन्दर आभूषणों से विभूषित, इच्छानुसार रूप धारण करने वाला, दिव्य आभरणों से अलंकृत और सुरूपवान् था। वह राक्षस-कन्याओं का प्रियतम तथा राक्षसों को सुख पहुँचाने वाला था। उसके अंगों में सुगन्धित लाल चन्दन का अनुलेप लगा हुआ था, जिससे वह आकाश में संध्याकाल की लाली तथा विद्युल्लेखा से युक्त मेघ के समान शोभा पाता था। उसकी अंगकान्ति मेघ के समान श्याम थी। उसके कानों में उज्ज्वल कुण्डल झिलमिला रहे थे। आँखें लाल थीं और भुजाएँ बड़ी-बड़ी। उसके वस्त्र सुनहरे रंग के थे। वह रात को स्त्रियों के साथ क्रीड़ा करके मदिरा पीकर आराम कर रहा था। उसे देखकर ऐसा जान पड़ता था, मानो वृक्ष, वन और लता-गुल्मों से सम्पन्न मन्दराचल सो रहा हो।
उस समय साँस लेता हुआ रावण फुफकारते हुए सर्प के समान जान पड़ता था। उसके पास पहुँचकर वानरशिरोमणि हनुमान् अत्यन्त उद्विग्न हो भलीभाँति डरे हुए की भाँति सहसा दूर हट गये और सीढ़ियों पर चढ़कर एक-दूसरी वेदी पर जाकर खड़े हो गये। वहाँ से उन महाकपि ने उस मतवाले राक्षससिंह को देखना आरम्भ किया।
राक्षसराज रावण के सोते समय वह सुन्दर पलंग उसी प्रकार शोभा पा रहा था, जैसे गन्धहस्ती के शयन करने पर विशाल प्रस्रवणगिरि सुशोभित हो रहा हो। उन्होंने महाकाय राक्षसराज रावण की फैलायी हुई दो भुजाएँ देखीं, जो सोने के बाजूबंद से विभूषित हो इन्द्रध्वज के समान जान पड़ती थीं।
युद्धकाल में उन भुजाओं पर ऐरावत हाथी के दाँतों के अग्रभाग से जो प्रहार किये गये थे, उनके आघात का चिह्न बन गया था। उन भुजाओं के मूलभाग या कंधेबहुत मोटे थे और उनपर वज्र द्वारा किये गये आघात के भी चिह्न दिखायी देते थे। भगवान् विष्णु के चक्र से भी किसी समय वे भुजाएँ क्षत-विक्षत हो चुकी थीं।
वे भुजाएँ सब ओर से समान और सुन्दर कंधोंवाली तथा मोटी थीं। उनकी संधियाँ सुदृढ़ थीं। वे बलिष्ठ और उत्तम लक्षण वाले नखों एवं अंगुष्ठों से सुशोभित थीं। उनकी अंगुलियाँ और हथेलियाँ बड़ी सुन्दर दिखायी देती थीं।
वे सुगठित एवं पुष्ट थीं। परिघ के समान गोलाकार तथा हाथी के शुण्डदण्ड की भाँति चढ़ाव-उतारवाली एवं लंबी थीं। उस उज्ज्वल पलंग पर फैली वे बाँहें पाँच-पाँच फनवाले दो सर्पो के समान दृष्टिगोचर होती थीं।
खरगोश के खून की भाँति लाल रंग के उत्तम, सुशीतल एवं सुगन्धित चन्दन से चर्चित हुई वे भुजाएँ अलंकारों से अलंकृत थीं।
हनुमान जी ने देखा की सुन्दरी युवतियाँ धीरे-धीरे रावण की बाँहों को दबाती थीं। उन पर उत्तम गन्ध-द्रव्य का लेप हुआ था। कपिवर हनुमान् ने पलंग पर पड़ी हुई उन दोनों भुजाओं को देखा। वे मन्दराचल की गुफा में सोये हुए दो रोषभरे अजगरों के समान जान पड़ती थीं।
यहाँ शयनागार में सोये हुए रावण के एक ही मुख और दो ही बाँहों का वर्णन आया है। इससे जान पड़ता है कि वह साधारण स्थिति में इसी तरह रहता था। युद्ध आदि के विशेष अवसरों पर ही वह स्वेच्छापूर्वक दस मुख और बीस भुजाओं से संयुक्त होता था।
उसकी चारों दिशाओं में चार सुवर्णमय दीपक जल रहे थे; जिनकी प्रभा से वह देदीप्यमान हो रहा थाऔर उसके सारे अंग प्रकाशित होकर स्पष्ट दिखायी दे रहे थे। ठीक उसी तरह, जैसे विद्युद्गणों से मेघ प्रकाशित एवं परिलक्षित होता है।
पत्नियों के प्रेमी उस महाकाय राक्षसराज के घर में हनुमान जी ने उसकी पत्नियों को भी देखा, जो उसके चरणों के आस-पास ही सो रही थीं। वानरयूथपति हनुमान् जी ने देखा, उन रावणपत्नियों के मुख चन्द्रमा के समान प्रकाशमान थे। वे सुन्दर कुण्डलों से विभूषित थीं तथा ऐसे फूलों के हार पहने हुए थीं, जो कभी मुरझाते नहीं थे। वे नाचने और बाजे बजाने में निपुण थीं, राक्षसराज रावण की बाँहों और अंक में स्थान पाने वाली थीं तथा सुन्दर आभूषण धारण किये हुए थीं। कपिवर हनुमान् ने उन सबको वहाँ सोते देखा । उन्होंने उन सुन्दरियों के कानों के समीप हीरे तथा नीलम जड़े हुए सोने के कुण्डल और बाजूबंद देखे।
उन सबकी शय्याओं से पृथक् एकान्त में बिछी हुई सुन्दर शय्या पर सोयी हुई एक रूपवती युवती को वहाँ हनुमान जी ने देखा। वह मोती और मणियों से जड़े हुए आभूषणों से भलीभाँति विभूषित थी और अपनी शोभा से उस उत्तम भवन को विभूषित-सा कर रही थी।
वह गोरे रंग की थी। उसकी अंगकान्ति सुवर्ण के समान दमक रही थी। वह रावण की प्रियतमा और उसके अन्तःपुर की स्वामिनी थी। उसका नाम मन्दोदरी था। वह अपने मनोहर रूप से सुशोभित हो रही थी। वही वहाँ सो रही थी। हनुमान जी ने उसी को देखा। रूप और यौवन की सम्पत्ति से युक्त और वस्त्राभूषणों से विभूषित मन्दोदरी को देखकर महाबाहु पवनकुमार ने अनुमान किया कि ये ही सीताजी हैं। फिर तो ये वानरयूथपति हनुमान् महान् हर्ष से युक्त हो आनन्दमग्न हो गये।
वे अपनी पूँछ को पटकने और चूमने लगे। अपनी वानरों-जैसी प्रकृति का प्रदर्शन करते हुए आनन्दित होने, खेलने और गाने लगे, इधर-उधर आने-जाने लगे। वे कभी खंभों पर चढ़ जाते और कभी पृथ्वी पर कूद पड़ते थे।