सचेतन 142 : श्री शिव पुराण- शिवोहम
हम यह कहें की शिव तत्व आपको सत् से प्रीति करा कर आपके दुःख का नाश अवश्यंभावी कर देता है।
प्रत्येक अवस्थाओं का साक्षी होना ही शिव है, सत् है, यही ईश्वर है, यही चैतन्य है, यही ज्ञानस्वरूप है और यही आनंद स्वरूप है।
समस्त शास्त्र, तपस्या, यम और नियमों का निचोड़ यही है कि इच्छामात्र दुःखदायी है और इच्छा का शमन मोक्ष है।
इच्छा के शमन से परम पद की प्राप्ति होती है। इच्छारहित हो जाना यही निर्वाण है।
शिवोहम का अर्थ है मैं ही शिव हूं।परम ब्रह्म मैं ही हूं।
है सदाशिव जो परम ब्रह्म और सर्वप्रथम प्रगट हुए हैं।
जिन्होंने स्वयं सृष्टि का निर्माण किया। इसका अर्थ है कि दोनों एक ही हैं।
अहम् ब्रह्मास्मि अर्थात मैं ही ब्रह्म हूँ। ब्रह्म अर्थात परम ब्रह्म जो कि स्वयं शिव। फिर वो अलग कहां हुये?
मनुष्य ईश्वर का ही अंश है. कहते हैं पंच तत्वों से बना ये मानव शरीर मृत्यु होने पर उन्ही पांच तत्वों में विलीन हो जाता है. आत्मा अजर अमर है, मनुष्य पृथ्वी पर जन्म लेता है तो अलग अलग रूप में, एक जीव चौसट लाख योनियां भोगकर मनुष्य बनता है. मनुष्य का शरीर पाकर वो अपने पुराने जन्मों के विषय में भूल जाता है. विस्मृति उसे पुराने जन्म की कोई याद नहीं आने देती. और दुर्भाग्य ये भी है, मानव शरीर पाकर हम वही करना भूल जाते हैं, जिसके लिए भगवान हमे इस दुनिया में भेजता है. कबीर जी ने लिखा भी है,
आये थे हरि भजन को और औटन लगे कपास
तो अनंत संभावनाओं के होते हुए भी, हम जीवन में वो हासिल नहीं कर पाते जिसके हम योग्य होते हैं। ‘अहम् ब्रह्मास्मि’, मनुष्य जीवन वास्तविक रूप में तो देवताओं के श्रेष्ठ है, जरूरत है तो बस इसे पहचानने की. जीवन का यदि कोई नाद है तो वह है शिवोहम शिवोहम। यह जानना की मै केवल शरीर भर नहीं, ब्रह्म हूँ और ईश्वर को प्राप्त करने का सामर्थ्य मुझमे है, कठिन जरूर है, असंभव नहीं. उस दिशा की ओर चलने की आवश्यकता है. और बाकी जब हम ईश्वर की ओर एक कदम बढ़एंगे तो वह हमारी और कई कदम बढ़ाएंगे. जीवन एक यात्रा है, आनंद भरी यात्रा. ईश्वर को प्राप्त करने की इच्छा हमे आनंद की अनुभूति दे सकती है.