सचेतन :7. श्री शिव पुराण: चंचुला को अपने पति बिन्दुग की जानकारी भी प्राप्त हो हुई
नवंबर 7, 2022- ShreeShivPuran
सचेतन :7. श्री शिव पुराण: चंचुला को अपने पति बिन्दुग की जानकारी भी प्राप्त हो हुई
Sachetan: Chanchula also got to know about her husband Bindug.
चंचुला की प्रार्थना से ब्राह्मण का उसे पूरा शिवपुराण सुनना और समयानुसार शरीर छोड़कर शिव लोक में जा चंचल का पार्वती जी की सखी बनकर एवं सुखी से रहने लगी।
ब्राह्मण बोले नारी! सौभाग्य की बात है की भगवान् शंकर की कृपा से शिव पुराण की इस वैराग्ययुक्त कथा को सुनकर तुम्हे समय पर चेत हो गया है। ब्राह्मणपत्नी निडर होकर शिव की कथा सुनी और भगवान् शिव की शरण में पहुँच गई। शिव की कृपा से सारा पाप तत्काल नष्ट हो गया। भगवान् शिव की कथा सदा सुख देनेवाली उत्तम गति प्रदानक्रेन वाली है जिसे सुनने से ही बुद्धि अगर पश्चाताप से युक्त हो तो शुद्ध हो जाती है, साथ ही मन में विषयों के प्रति वैराग्य हो जाता है। कहते हैं की पश्चाताप ही पाप करने वाले पापिओं के लिए ही प्रायश्चित हैं। सत्पुरुषों ने सबके लिए पश्चाताप को ही समस्त पापों का शोधक बताया है, पश्चाताप से ही पापों की शुद्धि होती है।
चंचुला ने अपने शरीर को बिना किसी कष्ट के त्याग कर वह दिव्यरूपिणी दिव्याग्ना हो गयी थी। उसके दिव्य अवयव उसकी शोभा बढ़ाते थे। मस्तक पर अर्ध चंद्राकर का मुकुट धारण किये वह गौरांगी देवी शोभाशाली दिव्य आभूषणोंं से विभूषित थी। शिवपुरी में पहुंचकर उसने सनातन देवता त्रिनेत्रधारी महादेवजी को देखा। सभी मुख्य मुख्य देवता उनकी सेवा में खड़े थे। गणेश, भृंगी, नन्दीश्वर तथा वीरभद्रेश्वर आदि उनकी सेवा में उत्तम भक्ति भाव से उपस्थित थे। उनकी अंगकांति करोड़ोंं सूर्यो की भांति प्रकाशित हो रही थी। कंठ में निला चिन्ह शोभा पाता था। पांच मुख और प्रतेक मुख में तीन -तीन नेत्र थे। मस्तक पर अर्धचन्द्राकार मुकुट शोभा देता था। उन्होंने अपने वामांग भाग में गौरां देवी को बिठा रखा था, जो विधुत – पुंज के सामान प्रकाशित थी। गौरीपति महादेवजी की कान्ति कपूर के सामान गौर थी। उनका सारा शरीर स्वेत भस्म से भासित था। शरीर पर स्वेत वस्त्र शोभा दे रहे थे।
इस प्रकार परम उज्जवल भगवान शंकर का दर्शन कर के वह ब्राह्मण पत्नी चंचुला बहुत प्रसन्न हुई। अत्यंत प्रितीयुक्त होकर उसने बड़ी उतावली के साथ भगवान शिव को बारम्बार प्रणाम किया। फिर हाथ जोड़कर वह बड़े प्रेम,आनंद और संतोष से युक्त हो विनीत भाव से खड़ी हो गयी। उसके नेत्रों से आनन्दाश्रुओंं की अविरल धारा बहने लगी तथा सम्पूर्ण शरीर में रोमांच हो गया। उस समय भगवती पार्वती और भगवान शंकर ने उसे बड़ी करुणा के साथ अपने पास बुलाया और सौम्य दृष्टि से उसकी और देखने लगे। पार्वती जी ने तो दिव्य रूप धारणी बिन्दुगप्रिया चंचुला को प्रेम पूर्वक अपनी सखी बना लिया। वह उस परमानन्दघन ज्योतिस्वरूप सनातन धाम में अविचल निवास पाकर दिव्य सौख्य से संपन्न हो अक्षय सुख का अनुभव करने लगी।
सुतजी बोले – शौनक ! एक दिन परमानन्द मेंं मग्न हुई चंचुला ने उमा देवी के पास जाकर प्रणाम किया और दोनो हाथ जोड़कर वह उनकी स्तुति करने लगी।
चंचुला बोली – गिरिराज नन्दनी ! स्कन्दमाता उमे। मनुष्योंं ने सदा आपका सम्मान किया है। समस्त सुखोंं को देने वाली शम्भुप्रिये ! आप ब्रहास्वरुपिणी है। विष्णु और ब्रह्मा आदी देवताओ द्वारा सेव्य है। आप ही सगुणा और निर्गुणा है तथा आप आनन्दस्वरुपिणी आघा प्रकृति है। आप ही संसार की सृष्टि ,पालन और संहार करने वाली है। तीनो गुणों का आश्रय भी आप ही हैंं। ब्रह्म,बिष्णु और महेश्वर – इन तीनो देवताओंं का निवास स्थान तथा उनकी उत्तम प्रतिष्ठा करनेवाली पराशक्ति आप ही है।
अब सूतजी कहते है – शौनक ! जिसे सदगति प्राप्त हो चूकि थी, वह चंचुला इस प्रकार महेश्वर पत्नी उमा की स्तुति करके सिर झुकाये चुप हो गयी। उसके नेत्रोंं मे प्रेम के आँसू उमड आये थे। तब करुणा से भरी शंकर प्रिया भक्तवत्सला पार्वती देवी ने चंचुला को संबोधित करके इस प्रकार कहा – पार्वती जी बोली – सखी चंचुले ! सुन्दरी ! मै तुम्हारी इस की हुई स्तुति से बहुत प्रसन्न हूँ।बोलो क्या वर मांगती हो ? तुमहारे लिये मुझे कुछ भी न देने योग्य नहीं हैं।
चंचुला बोली – निष्पाप गिरिराजकुमारी ! मेरे पति बिन्दुग इस समय कहाँँ है, उनकी कैसी गति हुई है – यह मैंं नहींं जानती ! कल्याणमयी दिनवत्सले ! मै अपने उन पतिदेव से जिस प्रकार संयुक्त हो सकूँँ, वैसा ही उपाय किजिये। महेश्वरी ! महादेवी ! मेरे पति एक शुद्र जातिए वेश्या के प्रति आसक्त थे और पाप मे ही डुबे रहते थे। उनकी मौत मुझसे पहले हो गयी थी, ना जाने वे किस गति को प्राप्त हुए। गिरिजा बोली – बेटी ! तुम्हारा बिन्दुग नामवाला पति बडा पापी था। उसका अंतःकरण बहुत ही दुषित था। वेश्या का उपभोग करने वाला वह महामूढ मरने के बाद नरक मे पडा अनगिनत बर्षो तक नरक मे नाना प्रकार के दुःख भोगकर वह पापात्मा अपने शेष पाप को भोगने के लिये विन्ध्यपर्वत पर पिचाश बन के बैठा है। इस समय वह पिचाश अवस्था मे है और नाना प्रकार के क्लेश उठा रहा है। वह दुष्ट वहींं वायु पीकर रहता और वहींं सदा सब प्रकार कष्ट सहता है।