सचेतन 188: अंधकार से संघर्ष पैदा होता है

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पिछले तीन हजार वर्षों में कोई चौदह हजार छह सौ युद्ध हुए हैं!

सचेतन का अर्थ तब आपको साकार दिखेगा जब हम स्मरण से इन वस्त्र, धन, पदवी, पद, सामाजिक प्रतिष्ठा, अहंकार, उपाधि को भूलना शुरू करेंगे। 

जब तक आप स्वयं को नही जानते हैं तक आप अंधकार में रहेंगे  

मन भी वस्त्रों से ज्यादा गहरा नहीं है। लेकिन उससे गहरी हमारी कोई पहचान नहीं जाती। जीवन में सारा दुख और सारा अंधकार इस आत्म-अज्ञान से पैदा होता है। केंद्र पर, अपने स्वयं के केंद्र पर अंधकार होता है और हम सारे रास्तों पर दीये जलाने की कोशिश करते हैं। वे सब दीये काम नहीं पड़ते। क्योंकि मेरे भीतर अंधकार होता है तो मैं जहां भी जाता हूं अपने साथ अंधकार ले जाता हूँ। उन रास्तों पर भी जहां कि मैने प्रकाश के दीये जलाए हैं, मेरे पहुंचने से अंधकार हो जाता है क्योंकि मैं अंधकार हूँ। जब तक मैं स्वयं को नही जानता तब तक मैं अंधकार हूँ। मैं अपने अंधकार को लिए फिरता हूं जीवन में और सारे लोग अपने-अपने अंधकार को लिए फिरते हैं। हम सब जहां इकट्ठे हो जाते हैं वहाँ अंधकार बहुत घना हो जाता है। 

एक-एक व्यक्ति उतने अंधकार में है और जहां पूरी मनुष्य-जाति इकट्ठी हो वहां अंधकार बहुत घना हो जाता है। मनुष्य-जाति के पिछले तीन-चार हजार वर्षों का इतिहास इसी अंधकार का इतिहास है। 

फिर इस अंधकार से संघर्ष पैदा होता है, युद्ध पैदा होते हैं,हिंसा पैदा होती है। इस अंधकार से, ईष्र्या पैदा होती है, घृणा पैदा होती है, क्रोध पैदा होता है। इस अंधकार से विध्वंस पैदा होता है। हम खुद दुखी होते हैं औरों को दुखी करते हैं। ये कोई तीन-चार हजार वर्षों से चला है और अब तक हम सफल नहीं हो पाए हैं इस बात में कि एक ऐसा समाज निर्मित हो सके जिसका जीवन प्रकाश से आलोकित हो, प्रकाश से मंडित हो।

क्या आपको ज्ञात है कि तीन हजार वर्षों में कोई चैदह हजार छह सौ युद्ध हुए। केवल तीन हजार वर्षों में चैदह हजार छह सौ युद्ध, कोई पंद्रह हजार युद्ध। प्रति वर्ष पांच युद्ध। हम शायद लड़ते ही रहे हैं। हमने कुछ और नहीं किया। और ये तो बड़े-बड़े युद्धों की बात है। रोज हम जो छोटी-छोटी लड़ाइयां लड़ रहे हैं उनकी तो कोई गिनती नहीं है। जो हम रोज छोटी-छोटी हिंसा कर रहे हैं उसका तो कोई आकलन नहीं, कोई गणना नहीं है। 

अगर तीन हजार वर्षों में पंद्रह हजार युद्ध हमें लड़ने पड़े हों तो क्या इससे यह सूचना नहीं मिलती है कि मनुष्य-जाति का मस्तिष्क किसी बहुत गहरे रोग से पीड़ित है? कोई इन तीन हजार वर्षों में मुश्किल से थोड़े से वर्ष हैं जब युद्ध न हुआ हो और उन वर्षों को भी हम शांति का समय नहीं कह सकते क्योंकि उन क्षणों में हमने नये युद्धों की तैयारियां की हैं। 

या तो हम लड़ते रहे हैं या हम लड़ने की तैयारियां करते रहे हैं। मनुष्य के पूरे इतिहास को दो खंडों में बांटा जा सकता है। युद्ध के खंड और युद्ध की तैयारियों के खंड। शांति हमने अब तक नहीं जानी। और व्यक्तिगत जीवन में भी हम देखें तो शांति का कहीं भी कोई, कहीं कोई पता नहीं मिलेगा। कोई आनंद की किरण उपलब्ध नहीं होगी। कोई प्रेम का संगीत नहीं सुनाई पड़ेगा। हम सारे लोग सचेतन में इकट्ठेे हैं। कौन अपने भीतर प्रेम के संगीत को अनुभव करता है?

कौन अनुभव करता है अपने भीतर सुगंध को जीवन में, कौन अनुभव करता है जीवन की धन्यता को, कृतार्थता को? 

एक अर्थहीनता, एक मीनिंगलेसनेस हमें पकड़े है। लेकिन किसी भांति हम जीए जाते हैं कल की आशा में। शायद कल सब ठीक हो जाएगा। लेकिन जिसका आज गलत है उसका कल कैसे ठीक होगा? क्योंकि कल तो आज से ही निकलेगा, आज से ही पैदा होगा। अगर आज दुख से भरा है तो स्मरण रखें कल आनंद से भरा हुआ नहीं हो सकता है क्योंकि कल का जन्म तो आज से होगा। कल आने वाला जीवन आप पैदा करेंगे उसे आप प्रतिक्षण पैदा कर रहे हैं। तो यदि आज दुखी हैं तो जान लें कि कल भी दुखी रहेंगे। कल की आशा में, कल की सुख की आशा में आज के दुख को झेला तो जा सकता है। लेकिन कल के सुख को निर्मित नहीं किया जा सकता है। कल के आनंद की कल्पना में आज की पीड़ा को सहा जा सकता है लेकिन कल के आनंद को पैदा नहीं किया जा सकता है।

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