सचेतन 193: अज्ञानता भय पैदा करती है 

| | 0 Comments

जो खाली जगह में खड़े होने को राजी हो जाता है वही स्वयं को जान पाता है।

‘मैं’ का तो हमें कोई भी पता नही है। यहाँ तक की मेरा नाम, मेरा घर, मेरा वंश, मेरा राष्ट्र, मेरी जाति, मेरा धर्म यह मेरा होना नहीं है।हमने तो यह सब तोते कि भांति दोहराते हुए अब ग्रंथों में लिखे हैं और शास्त्रों में कहे बात को भी दोहराने लगे हैं कि मैं आत्मा हूँ, मैं परमात्मा हूँ, अहं-ब्रह्मास्मि और-और न मालूम क्या-क्या हम दोहराने लगते हैं। 

यह सब बात आपको सिखाया गया है यहाँ तक की आपके भीतर परमात्मा है और यह भी आपने मान लिया है और हम स्वयं से परिचित होने के वे शब्द प्रयोग करने लगे हैं जो आपके पिता ने, समाज ने, ऋषियों ने, मुनियों ने, साधु ने, संतों ने किसी शब्द के रूप में दिये हैं। 

जब तक बाहर से आए हुए परिचय को हम पकड़ेंगे तब तक उस परिचय का जन्म नहीं हो सकेगा जो हमारा परिचय है। तब तक हम उसे नहीं जान सकेंगे। तब तक उसे जानने का कोई मार्ग नहीं है।हम सांसारिक या आध्यात्मिक परिचय को पकड़ कर सिर्फ़ और सिर्फ़ बाहर की दुनियाँ को खोज सकते हैं अपने आत्म-परिचय को नहीं।  

इसलिए यह बात जितनी झूठी है कि मेरा नाम मैं हूँ उतनी ही यह बात भी झूठी होगी अगर मैं बाहर से सीखा कि मैं आत्मा हूँ, परमात्मा हूं, मैं अविनाशी हूं, मैं कुछ हूं मैं कुछ हूं ये सारी बातें मैं बाहर से देखूं तो ये बातें उतनी ही झूठी होंगी। 

पहली बात झूठी है यह तो हमें समझ में आ जाती है क्योंकि ये बात हजारों वर्ष से दोहराई गई है, लेकिन दूसरी बात भी झूठी है इसे समझने में थोड़ी कठिनाई होती है। क्योंकि तब हम एक अटल अंधकार में छूट जाते हैं और अज्ञान में छूट जाते हैं।

क्योंकि अगर सांसारिक परिचय भी हमारा परिचय नहीं है और तथाकथित आध्यात्मिक परिचय भी हमारा परिचय नहीं है तो फिर हमारा परिचय क्या है? तब हम एक अज्ञान में और अंधकार में छूट जाते हैं और अज्ञान से भय मालूम होता है। अज्ञान से डर मालूम होता है।

मैं अपने को नहीं जानता हूं इस बात के बोध से भयभीत होता है इसलिए हम चित्त से कोई न कोई परिचय तो मान लेना चाहते हैं। गृहस्थ का एक परिचय है और संन्यासी का एक परिचय है ये दोनों परिचय झूठे हैं। इनमें से किसी एक को हम पकड़ कर तृप्ति कर लेना चाहते हैं तो गृहस्थी से कोई छूटता है तो संन्यासी हो जाता है और संन्यास में पकड़ जाता है। और एक तरह के वस्त्रों से छूटता है तो दूसरे तरह के वस्त्रों को स्वीकार कर लेता है और एक तरह के नाम से छूटता है तो दूसरा नाम ग्रहण कर लेता है।

संन्यासी का नाम बदल देते हैं हम दूसरा नाम दे देते हैं उसे। कपड़े बदल देते हैं, दूसरे वस्त्र दे देते हैं उसे। उसका ढंग बदल देते हैं दूसरा ढंग दे देते हैं उसे लेकिन उस रिक्त स्थान में छूटने को कोई राजी नहीं है जहां हमारा कोई परिचय नहीं है न सांसारिक और न आध्यात्मिक। 

उस खाली जगह में खड़े होने को कोई राजी नहीं है। जो उस खाली जगह में खड़े होने को राजी हो जाता है वही केवल स्वयं को जान पाता है। 

जो अपने सब परिचय छोड़ देता है और अपरिचय में खड़ा हो जाता है। जो अपने संबंध में सारे ज्ञान छोड़ देता है और अज्ञान में खड़ा हो जाता है उसी अज्ञान में, उसी नॉट नोइंग में, उसी न जानने में, जब मुझे कुछ भी पता नहीं अपने बावद। और जो भी पता है उसे मैं छोड़ देता हूँ। उसी स्थिति में, उसी क्रांति के क्षण में, वह परिवर्तन घटित होता है जहां स्वयं के बोध का जन्म होता है। 

जब तक मैं किसी भी परिचय को पकड़ता हूँ तब तक उस बोध के पैदा होने की भूमिका खड़ी नहीं होती। जब तक मैं कोई भी सहारा पकड़ता हूँ तब तक उसके गिरने का कोई कारण पैदा नहीं होता जो मेरे भीतर सोया है। जब मैं सब सहारा छोड़ देता हूँ।

एक छोटी सी घटना मुझे स्मरण आती है। बिलकुल काल्पनिक होगी। मैने सुना है कि कृष्ण एक दिन भोजन करते थे और बीच भोजन में उठे और द्वार की तरफ भागे। जो उन्हें भोजन कराते थे उन्होंने कहा क्या करते हैं? कहां भागते हैं बीच भोजन में उठते हैं। उन्होंने कहाः मेरा एक भक्त बहुत कष्ट में पड़ा हुआ है। दुष्ट उसे सता रहे हैं, उसे पत्थर मार रहे हैं। ये कहते वे भागे, द्वार के बाहर भी निकल गए लेकिन द्वार से फिर वापिस लौट आए, भोजन करने बैठ गए। तो जिन्होंने पहला प्रश्न पूछा था उन्होंने पूछा आप लौट आए बीच से। उन्होंने कहा उस भक्त ने खुद भी पत्थर अपने हाथ में उठा लिया है। अब मेरे जाने की वहां कोई जरूरत नहीं रही। अभी लोग उसे मार रहे थे वह निहत्था, असहाय खड़ा हुआ झेल रहा था, मेरी जरूरत थी। अब उसने पत्थर खुद भी उठा लिए हैं अब मेरी कोई भी जरूरत नहीं है। कहानी तो काल्पनिक ही होगी।

लेकिन मनुष्य के जीवन में जो भी सोया है चाहे उसे कोई नाम दें, सत्य कहें, आत्मा कहें, परमात्मा या कोई और नाम दें, कृष्ण कहें, क्राइस्ट कहें या कुछ और कहें। जो भी भीतर सोया है। जब तक आप बेसहारा नहीं हो जायेंगे तब तक उसके उठने और जगने का कोई कारण नहीं है। जब तक आप कुछ पकड़ लेंगे तब तक वह सोया रहेगा और जब आपकी कोई पकड़ नहीं होगी और हाथ खाली हो जाएंगे और आप बेसहारा खड़े हो जाएंगे। जब आपकी कोई सुरक्षा नहीं रह जाएगी, कोई सहारा नहीं रह जाएगा, कोई परिचय, कोई ज्ञान और आप निपट अज्ञान में और बेसहारा खड़े होने का साहस करेंगे, उसी क्षण, उसी क्षण केवल वह जागता है जो हमारे भीतर सोया है। उसी क्षण वहां स्फुरणा होती है। उसी क्षण वहां कोई बीज टूटता है और अंकुरित होता है। उसी क्षण वहां कोई अंधकार टूटता है कोई ज्योति जागती है उसके पहले नहीं। उसके पहले असंभव है। उसके पहले बिलकुल असंभव है क्योंकि उसके पहले हम कोई न कोई पूरक कोई न कोई सब्स्टीट्यूट खोज लेते हैं। हम खोज लेते हैं उसे जो सोया है उसे जागने का कोई कारण नहीं रह जाता। हम पत्थर उठा लेते हैं फिर कठिनाई हो जाएगी। और हम कोई न कोई परिचय पकड़ लेते हैं, कोई न कोई वस्त्र पकड़ लेते हैं, कोई न कोई रूप, कोई न कोई आकृति, कोई न कोई नाम, कोई न कोई शब्द, कोई न कोई सिद्धांत, पकड़ लेते हैं अज्ञान ढक जाता है और ज्ञान के जन्म का कोई कारण नहीं रह जाता। ज्ञान के आगमन के लिए पहला द्वार स्वयं के भीतर अपने समग्र अज्ञान की स्वीकृति है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Sachetan Logo

Start your day with a mindfulness & focus boost!

Join Sachetan’s daily session for prayers, meditation, and positive thoughts. Find inner calm, improve focus, and cultivate positivity.
Daily at 10 AM via Zoom. ‍