सचेतन 195: अहंकार मांगता है न्यूनता

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अहंकार जितना-जितना पुष्ट हो जाता है स्वयं को जानना उतना ही असंभव हो जाता है।

किसी भी चीज को इकट्ठा करने से अहंकार पैदा होता है त्याग करने से प्रशंसा और आदर मिलता हो तो तब भी आपके अहंकार को तृप्ति मिलती है जो चीज हमें अच्छा लगने लगता है फिर हम उसको और इकट्ठा करने लगते हैं। कोई धन इकट्ठा करने लगता है क्योंकि धन के इकट्ठे करने से अहंकार भरता हुआ मालूम पड़ता है। कोई बड़े महल बनाने लगता है, ताजमहल बनाने लगता है, कोई कुछ और करने लगता है क्योंकि उससे अहंकार भरता है। यहाँ तक की कोई त्याग करने लगता है तो भी उसका अहंकार भरने लगता है और हमारा अहंकार बड़ा सूक्ष्म है। वह निरंतर अपने को भरने की कोशिश करता है। अगर त्याग को प्रशंसा मिलती हो आदर मिलता हो तो हम त्याग कर सकते हैं, उपवास कर सकते हैं, धूप में खड़े रह सकते हैं, सिर के बल खड़े रह सकते हैं, शरीर को सुखा सकते हैं। अगर चारों तरफ जय जयकार होता हो तो हम मरने को राजी हो सकते हैं, नहीं तो कोई शहीद मरने को राजी होता। कोई मरने को राजी होता लेकिन अहंकार को अगर तृप्ति मिलती हो तो हम सूली पर भी लटकते वक्त मुस्कुरा सकते हैं और प्रसन्न हो सकते हैं। एक फकीर था, नसरुद्दीन। फकीर तो बाद में हुआ उसके पहले एक राजा के घर वजीर था। राजा और नसरुद्दीन एक दफा शिकार करने एक जंगल में गए। रास्ता भटक गए और एक छोटे से गांव में सुबह-सुबह रास्ता खोजते हुए पहुंचे। भूख लगी थी। एक घर में गए और उन्होंने नाश्ते के लिए प्रार्थना की। उस गरीब आदमी के पास दो-चार अंडे थे। उसने कुछ बनाया अंडों से और उन्हें भेंट किया। चलते वक्त राजा ने कहा कि कितना पैसा हुआ? उस देश की मुद्रा में उस गरीब ने कहा पचास रुपया। राजा बहुत हैरान हुआ। दो-चार अंडों की कीमत तो दो-चार पैसे भी नहीं हैं, पचास रुपया। उसने वजीर नसरुद्दीन से पूछा, क्या बात है। आर ऐग्स सो रेयर इन दिस पार्ट ऑफ दि कंट्री? क्या इस हिस्से में अंडे इतने कम मिलते हैं? नसरुद्दीन ने कहा कि नहीं। ऐग्स आर नॉट रेयर सर, बट किंग्स आर। अंडे नहीं, अंडे तो बहुत मिलते हैं, लेकिन इस हिस्से में राजा बहुत मुश्किल से मिलते हैं। वह राजा पचास रुपया देने की कल्पना भी नहीं करता था लेकिन जैसे ही उसे पता चला राजा बहुत मुश्किल से मिलते हैं उसने पचास रुपये दिया और पचास रुपया इनाम दिए नसरुद्दीन को कि तुमने बहुत अदभुत बात कही। पचास रुपये अंडे के भी चुकाए और पचास रुपये इनाम के भी, क्यों? बड़ी तृप्ति हुई। राजा बहुत मुश्किल से मिलते हैं। यह जो हमारी अस्मिता है रोज-रोज इस बात की तृप्ति खोजती रहती है जिस चीज से आप न्यून होते जाते हैं वही चीज आपके अहंकार की तृप्ति करने लगती है। एक नगर में एक महल ऊपर उठने लगता है जब तक दूसरे मकानों के बराबर होता है तब तक कोई तृप्ति नहीं होती जब दूसरे मकानों से ऊपर उठने लगता है तब तृप्ति होनी शुरू हो जाती है। और जितना ऊपर उठने लगता है और जिस दिन अकेला रह जाता है उस गांव में एक ही रह जाता है ऊंचा मकान उस दिन खूब तृप्ति होने लगती है। तो अहंकार मांगता है न्यूनता। कोई त्याग करने लगता है, कोई धन इकट्ठा करने लगता है, कोई विचार का संग्रह करने लगता है ज्ञानी बनने लगता है और जिस दिन वह ज्ञानी बनता जाता है और अकेला और धीरे-धीरे लगता है वह अकेला ही रह गया मालिक उस ज्ञान का और कोई भी मालिक नहीं है उस दिन बड़ी गहन तृप्ति होने लगती है। लेकिन अहंकार जितना-जितना पुष्ट हो जाता है स्वयं को जानना उतना ही असंभव हो जाता है। जितनी अस्मिता गहरी हो जाती है। यह जो ईगो है, यह जो मैं हूँ, यह जितना सख्त और ठोस हो जाता है उतना ही उसे जानना मुश्किल हो जाता है जो मैं हूं, जो मेरा वास्तविक होना है, क्यों? क्योंकि अस्मिता मेरे द्वारा निर्मित है। अहंकार मेरा निर्माण है और मैं, मैं मेरा निर्माण नहीं हूँ। मेरा होना, मेरी आत्मा, मेरी वास्तविकता मेरा निर्माण नहीं है। अस्मिता, अहंकार मेरा निर्माण है, मेरा क्रिएशन है। एक ने बड़े मकान को बना कर अपने अहंकार को निर्मित किया है, एक ने धन इकट्ठा करके, एक ने राष्ट्रपति तक की यात्रा पूरी करके अपने अहंकार को इकट्ठा किया है, एक ने ज्ञान को इकट्ठा करके अपने अहंकार को इकट्ठा किया है। यह हमारा निर्माण है यह हमने बनाया है और ‘मैं’ मेरा निर्माण नहीं हूँ। तो वह जो मेरे भीतर अनिर्मित है असृष्ट है जो मेरे भीतर, मेरे जानने, मेरे होने के पहले है, मेरे करने के पहले है, मेरे जन्म के पहले जो मेरे भीतर है उसे जानने के लिए जिस अहंकार को मैंने निर्मित किया है, यह बाधा बन जाएगा। इसलिए न तो त्यागी जानता है और न ज्ञानी और न धनी, और न पदलोलुप और न महत्वाकांक्षी। कौन जानता है? जानने के द्वार पर पहली तो बात यही है कि वह जान पाता है जो सब भांति नहीं जानता हो, इसकी स्वीकृति को उपलब्ध होता है। इस स्वीकृति को जानते ही, पहचानते ही कि मैं नही जानता हूँ और कोई पकड़ने का खयाल नहीं रह जाता, मैं खाली हाथ खड़ा रह जाता हूँ। खाली हाथ खड़ा रहा जाता हूँ। खाली मन… मैं आपसे पूछूं कि आपका नाम क्या है आप बहुत जल्दी उत्तर दे देते हैं कि मेरा नाम राम है, विष्णु है या कुछ और है, क्यों? इतने विश्वस्त हैं कि आपका यह नाम है। कभी सोचा कभी विचारा कि यह मैं क्या कह रहा हूँ। एक जल्दी से नाम निकल आता है और हम उत्तर दे देते हैं। उत्तर दे देते हैं बात खत्म हो जाती है। कभी थोड़ी देर ठहर जाएं और सोचें,मेरा नाम है! कुछ तो शायद भीतर एक सन्नाटा हो जाए, एक साइलेंस हो जाए, एक मौन हो जाए,कोई नाम खोजे से न मिले तो एक मौन पैदा हो जाए।

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