सचेतन 140 : श्री शिव पुराण- आख़िर शिवतत्व है क्या?

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शिव ‘सत्’ यानी सत्य है 

श्री शिव पुराण की कथा में ब्रह्मा जी महर्षि नारद से कहते हैं की – हे नारद! तुम सदैव जगत के उपकार में लगे रहते हो। तुमने जगत के लोगों के हित के लिए “आख़िर शिवतत्व है क्या?” बहुत उत्तम बात पूछी है। जिसके सुनने से मनुष्य के सब जन्मों के पापों का नाश हो जाता है। उस परमब्रह्म शिवतत्व का वर्णन मैं तुम्हारे लिए कर रहा हूं। 

शिव तत्व का स्वरूप बहुत सुंदर और अद्भुत है। जिस समय महाप्रलय आई थी और पूरा संसार नष्ट हो गया था तथा चारों ओर सिर्फ अंधकार ही अंधकार था, आकाश व ब्रह्माण्ड तारों व ग्रहों से रहित होकर अंधकार में डूब गए थे, सूर्य और चंद्रमा दिखाई देने बंद हो गए थे, सभी ग्रहों और नक्षत्रों का कहीं पता नहीं चल रहा था, दिन-रात, अग्नि-जल कुछ भी नहीं था। प्रधान आकाश और अन्य तेज भी शून्य हो गए थे। शब्द, स्पर्श, गंध, रूप, रस का अभाव हो गया था, सत्य-असत्य सबकुछ खत्म हो गया था, तब सिर्फ ‘सत्’ ही बचा था। उस तत्व को मुनिजन एवं योगी अपने हृदय के भीतर ही देखते हैं। वाणी, नाम, रूप, रंग आदि की वहां तक पहुंच नहीं है।

‘सत्’ को हम सभी बहुत नाम से जानते हैं, कहते हैं की ब्रह्म सत्य है यानीं वह जो वस्तुतः विद्यमान हो जिसका अस्तित्व और जिसकी सत्ता आपको महसूस होता हो। सच्चाई यही है को हम अपने वास्तविक जीवन में एक भद्र पुरुष और सद्गुणी व्यक्ति के रूप कहते हैं की यह काम मुझसे नहीं हो पा रहा है भगवान जी, अल्लाह और यशु मसीह, मेरे गुरु या फिर हम जिस पर विश्वास करते हैं वही इस काम को पूरा करेगा। 

आप अपने आप को सिर्फ़ कारण या निमित्त मात्र सोच कर ‘सत्’ पर विश्वास करते हैं। जब आप इस विचार मात्र को सत्य मानते हैं की कोई है जो आपको सहयोग करेगा तभी आपके अंदर साधु भाव और सज्जनता आती है। आप धीरज रखकर नित्य निरन्तर और स्थायी रूप से आप विचार मात्र पर विश्वास करते हैं जो आपको प्रशस्त करता है की कोई श्रेष्ठ या उत्तम या यूँ कहें की अच्छा सा है जो हमारा भला करेगा।

यह शुद्ध और पवित्र दृढ़ भाव आपको स्थिर कर देता है और आप वर्तमान परिस्थित या समय में विद्यमान होना शुरू करते हैं आपको ठीक या उचित समझने में आ जाता है। यह वर्तमान में रहने का जीने का सोच आपको मनोहर और सुंदर लगने लगता है यही सत् है। 

आपका ज्ञान विद्वान् और पंडित की तरह होने लगता है यानी आपका लिया हुआ हरेक विचार और प्रतिज्ञा मान्य होता है, आपके आस पास का माहोल पूज्य और आनंदमय बन जाता है। 

सत् वह है जो शाश्वत है नित्य है, सुखस्वरूप महसूस होता है, आनंदस्वरूप का आभास दिलाता है, और ज्ञानस्वरूप बनाता है।

वही असत् का अर्थ है जो नश्वर है यानी नष्ट होनेवाला या यह कहें की जो जो ज्यों का त्यों नहीं रहे जो आपको दुःखरूप में जीवन देता है, जिससे भय लगता है, चिंता होने लगता है की अब क्या होगा, लोग आपसे और आप अपने आस पास के लोगों से  खिन्न रहते है, हर चीज को देखकर राग-द्वेष उत्पन्न होता है आप एक दूसरे को देख करके जलने लगते है और क्लेश का कारण बन जाता है।

असत् प्रायः जब आप अपने रूप को शरीर मात्र समझ कर या ‘मैं’ अहम मानकर कुछ भी सोचते हैं तो दुःख अवश्यंभावी होने लगता है।

शिव तत्व का अर्थ है जब आप उत्तम विचार से सत् का आश्रय लेकर असत् का त्याग कर देते हैं।

सारा दिन इसकी-उसकी बातों में लगे रहे तो असत् में ज्यादा फँसते जाएँगे और ज्यादा दुःखी होते रहेंगे। 

जितना आप ‘सत्’ को ब्रह्म यानी उच्च ऊर्जा या कोई है जो विद्यमान है उसका अस्तित्व और सत्ता पर विश्वास करेंगे आपका शिव तत्व आपके आनंद का कारण या निमित्त बनता जाएगा।

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