सचेतन 2.10: रामायण कथा: सुन्दरकाण्ड – आपके कार्य में उत्कृष्टता स्वाभाविक होनी चाहिये।

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हनुमान्जी की पिंगल नेत्र चन्द्रमा और सूर्यके समान प्रकाशित होती है।

आप को विचार करना है की अगर आपका लक्ष्य और रणनीति सही है तो हर कोई आपके साथ चलने को तैयार है और आपको साथ देंगे। 

मेघ के समान विशालकाय हनुमान्जी अपने साथ खींचकर आये हुए वृक्षों के अंकुर और कोर सहित फूलों से आच्छादित हो जुगुनुओं की जगमगाहट से युक्त पर्वत के समान शोभा पाते थे। वे वृक्ष जब हनुमान्जी के वेग से मुक्त हो जाते ( उनके आकर्षण से छूट जाते), तब अपने फूल बरसाते हुए इस प्रकार समुद्र के जल में डूब जाते थे, जैसे सुहृद्वर्गके लोग परदेश जानेवाले अपने किसी बन्धुको दूरतक पहुंचाकर लौट आते हैं।

आज हनुमान जी का वर्णन ऐसा है की जब हमें किसी कार्य में रुचि हो और उसे करने के हुनर का संगम हो, तो उसमें उत्कृष्टता स्वाभाविक रूप से दिखने लगती है।

हनुमान्जी के शरीर से उठी हुई वायु से प्रेरित हो वृक्षों के भाँति-भाँति के पुष्प अत्यन्त हलके होने के कारण जब समुद्र में गिरते थे, तब डूबते नहीं थे। इसलिये उनकी विचित्र शोभा होती थी। उन फूलों के कारण वह महासागर तारों से भरे हुए आकाश के समान सुशोभित होता था। अनेक रंगकी सुगन्धित पुष्पराशि से उपलक्षित वानर-वीर हनुमान्जी बिजली-से सुशोभित होकर उठते हुए मेघ के समान जान पड़ते थे। उनके वेग से झड़े हुए फूलों के कारण समुद्र का जल उगे हुए रमणीय तारों से खचित आकाश के समान दिखायी देत रहा था।

आकाश में फैलाई गयी उनकी दोनों भुजाएं ऐसी  दिखायी देती थीं, मानो किसी पर्वत के शिखर से पाँच फनवाले दो सर्प निकले हुए हों। उस समय महाकपि हनुमान् ऐसे प्रतीत होते थे, मानो तरंग मालाओं- सहित महासागर को पी रहे हों। वे ऐसे दिखायी देते थे, मानो आकाश को भी पी जाना चाहते हों। वायु के मार्ग का अनुसरण करने वाले हनुमान्जी के बिजली जैसी चमक पैदा करने वाले दोनों नेत्र ऐसे प्रकाशित हो रहे थे, मानो पर्वत पर दो स्थानों में लगे हुए दावानल दहक रहे हों। पिंगल नेत्रवाले वानरों में श्रेष्ठ हनुमान्जी की दोनों गोल बड़ी-बड़ी और पीले रंगकी आँखें चन्द्रमा और सूर्यके समान प्रकाशित हो रही थीं। लाल- लाल नासिका के कारण उनका सारा मुँह लाली लिये हुए था, अतः वह संध्याकालसे संयुक्त सूर्यमण्डल के समान सुशोभित होता था। 

पिंगल का अर्थ संवत्सरों में से एक है।संवत्सर, संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ ‘वर्ष’ होता है। हिन्दू पंचांग में ६० संवत्सर होते हैं। यह 60 संवत्सरों में 51वाँ है। इस संवत्सर के आने पर विश्व में कहीं उत्तम तो कहीं मध्यम वर्षा होती है। इस संवत्सर का स्वामी इन्द्र को माना गया है। गीले नेत्र की महत्ता भी है। 

आकाश में तैरते हुए पवन पुत्र हनुमान्की उठी हुई टेढ़ी पूँछ इन्द्र की ऊँची ध्वजा के समान जान पड़ती थी। महाबुद्धिमान् पवनपुत्र हनुमान्जी की दाढ़ें सफेद थीं और पूँछ गोलाकार मुड़ी हुई थी। आपके शरीर की रचना और हावभाव भी आपको परिभाषित करता है। 

इसलिये हनुमान जी परिधि से घिरे हुए सूर्यमण्डल के समान जान पड़ते थे। उनकी कमर के नीचे का भाग बहुत लाल था। इससे वे महाकपि हनुमान् फटे हुए गेरू से युक्त विशाल पर्वतके समान शोभा पाते थे।ऊपर ऊपरसे समुद्रको पार करते हुए वानरसिंह हनुमान्की काँख से होकर निकली हुई वायु बादल के समान गरजती थी। जैसे ऊपरकी दिशासे प्रकट हुई पुच्छयुक्त उल्का आकाश में जाती देखी जाती है, उसी प्रकार अपनी पूँछके कारण कपिश्रेष्ठ हनुमान्जी भी दिखायी देते थे।

गौरव और विनम्रता का पाठ है सुंदर कांड यह उत्कृष्टता की इच्छा को संयमित करना भी सिखाता है। यह सुंदर कांड हनुमान जी की विनम्रता बाले गुण को दर्शाता है। आप जब कार्य कर रहे हैं तो इसके गूंज से सब कुछ प्रभावित होता है लेकिन आपकी विनम्रता ही सौंदर्य के रूप में झलकता है। हम सबको अपने अवगुण को ठीक करना चाहिए और विनम्र होना चाहिए।

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