सचेतन 214: शिवपुराण- वायवीय संहिता – क्षर और अक्षर पुरुष दोनों भगवान् स्वयं ही हैं।
सचेतन 214: शिवपुराण- वायवीय संहिता – क्षर और अक्षर पुरुष दोनों भगवान् स्वयं ही हैं। क्षर, अक्षर तथा अतीत तीन तत्त्व के बारे में जानकारी किसी भी वस्तु के तीन भेद बताये हैं- जड (प्रकृति ), चेतन (जीव) और उन दोनों का नियन्ता (परमेश्वर)। इन्हीं तीनों को क्रम से पाश, पशु तथा पशुपति कहते हैं। तत्त्वज्ञ पुरुष प्राय: इन्हीं तीन तत्त्व को क्षर, अक्षर तथा उन दोनों से अतीत कहते हैं। क्षर का अर्थ होता है जिसका क्षरण होता हो जो नाशवान् या नष्ट होने वाला है जैसे हम कहते हैं की क्षर देह यहाँ का यहीं रहा जाता है। क्षर तत्त्व का ही नाम पाश है। क्षर पुरुष की उत्पत्ति का बीज है। यानी यह शरीर के बिना हमारे अस्तित्व की उत्पत्ति का बोध होना मुश्किल है। हम अपने शरीर से बंधे हुए हैं यह जड (प्रकृति ) है। दूसरा उससे विपरीत अक्षर पुरुष है।अक्षर शब्द का अर्थ है – ‘जो न घट सके, न नष्ट हो सके’। इसका प्रयोग हमलोग ज़्यादातर ‘वाणी’ या ‘वाक्’ के लिए एवं शब्दांश के लिए करते हैं जो चेतना (जीव) है। अक्षर भगवान की मायाशक्ति है।अनेक संसारी जीवों की कामना और कर्म आदि के संस्कारों का आश्रय हमारे शरीर ही है। अक्षर ही पशु कहा गया है। क्षर और अक्षर पुरुष दोनों भगवान् स्वयं ही हैं। वह मूल द्रव्य जो हमारे इस पृथ्वी पर आने का कारण है यानी इस सृष्टि का मुख्य उपकरण है जिनकी सहायता से सारी सृष्टि और हम सभी की रचना हुई है जिसे महाभूत हैं वैसे प्राचीन भारतीय विचारधारा में सृष्टि के पाँच मूलभूत या महाभूत हैं – पृथ्वी, वायु, जल, अग्नि और आकाश। समस्त भूत अर्थात प्रकृति का सारा विकार तो क्षर पुरुष है यानी हमारा शरीर कूटस्थ है। अर्थात् जो कूट यानी माया है जिसको हम वञ्चना, छल, कुटिलता आदि पर्याय देते हैं यानी कूटस्थ, भारतीय दर्शन में आत्मा, पुरुष, ब्रह्म तथा ईश्वर के लिए प्रयुक्त शब्द। यह परम सत्ता के स्वरूप को व्यक्त करता है। कूटस्थ का अर्थ है कूट का अधिष्ठान अथवा आधार। जो वस्तु ऊपर से अच्छी प्रतीत होती है किंतु अंदर से दोषपूर्ण है, उसे कूट कहते हैं।इस प्रकार माया जीवों के जन्म, मरण, अज्ञान, दु:ख आदि का कारण होने से अनेक दोषों से परिपूर्ण है। माया का अधिष्ठान होने के कारण आत्मा, ब्रह्म अथवा ईश्वर कूटस्थ कहे गए हैं। कूटस्थ का एक दूसरा अर्थ यह भी है कि ढेर की भाँति निष्क्रिय रूप से स्थित हो यानी अक्षर पुरुष ‘जो कुछ नहीं करता है जो घट भी नहीं सकता और जिसका नष्ट होना भी दुर्लभ है। वह केवल ज्ञाता है, ज्ञेय यानी जो जानने योग्य नहीं है।इंद्रिय, वाणी, मन तथा बुद्धि के द्वारा उसका ज्ञान नहीं हो सकता क्योंकि वह इन सबका आधार है। उसी की चेतना के प्रकाश से ये सब भी प्रकाशित होते हैं।