सचेतन 2.83: रामायण कथा: सुन्दरकाण्ड – सीता जी ने दिव्य चूड़ामणि श्री रामचन्द्र जी को दिया

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कल के प्रसंग में एक साधारण अपराध karne  वाले इंद्र के पुत्र जयंत नामक के कौवे पर श्रीराम जी ने ब्रह्मास्त्र चलाया था और फिर जो सीता जी को हर कर लाया उसको वो  कैसे क्षमा कर रहे हैं? तक चर्चा किए थे। 

यहाँ तक था की  सीता जी भगवान राम के बारे में कहती हैं की – “पवनकुमार! नाग, गन्धर्व, देवता और मरुद्गण — कोई भी समरांगण में श्रीरामचन्द्रजी का वेग नहीं सह सकते हैं, फिर भी वे मुझ पर कृपा दृष्टि नहीं कर रहे हैं। 

सीता संवेदना के साथ कहती है कि “वे दोनों पुरुष सिंह, वायु तथा इन्द्र के समान तेजस्वी हैं। यदि वे देवताओं के लिये भी दुर्जय हैं तो किस के लिये मेरी उपेक्षा करते हैं? निःसंदेह मेरा ही कोई महान पाप उदित हुआ है, जिससे वे दोनों शत्रुसंतापी वीर मेरा उद्धार करने में समर्थ होते हुए भी मुझ पर कृपादृष्टि नहीं कर रहे हैं।”

विदेह कुमारी सीता ने आँसू बहाते हुए जब यह करुणायुक्त बात कही, तब इसे सुनकर वानर यूथपति महातेजस्वी हनुमान गहरी सांस की ध्वनि लेते हुए इस प्रकार बोले.. 

अब आप भगवान् श्रीराम, महाबली लक्ष्मण, तेजस्वी सुग्रीव तथा वहाँ एकत्र हुए वानरों को संदेश स्वरूप उनके प्रति आपको जो कुछ कहना हो, वह कहिये। हनुमान जी के ऐसा कहने पर देवी सीता ने फिर कहा— “कपिश्रेष्ठ! मनस्विनी कौसल्या देवी ने जिन्हें जन्म दिया है तथा जो सम्पूर्ण जगत् के स्वामी हैं, उन श्रीरघुनाथजी को मेरी ओर से मस्तक झुकाकर प्रणाम करना और उनका कुशल-समाचार पूछना।

तत्पश्चात् विशाल भूमण्डल में भी जिसका मिलना कठिन है ऐसे उत्तम ऐश्वर्य का, भाँति-भाँति के हारों, सब प्रकार के रत्नों तथा मनोहर सुन्दरी स्त्रियों का भी परित्याग कर पिता-माता को सम्मानित एवं राजी करके जो श्रीरामचन्द्रजी के साथ वन में चले आये, जिनके कारण सुमित्रा देवी उत्तम संतान वाली कही जाती हैं, जिनका चित्त सदा धर्म में लगा रहता है, जो सर्वोत्तम सुख को त्यागकर वन में बड़े भाई श्रीराम की रक्षा करते हुए सदा उनके अनुकूल चलते हैं, जिनके कंधे सिंह के समान और भुजाएँ बड़ी-बड़ी हैं, जो देखने में प्रिय लगते और मन को वश में रखते हैं, जिनका श्री राम के प्रति पिता के समान और मेरे प्रति माता के समान भाव तथा बर्ताव रहता है, जिन वीर लक्ष्मण को उस समय मेरे हरे जाने की बात नहीं मालूम हो सकी थी, जो बड़े-बूढों की सेवा में संलग्न रहने वाले, शोभाशाली, शक्तिमान तथा कम बोलने वाले हैं, राजकुमार श्रीराम के प्रिय व्यक्तियों में जिनका सबसे ऊँचा स्थान है, जो मेरे श्वशुर के सदृश पराक्रमी हैं तथा श्रीरघुनाथजी का जिन छोटे भाई लक्ष्मण के प्रति सदा मुझसे भी अधिक प्रेम रहता है, जो पराक्रमी वीर अपने ऊपर डाले हुए कार्यभार को बड़ी योग्यता के साथ वहन करते हैं तथा जिन्हें देखकर श्रीराघुनाथजी अपने मरे हुए पिता को भी भूल गये हैं (अर्थात् जो पिता के समान श्रीराम के पालन में दत्तचित्त रहते हैं)। उन लक्ष्मण से भी तुम मेरी ओर से कुशल पूछना और वानरश्रेष्ठ! मेरे कथनानुसार उनसे ऐसी बातें कहना, जिन्हें सुनकर नित्य कोमल, पवित्र, दक्ष तथा श्रीराम के प्रिय बन्धु लक्ष्मण मेरा दुःख दूर करने को तैयार हो जायँ। 

सीता जी कहती है हे हनुमान! अधिक क्या कहूँ? जिस तरह यह कार्य सिद्ध हो सके, वही उपाय तुम्हें करना चाहिये। इस विषय में तुम्ही प्रमाण हो—इसका सारा भार तुम्हारे ही ऊपर है। तुम्हारे प्रोत्साहन देने से ही श्रीरघुनाथजी मेरे उद्धार के लिये प्रयत्नशील हो सकते हैं। तुम मेरे स्वामी शूरवीर भगवान् श्रीराम से बारंबार कहना—’दशरथनन्दन! मेरे जीवन की अवधि के लिये जो मास नियत हैं, उनमें से जितना शेष है, उतने ही समय तक मैं जीवन धारण करूँगी। उन अवशिष्ट दो महीनों के बाद मैं जीवित नहीं रह सकती। यह मैं आपसे सत्य की शपथ खाकर कह रही हूँ।

वीर! पापाचारी रावण ने मुझे कैद कर रखा है। अतः राक्षसियों द्वारा शठता पूर्वक मुझे बड़ी पीड़ा दी जाती है। जैसे भगवान विष्णु ने इन्द्र की लक्ष्मी का पाताल से उद्धार किया था, उसी प्रकार आप यहाँ से मेरा उद्धार करें।

अब भक्त श्री हनुमान माता सीता से विदा लेना चाहते है।

मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा। जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा ।।

चूड़ामनि उतारि तब दयऊ। हरष समेत पवनसुत लयऊ ।। 

सीता जी से कहती हैं हे हनुमान: “उन परम पराक्रमी श्री राम के हृदय में यदि मेरे लिये कुछ व्याकुलता है तो वे अपने तीखे सायकों से इन राक्षसों का संहार क्यों नहीं कर डालते? अथवा शत्रुओं को संताप देने वाले महाबली वीर लक्ष्मण ही अपने बड़े भाई की आज्ञा लेकर मेरा उद्धार क्यों नहीं करते हैं?”

ऐसा कहकर सीता ने कपड़े में बँधी हुई सुन्दर दिव्य चूड़ामणि को खोलकर निकाला और इसे श्रीरामचन्द्रजी को दे देना।” ऐसा कहकर हनुमान जी के हाथ पर रख दिया।”

यह कहानी हमारे प्रियतम भगवान् श्रीराम की अपनी शक्ति का प्रयोग करके, उनकी पत्नी सीता देवी को उद्धार करने की है। क्या हनुमान जी यह कार्य संपन्न कर पाएंगे? आइए, आगे जानते हैं।

ध्यान से सुनिए, हनुमान जी की इस कहानी को, जिसमें वे सीता देवी के पास पहुँचते हैं और महान अनुभव का सामना करते हैं। उस परम उत्तम मणिरत्न को लेकर वीर हनुमान जी ने उसे अपनी अङ्गली में डाल लिया। उनकी बाँह अत्यन्त सूक्ष्म होने पर भी उसके छेद में न आ सकी। इससे जान पड़ता है कि हनुमान जी ने अपना विशाल रूप दिखाने के बाद फिर सूक्ष्म रूप धारण कर लिया था।

वह मणि रत्नम लेकर कपिवर हनुमान ने सीता को प्रणाम किया और उनकी प्रदक्षिणा करके वे विनीत भाव से उनके पास खड़े हो गये। सीता जी का दर्शन होने से उन्हें महान हर्ष प्राप्त हुआ था। वे मन-ही-मन भगवान् श्रीराम और शुभलक्षणसम्पन्न लक्ष्मण के पास पहुँच गये थे। उन दोनों का चिन्तन करने लगे थे।

राजा जनक की पुत्री सीता ने अपने विशेष प्रभाव से जिसे छिपाकर धारण कर रखा था, उस बहुमूल्य मणि-रत्न को लेकर हनुमान जी मन-ही-मन उस पुरुष के समान सुखी एवं प्रसन्न हुए, जो किसी श्रेष्ठ पर्वत के ऊपरी भाग से उठी हुई प्रबल वायु के वेग से कम्पित होकर पुनः उसके प्रभाव से मुक्त हो गया हो। तदनन्तर उन्होंने वहाँ से लौट जाने की तैयारी की।

कहेहु तात अस मोर प्रनामा। सब प्रकार प्रभु पूरनकामा ।।

दीन दयाल बिरिदु संभारी। हरहु नाथ मम संकट भारी ।। 

(जानकी जी ने कहा- ) हे तात ! मेरा प्रणाम निवेदन करना और इस प्रकार कहना- हे प्रभु ! यद्यपि आप सब प्रकार से पूर्ण काम है ( आपको किसी प्रकार की कामना नही है), तथापि दीन ( दुःखियो ) पर दया करना आपका विरद है (और मै दीन हूँ ) अतः उस विरद को याद करके, हे नाथ ! मेरे भारी संकट को दूर कीजिए। 

इसी खास अनुभव के साथ, हम इस कथा के अगले अध्याय में जुड़ेंगे। तब तक, ध्यान से सुनते रहिए और आनंद लीजिए।

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