सचेतन 166 : श्री शिव पुराण- उमा संहिता- तपस्या – एक आध्यात्मिक अनुशासन है

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अपने शरीर का तप, वाणी का तप और मन का तप कर लेने से आप तपस्वी बन सकते हैं। 

तपस्या कोई आत्म-यातना नहीं है और तपस्या का मतलब स्वेच्छा से अलगाव और कठिनाई का जीवन जीना भी नहीं है। तपस्या का अर्थ आत्म-संयम और पवित्रता का जीवन जीना है।

जो तपस्या में संलग्न है, उनको अक्सर तपस्वी कहा गया है। जैसे विधार्थी विद्या यानी ज्ञान के अर्जन में संलग्न होता है। जब आप तप करते हैं तो गर्मी या ऊर्जा या ज्ञान या फिर अनुशासन का अनुभव होता है।तपस्या आपको आत्म-अनुशासन की उत्कृष्ट कला सिखाता है। अगर आप अपने शरीर और मन की शुद्धि के लिए आत्म-नियमन करते हैं तो आपको आध्यात्मिक क्रिया करना होता है और आप धीरे धीरे तपस्या के अभ्यास में अपने आपको नैतिक रूप से मजबूत बनते जाते हैं ठीक उसी प्रकार जैसे आग में सोने की चमक बढ़ जाती है।

तपस्या के बारे में बहुत मिथ्या है की हमको आत्म-त्याग करना है या किसी के पापों का प्रायश्चित करना होगा। आपको सिर्फ़ अपने शरीर का तप, वाणी का तप और मन का तप कर लेने से आप तपस्वी बन सकते हैं। 

शरीर के तप के लिए देवताओं, द्विज, गुरु और प्रज्ञा के प्रति आदरभाव और साथ ही शुचिता, सरलता, संयम और अहिंसा को अपने जीवन में अपनाना होगा। शरीर के तप की सिद्धि के बाद आप अपने आप को आध्यात्मिक रूप से फिर से जीवंत पायेंगे। 

शरीर के तप के लिए शरीर की स्वच्छता पहला कदम है। एक तपस्वी से यह भी अपेक्षा की जाती है कि वह अपने व्यवहार में ईमानदार और सच्चा हो। यहां निर्धारित एक और अनुशासन है संयम (ब्रह्मचर्य) जिसका अर्थ है कि एक तपस्वी को अपनी यौन इच्छाओं का गुलाम नहीं होना चाहिए। एक तपस्वी को मन, वचन और कर्म से अहिंसा अर्थात किसी को चोट न पहुँचाने का भी अभ्यास करना चाहिए।

वाणी का तप यानी वाणी को अनुशासन में रखना। ऐसे वचन बोलना जो सत्य हों और जिनसे दूसरों को कोई कष्ट न हो, जो सुखद हों और जो हितकारी हों; और स्वाध्याय का अभ्यास – ये वाणी का तप कहा गया है। आपको नियमित आत्मनिरीक्षण करना होगा की आपने कितना सच और कितना झूठ बोला है और आपके वाणी में कितनी मधुरता और कठोरता है। 

मन की तपस्या यानी मन की शांति, सौम्यता, मौन, आत्म-संयम और अन्तःविचार की पवित्रता – ये सब मन की तपस्या कही गयी है। दूसरे शब्दों में, स्वयं के प्रति तथा दूसरों के प्रति मन का सकारात्मक स्वभाव ही मन की तपस्या है।

हर प्रकार की तपस्या सात्विक होनी चाहिए जो मनुष्य पाखंड और अहंकार से भरे हुए हैं, और जो काम और मोह के बल से प्रेरित हैं, वे शास्त्रों द्वारा निर्दिष्ट नहीं की गई गंभीर तपस्या का अभ्यास करते हैं और इस प्रकार वे अपने शरीर के सभी भौतिक तत्वों के साथ-साथ भीतर रहने वाले परमात्मा को भी प्रताड़ित करते हैं – ऐसे लोगों को गुमराह मानसिकता का व्यक्ति घोषित किया गया है और उन्हें राक्षस के रूप में जाना जाता है।

मनुष्य जो भी तपस्या करे उसे दृढ़तापूर्वक करना चाहिए। इसके अलावा, सभी तपस्याएँ पूर्ण विश्वास के साथ की जानी चाहिए। यह सभी तपस्या प्रवृत्त मार्ग पर चल कर कर सकते हैं यानी सांसारिक कार्यों और बंधनों में रह कर जीवन-यापन करते हुए कर सकते हैं। 

निवृत्ति मार्ग से चलते हुए आप उपवास करके से तपस्याएँ पूरी कर सकते हैं जिसे शास्त्र में सबसे बड़ी तपस्या कागा गया है।निवृत्ति मार्ग के लिए एक कथा बहुत प्रचलित है – एक तोता सोने के पिंजरे में बंद था। उसे बोलना सिखाया जाता था। अच्छा खाना-पीना दिया जाता था। किन्तु तोता बंधन से दुखी था। वह मुक्त होना चाहता था। एक दिन एक साधू आये।उसने पिंजड़े से मुक्ति का मार्ग पूछा। साधु ने बताया कि यदि पिंजड़े से मुक्ति चाहते हो तो इसमें मृतप्राय होकर रहो। कुछ समय तोता मृतप्राय रहा। यह देखकर पिंजड़े के मालिक ने मरा हुआ समझकर उसे छोड़ दिया। उसे पिंजड़े से मुक्ति मिल गयी। संसार से हमें भी मुक्त होना है तो निवृति मार्ग अपनाना चाहिए। 

अहिंसा, सत्‍यभाषण, दान और इन्द्रिय–संयम- इन सबसे बढ़कर तप है और उपवास से बड़ी कोई तपस्‍या नहीं है।

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