सचेतन 175: श्री शिव पुराण- उमा संहिता- तुला-पुरुष दान का महत्व

| | 0 Comments

सत्यभामा ने श्री कृष्ण को देवर्षि नारद को दान में दे दिया था 

ब्राह्मणों को तथा पीड़ित याचकों को संकल्पपूर्वक धनादि वस्तुओं का दान करता है, उससे दाता मनस्वी बन जाता है यानी बुद्धिमान, समझदार, समझदार, स्व-नियंत्रित हो जाता है। लोक यानी समाज में जो-जो अत्यन्त अभीष्ट और प्रिय है, वह यदि घर में हो तो उसे अक्षय बनाने की इच्छावाले पुरुष को गुणवान्, ज्ञानी याचकों को दान करना चाहिये। तुला-पुरुष का दान सब दानों में उत्तम है। जो अपने लिये कल्याण चाहे, उसे तराजू पर बैठना और अपने शरीर से तौली गयी वस्तु का दान करना चाहिये।

दिन में, रात में, दोनों संध्या के समय, दोपहर में, आधी रात के समय तथा भूत, वर्तमान और भविष्य-तीनों कालों में मन, वाणी और शरीर द्वारा किये गये सारे पापों को तुला-पुरुष का दान दूर कर देता है।

पौराणिक संदर्भ में तुला दान की बहुत सारी कथाएं हैं जिसमें एक कथा बहुत अच्छी है की श्री कृष्ण की पत्नी सत्यभामा को अपने रूप पर गर्व था और एक दिन जब नारद जी पधारे तो सत्यभामा ने कहा कि आप मुझे आशीर्वाद दीजिए कि अगले जन्म में भी श्री कृष्ण ही मुझे पति रूप में प्राप्त हों। 

देवर्षि नारद बोले कि यह नियम है कि यदि कोई अपनी प्रिय वस्तु इस जन्म में दान करे तो वह उसे अगले जन्म में वही वस्तु प्राप्त होगी। अत: तुम श्री कृष्ण को दान के रूप में मुझे दे दो तो वे तुम्हें अगले जन्म में अवश्य मिलेंगे।

सत्यभामा ने श्री कृष्ण को देवर्षि नारद को दान में दे दिया। जब नारद जी श्री कृष्ण जी को लेकर जाने लगे तो अन्य रानियों ने उन्हें रोक लिया। उस पर नारद जी ने कहा यदि श्री कृष्ण के बराबर सोना व रत्न दे देंगी तो हम इन्हें छोड़ देंगे। 

तराजू के एक पलड़े में श्री कृष्ण तथा दूसरे पलड़े में सभी रानियां अपने आभूषण चढ़ाने लगीं परन्तु पलड़ा टस से मस नहीं हुआ। यह सुन कर सत्यभामा ने कहा मैंने यदि इन्हें दान किया है तो उबार भी लूंगी। ऐसा कह कर उन्होंने अपने सारे आभूषण तराजू पर चढ़ा दिए परन्तु फिर भी पलड़ा न हिला तो सत्यभामा जी बड़ी लज्जित हुईं।

यह सारा समाचार जब रुक्मणि जी ने सुना तो वह तुलसी पूजन करके उसकी पत्ती ले आईं और उसे पलड़े में रखते ही तुला का वजन बराबर हो गया। देवर्षि नारद तुलसी दल लेकर स्वर्ग को चले गए तथा रुक्मणि जी तुलसी के वरदान की महिमा के कारण वे अपनी व अन्यों के सौभाग्य रक्षा करने में सफल हुईं। तब से तुलसी को वह पूज्य पद प्राप्त हो गया तथा श्री कृष्ण उसे सदा अपने मस्तक पर धारण करते हैं।

इस लीला से प्रेरित होकर भगवान द्वारकाधीश मंदिर के साथ ही एक अन्य मंदिर का निर्माण किया गया है जिसे तुलादान मंदिर के नाम से जाना जाता है। इस मंदिर का नाम तुलादान मंदिर इसलिए है क्योंकि मान्यताओं के अनुसार यही वह स्थान है जहां पर स्त्यभामाजी ने श्रीकृष्ण का तुलादान किया था। यहां मंदिर में भगवान श्रीकृष्ण के ठीक सामने एक बड़ा सा तुला यानी तराजू रखा हुआ है जिस पर तुलादान किया जाता है।

दान दाता पूर्व की ओर मुँह किए हुए तुला के उत्तरी भाग में पद्मासन से बैठता है। अपने सम्मुख स्थापित विष्णु की प्रतिमा को देखता रहता है। विद्वान लोग तुला के दक्षिण भाग पर सुवर्ण खंड रखते हैं। ये सुवर्ण खंड इतने होने चाहिए जो दान दाता के बोझ से कुछ अधिक हों। इस प्रकार कुछ क्षण तुला पर बैठकर दान दाता नीचे उतर आता है। तुला पर रखा हुआ स्वर्ण विद्वानों को अर्पित किया जाता है। इस सुवर्ण से अतिरिक्त भूमि, रत्न और दक्षिणा विद्वानों को दी जानी चाहिए। इस प्रकार तुलादान की संक्षिप्त रूपरेखा यहाँ दिखलाई गई हैं। इसके अतिरिक्त सुवर्णाचल, रौप्याचल और धान्याचल प्रभृति महादान एवं सामान्य दान हैं जो दान के विधानों के प्रतिपादक को  ग्रंथों में देखने चाहिए।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Sachetan Logo

Start your day with a mindfulness & focus boost!

Join Sachetan’s daily session for prayers, meditation, and positive thoughts. Find inner calm, improve focus, and cultivate positivity.
Daily at 10 AM via Zoom. ‍