सचेतन 173 : श्री शिव पुराण- उमा संहिता- दान के लिए विवकेशीलता ज़रूरी है
दान का उद्देश्य सामाजिक कल्याण होना चाहिए
संकल्प पूर्वक कायिक, वाचिक और मानसिक रूप से दान देने का महात्म है। कहते हैं की जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी, अर्थात जिसकी जैसी दृष्टि होती है, उसे वैसी ही मूरत नज़र आती है।यहाँ दान की देने या लेने की भावना ही हमारा दृष्टिकोण है और उसकी उपयोगिता को सिद्ध करना हमारा संकल्प है।वाणी और सद्भावयुक्त व्यवहार युक्त होकर अगर आप कुछ भी देते हैं तो द्वेषभाव भी समाप्त हो सकता है।
प्रमुखता से दान का उद्देश्य सामाजिक कल्याण होना चाहिए। दुखी के प्रति मन से करुणा का भाव रखना दान है। किसी का दुःख दूर हो अथवा कम हो सके ऐसी सलाह देना भी दान है। दुःखी को दिलासा मिले, हिम्मत मिले अथवा वह कुछ समय के लिए दुःख को भूल जाय, ऐसा बोलना भी दान है।
भूखे-प्यासे को अन्न-जल देना दान है। स्वयं किसी को विद्या देना या दिलवाना भी दान है। मार्ग से भटके हुओं को ठीक रास्ता दिखला देना, लोक हित के सुव्यवस्थित कार्य में द्रव्य से, शारीरिक श्रम से मदद करना, बीमार की सेवा-सुश्रूषा करनी या करानी भी दान है। घर, आँगन, मोहल्ला, गाँव को साफ रखना या रखाना सार्वजनिक दान है।
वैसे तो गोदान और भूमिदान-ये पवित्र दान हैं, जो दाता को तो तारते ही हैं, लेनेवालों का भी उद्धार कर देते हैं। सुवर्णदान, गोदान और पृथ्वीदान-इन श्रेष्ठ दान करने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है। तुलादान की बड़ी प्रशंसा की गयी है, गौ और पृथ्वी के दान भी प्रशस्त एवं समान शक्तिवाले हैं। परंतु सरस्वती का दान इन सबसे अधिक उत्तम् है।
समाज में रूढ़िवादिता और अज्ञाता को दूर करने का प्रयत्न करना या दूर कराना और ऐसा प्रयत्न करने वालों को यथाशक्ति सहयोग देना दान है। आज के युग में मनुष्य खुद के दुख से नहीं बल्कि दूसरों के सुख को देखकर दुखी है।
दूसरे के सुखी होने पर या उनको देखकर खुशी होना भी दान है। अपने को हर रोज कुछ नया ज्ञान अथवा अनुभव मिले इसका ध्यान रखना यह भी स्वाध्याय करना श्रेष्ठ दान है।
दान के लिए सम्पत्तिशाली होने की राह देखनी ज़रूरी नहीं है। दान का मूल्य आपके द्वारा कमाई गई संपत्ति के आधार पर नहीं समझना चाहिए वरन् इस बात को समझना चाहिए कि कितनी गहरी सहानुभूति से और कितने विवेक से दान किया गया।
विवेक का अर्थ है सब प्रकर से विचार करके दान देना चाइए जिस विचार, वाणी अथवा कृत्य से अपना या दूसरे का हित हो, निर्मलता प्राप्त हो, उन्नति हो, तो वह पुण्य है।
अविवेशील होकर दिया गया दान ‘पाप’ के रूप भी हो सकता है। जिस विचार, वाणी अथवा कृत्य से अपने या दूसरों के शरीर, मन, बुद्धि, चित्त अथवा व्यक्तित्व को हानि पहुँचे- किसी प्रकार का पतन हो, वह पाप है।
अगर शक्ति और क्षमता प्रदर्शन के लिए या दिखावे के लिए सोचकर या ऐसी बुद्धि रखकर अगर दान देते हैं तो यह ‘प्रमाद’ है प्रमाद एक बहुत बड़ा पाप है, क्योंकि उससे व्यक्तित्व दब जाता है।
दान देने से आपकी बुद्धि प्रबल होती है, वैसे ही वैसे व्यक्तित्व अधिक विकसित होता जाता है। पूर्ण रूप से विकसित व्यक्तित्व ही देवत्व अथवा दिव्यता कहा जाता है और बिलकुल दबा हुआ व्यक्तित्व ही नरक अथवा पतन का द्योतक है।
जिस समाज में दान के लिए बुद्धि का उपयोग नहीं होता है उस समाज में संगठन, सुव्यवस्था, समझौता और प्रगति कदापि सम्भव नहीं होती।
विकसित होना खान, पान, रहन सहन यह आवश्यक है, इसलिए कि इनके द्वारा रक्षा और समाज का विकास होता है। पर जो समाज या मनुष्य खाना, पीना, पहिनना और देखना, इनके लिए ही जीवित रहता है, वह मन का गुलाम है, उसकी बुद्धि, चित्त, व्यक्तित्व बिल्कुल दबे हैं। वह जानवर है। ‘जानवर’ से दान नहीं हो सकता, दान तो देव-देवी ही कर सकते हैं।
स्वदया करो! स्वदया करो! अपने प्रति सच्चे रहो- इसके द्वारा सबकी तरफ सच्चे रहने का प्रयत्न अपने आप हो जाएगा।