सचेतन 171 : श्री शिव पुराण- उमा संहिता- दान देना क्या होता है?
मानसिक रूप से क्षमा का दान देना बहुत ही महत्वपूर्ण है
दान का शाब्दिक अर्थ है – ‘देने की क्रिया’। सभी धर्मों में सुपात्र को दान देना परम् कर्तव्य माना गया है। हिन्दू धर्म में दान की बहुत महिमा बतायी गयी है। आधुनिक सन्दर्भों में दान का अर्थ किसी जरूरतमंद को सहायता के रूप में कुछ देना है।
सामान्यत: आज के युग में दान को एक प्रकार का व्यवसाय माना जाता है एक व्यापार के रूप में जब किसी वस्तु पर से अपना स्वत्व (अधिकार) दूर कर दूसरों का हो जाए तो हम दान समझते हैं।
दान में धन (अर्थ) का अधिक महत्व समझ कर कहा गया है की ‘श्रेष्ठ पात्र देखकर श्रद्धापूर्वक द्रव्य (धन) का अर्पण करने का नाम दान है। ऐसा इसलिए, क्योंकि भौतिक साधनों की संपन्नता से मनुष्य सांसारिक सुख-साधनों को धन से प्राप्त कर लेता है।
श्रेष्ठ दान देने के लिये छह बातों का ध्यान रखना चाहिए – ‘दान लेने वाला, दान देने वाला, श्रद्धायुक्त, धर्मयुक्त, देश और काल। श्रद्धा और धर्मयुक्त होकर अच्छे देश (तीर्थ) या पुण्य स्थल और अच्छे काल (शुभ-मुहूर्त) में अच्छे दान द्वारा सुपात्र को दिया गया दान ही श्रेष्ठ दान कहलाता है।
दान को तीन भाग में रखा गया है – सात्विक, राजस और तामस। जो दान पवित्र स्थान में और उत्तम समय में ऐसे व्यक्ति को दिया जाता है जिसने दाता पर किसी प्रकार का उपकार न किया हो वह सात्विक दान है। अपने ऊपर किए हुए किसी प्रकार के उपकार के बदले में अथवा किसी फल की आकांक्षा से अथवा विवशतावश जो दान दिया जाता है वह राजस दान कहा जाता है। अपवित्र स्थान एवं अनुचित समय में बिना सत्कार के, अवज्ञतार्पूक एवं अयोग्य व्यक्ति को जो दान दिया जात है वह तामस दान कहा गया है।
दान देने के लिये कायिक, वाचिक और मानसिक संकल्प की आवश्यकता है। संकल्पपूर्वक जो सूवर्ण, रजत आदि दान दिया जाता है वह कायिक दान है। अपने निकट किसी भयभीत व्यक्ति के आने पर जौ अभय दान दिया जाता है वह वाचिक दान है। जप और ध्यान प्रभृति का जो अर्पण किया जाता है उसे मानसिक दान कहते हैं।
दान का अर्थ क्षमा भी है। किसी ने अनजाने में कोई नुकसान कर दिया हो- शरीर से मन से, वचन से- तो यह उसकी बुद्धि का अपराध नहीं है, ऐसा समझकर उसके प्रति सहज भाव से क्षमादान करना भी दान का ही एक अंग है।
जान-बूझकर कोई शरीर से, मन से, अथवा वचन से नुकसान करे, तो यह उसकी बुद्धि का अपराध है। इस ‘कृत्य’ को अपराध के रूप में समझना चाहिए, पर क्रोध न करना चाहिए। क्रोध करना अपनी बुद्धि की निर्बलता साबित करने के समान है। हम मानसिक संतुलन को बनाए तो भी यह एक क्षमा का दान हो सकता है।
अपराधी को यों ही छोड़ देना, इसका अर्थ है मानसिक निर्बलता। पर अपराधी को न छोड़ने का अर्थ यह भी नहीं समझना चाहिए कि कानून को अपने हाथ में ले लिया जाय। अपराधी का फटकारने से वह सुधर जायगा, यह विचार भी भ्रमपूर्ण है। इसलिए उपयुक्त अधिकारी के सामने अपराध को प्रकट कर देना, यही उचित मार्ग है।स्वीकार्य की भावना भी दान है पर यह कार्य भी बैर या बदले की भावना से नहीं, वरन् इस उद्देश्य से करना चाहिए कि समाज की व्यवस्था में गड़बड़ी न फैले। इस प्रकार का उच्च उद्देश्य ही वास्तविक क्षमा है। ऐसी उदारता से अपने चित्त को भी शाँति मिलती है।
शास्त्रों में खा गया है की जो सुपात्र ब्राह्यण को भूमि,गौ, रथ, हाथी और सुन्दर घोड़े देता है, उसके पुण्यफल बहुत ही उच्च कोटि का होता है। कहते है की दान देने वाला इस जन्म में और परलोक में भी सम्पूर्ण अक्षय मनोरथोंको पा लेता है तथा अश्वमेधयज्ञ के फलका भी भागी होता है।
विद्या दान – विद्या देना
भू दान – भूमि देना
अन्न दान – खाना देना
कन्या दान – कन्या को विवाह के लिए वर को देना
गो दान – गाय देना आदि
प्रतिदिन सुपात्र लोगों को बड़े-बड़े दान देने चाहिये, वे दान दाता के उद्धारक होते हैं।