सचेतन 176: श्री शिव पुराण- उमा संहिता- द्वेष करने से ही दुःख का साक्षात्कार होता है
हम कब अनुकूलता या प्रतिकूलता की भावना को महसूस करते हैं?
कभी भी किसी जन या पुरुष, देवता, ब्राह्मण और पितृगण से द्वेष करना पाप कहलाता है। द्वेष यानी चित्त को अप्रिय लगने की वृत्ति जैसे चिढ़, शत्रुता, वैर या फिर यूँ कहें की द्वेष वह भाव है जब दुःख का साक्षात्कार होता है। दुःख के होने पर उससे या उसके कारण से दूर जाने, हटने या बचने की प्रेरणा जब आपको होती है तो समझें की द्वेष का पराभव होने लगा है।
द्वेष तो तब भी होता है जब आप कभी किसी से अनिच्छा पूर्ण प्रशंसा की भावना करते हैं यानी जब मन नहीं हो तब भी हम उस बात को उस व्यक्ति को स्वीकारते है और किसी ऐसी चीज़ को पाने की इच्छा करते है जो दूसरे के पास है।
द्वेष का भाव तब भी आता है जब हम दूसरे की सफलता देखकर दुःखी होते हैं। इसलिए द्वेष और आक्रोश घातक पापों में से एक जाना जाता है। किसी क्रिया के प्रति ईर्ष्या महसूस करना, ईर्ष्यापूर्वक प्रशंसा करना, ईर्ष्यालु होना, झूठ मूठ में किसी का दिल लगाना सब एक प्रकार का पाप है।
यह मनुष्य के अंदर और उनके जीवन में अनुकूलता-प्रतिकूलता की भावना के कारण राग-द्वेष उत्पन्न होता है।
हम कब अनुकूलता या प्रतिकूलता की भावना को महसूस करते हैं?
यह सब हमारे इन्द्रिय और उनके विषय का खेल है।इन्द्रिय यानी हमारे श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और घ्राण और उनके विषय यानी शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध।
भागवत गीता में कहा गया है की ‘इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ’।
यानी जब हमारी इन्द्रिय के विषय में अनुकूलता का भाव महसूस होता है तो मनुष्य को उस विषय में ‘राग’ हो जाता है यानी वह उस स्थिति में अपने आप को अनुकूल यानी उस विशेष वातावरण में सुगमता पूर्वक जीवन व्यतीत करने को इक्षा शुरू हो जाती है। हम अपने आपको शारीरिक रूप से रचनात्मक एवं क्रियात्मक परिवर्तन पाते हैं और हमारे प्रक्रिया सकारात्मक होने लगते हैं। अगर यूँ कहें की इस शरीर के अंग उनकी स्थिति या इसमें कोई हलचल हमारे इन्द्रिय के विषय के साथ होने वाली एक प्रक्रिया को बताता है।
इन्द्रियों के विषय में अनुकूलता होने पर बहुत सारे स्थायी बदलावों को प्रक्रिया को हम महसूस करते हैं उर्दू में कहते हैं मुआफिक यानी समान, ठीक ठीक, न अधिक, न कम, मेल खानेवाला, सहायक, प्रसन्न होने की स्थिति। हमारी अनुकूलता के कारण हम सभी पर अपनी कृपा, या अनुग्रहता दिखाते हैं, हर ओर से अभिमुख दिखते हैं। यहाँ तक की हम इसको अपने जीवन का अवसर या उचित समय समझते हैं। हमारा भाव प्रसन्न दिखता है और यह राग है।
जब हमारी इन्द्रिय के विषय में प्रतिकूलता का भाव होने पर उस विषय में ‘द्वेष’ हो जाता है यानी हमारा आचरण हमारी भावना या क्रिया सब एक प्रकार से प्रतिकूलत्व, विपरीतता, विरुद्धता, वैपरीत्य होने लगता है। यही हम कहना शुरू करते हैं की जीवन में क्लेश हो गया है, हमें भय लगने लगता है, मृत्यु जैसा महसूस होने लगता है। कहते हैं विपत्ति हो गई है रोग होने लगा है।
इस प्रकार से हम अपनी इन्द्रिय से सभी विषय को उल्टा समझने लगते है, हमें अज्ञानता आने लगती है। और यहाँ से ही प्रेम का नाश होकर या द्वेष, जड़ता और दुःख शुरू हो जाता है।
यदि ऐसा है तो क्या हमें दुखी होना चाहिए? बिलकुल नहीं।