सचेतन 2.73: रामायण कथा: सुन्दरकाण्ड – धर्म, अर्थ, और काम का पालन करना

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प्रभु राम के लक्षणों और गुणों का वर्णन हमेंशा से धर्म, अर्थ, और काम के तीनों कालों में धर्म का पालन करते हैं। वे सत्य और धर्म के परायण हैं, न्यायसंगत धन का संग्रह करते हैं, और प्रजा के हित में कार्य करते हैं।

वैसे तो धर्म को धारण करना चाहिए, अर्थ अर्जित करना चाहिए, अर्थ के द्वारा अपनी कामनाएं पूर्ण करना चाहिए और फिर योग साधना करते हुए परमात्मा को प्राप्त करो। तभी मानव जीवन का लक्ष्य पूरा हो सकता है। इसलिए धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ही मानव जीवन के आधार हैं।

रामचंद्रजी के सौतेले भाई, लक्ष्मण, भी बड़े तेजस्वी और उनके गुणों के समान हैं। उनमें अंतर सिर्फ इतना है कि लक्ष्मण की कान्ति सोने के समान है और राम का विग्रह श्यामसुंदर है।

विग्रह  का अर्थ है दूर या अलग करना, मूर्ति और विग्रह में अंतर है- हर विग्रह मूर्ति है पर हर मूर्ति विग्रह नहीं। जो मूर्ति प्राण प्रतिष्ठा के साथ पूजी जाय उसे विग्रह कहते हैं।

हनुमान जी राम जी के गुणगान में अब कहते हैं की ऋष्यमूक पर्वत के मूलभाग में, जहां बहुत से वृक्षों से घिरा था, लक्ष्मण के भय से पीड़ित सुग्रीव से मिले।सुग्रीव ने उन दोनों का स्वागत किया और उन्हें अपने बंधुओं से परिचय कराया। इसके बाद राम और सुग्रीव के बीच प्रेम बढ़ा।यह कहानी हमें बताती है कि राम और उनके भाई लक्ष्मण के बीच कितनी मित्रता थी, और कैसे उन्होंने अपने दर्शकों की खोज के लिए पृथ्वी पर भटकते हुए उन बंधुओं को मिला।

शरीर पर वल्कलवस्त्र तथा हाथ में धनुष धारण किए हुए, वे दोनों भाई ऋष्यमूक पर्वत के रमणीय प्रदेश में आये। धनुष धारण करने वाले उन दोनों नरश्रेष्ठ वीरों को वहाँ उपस्थित देख वानरराज सुग्रीव भय से घबरा उठे और उछलकर उस पर्वत के उच्चतम शिखर पर जा चढ़े।

उस शिखर पर बैठने के पश्चात्, वानरराज सुग्रीव ने मुझे ही शीघ्रतापूर्वक उन दोनों बन्धुओं के पास भेजा। सुग्रीव की आज्ञा से, मैंने हाथ जोड़कर उन प्रभावशाली रूपवान् तथा शुभलक्षणसम्पन्न दोनों पुरुषसिंह वीरों की सेवा में हाथ जोड़कर उपस्थित हुआ।

मुझसे यथार्थ बातें जानकर, उन दोनों को बड़ी प्रसन्नता हुई। फिर मैं अपनी पीठ पर चढ़ाकर उन दोनों पुरुषोत्तम बन्धुओं को उस स्थान पर ले गया (जहाँ वानरराज सुग्रीव थे) ‘वहाँ महात्मा सुग्रीव को मैंने इन दोनों बन्धुओं का यथार्थ परिचय दिया। तत्पश्चात् श्रीराम और सुग्रीव ने परस्पर बातें कीं, इससे उन दोनों में बड़ा प्रेम हो गया।

वहाँ उन दोनों यशस्वी वानरेश्वर और नरेश्वरों ने अपने ऊपर बीती हुई पहले की घटनाएँ सुनायीं तथा दोनों ने दोनों को आश्वासन दिया। उस समय लक्ष्मण के बड़े भाई श्रीरघुनाथजी ने स्त्री के लिये अपने महातेजस्वी भाई वाली द्वारा घर से निकाले हुए सुग्रीव को सान्त्वना दी। तत्पश्चात् अनायास ही महान् कर्म करने वाले भगवान् श्रीराम को आपके वियोग से जो शोक हो रहा था, उसे लक्ष्मण ने वानरराज सुग्रीव को सुनाया।। लक्ष्मणजी की कही हुई वह बात सुनकर वानरराज सुग्रीव उस समय ग्रहग्रस्त सूर्य के समान अत्यन्त कान्तिहीन हो गये॥ 

उन आभूषणों को बारंबार देखते, रोते और तिलमिला उठते थे। उस समय दशरथनन्दन श्रीराम की शोकाग्नि प्रज्वलित हो उठी। उस दुःख से आतुर हो वे महात्मा रघुवीर बहुत देर तक मूर्च्छित अवस्था में पड़े रहे। तब मैंने नाना प्रकार के सान्त्वनापूर्ण वचन कहकर बड़ी कठिनाई से उन्हें उठाया। लक्ष्मणसहित श्रीरघुनाथजी ने उन बहुमूल्य आभूषणों को बारंबार देखा और दिखाया। फिर वे सब सुग्रीव को दे दिये॥

‘आर्ये! आपको न देख पाने के कारण श्रीरघुनाथजी को बड़ा दुःख और संताप हो रहा है जैसे ज्वालामुखी पर्वत जलती हुई बड़ी भारी आग से सदा तपता रहता है, उसी प्रकार वे आपकी विरहाग्नि से जल रहे हैं। आपके लिये महात्मा श्रीरघुनाथजी को अनिद्रा (निरन्तर जागरण), शोक और चिन्ता—ये तीनों उसी प्रकार संताप देते हैं, जैसे आहवनीय आदि त्रिविध अग्नियाँ अग्निशाला को तपाती रहती हैं। शरीर में किसी कारण से होने वाली बहुत अधिक जलन।

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