सचेतन 231: शिवपुराण- वायवीय संहिता – प्राण विद्या

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प्राण को प्रखर, पुष्ट, और संकल्प मय बनायें  

हम सभी सचेतन के दौरान ध्यान और प्राणायाम करते समय प्राण की जागरूकता रखें जिससे सारे हमचल, ताल, लय और प्राकृतिक सौंदर्य को हम देख पायेंगे और इसके आनन्द को महसूस भी कर पायेंगे।

हमारी प्राण-शक्ति सक्रिय है और यह प्राणतत्व सर्वत्र नटराज की तरह हरेक वस्तु में निरन्तर नृत्य-निरत करवाता रहता है। प्राणों की शक्ति से जो नृत्य आप महसूस करते हैं वही आपका जीवन है। जीवन-शक्ति प्राण-शक्ति का ही दूसरा नाम है। 

अध्यात्म शास्त्र में प्राण तत्व की गरिमा का भाव भरा उल्लेख है। प्राण की उपासना का आग्रह किया गया है। इसका तात्पर्य इसी प्राणतत्व की लय-तालबद्धता के नियमों को जानना और उससे लाभ उठाना है। 

अपने प्राण को प्रखर, पुष्ट, और संकल्प मय बनाना होगा जिससे आप हर क्रिया में सिद्धि का आधार बना सकते हैं। प्राण को आकर्षित करने में सफलता उन्हें ही मिल सकती हैं, जो इस लय-ताल की विधि को समझते और अपनाते हैं। हमारे सृजनात्मक चिंतन करने के लिए और प्रश्नाकुलता होने के लिए प्राण हमारा साध्य, साधन और माध्यम है। यह चिंतन ही हमारी वैश्विक दृष्टिकोण को उजागर करता है जो समस्याओं के बदले समाधान को ढूँढता है। 

लय-ताल की एकांतता का चमत्कारी प्रभाव देखा जाता है। सेना के पुल पार करते समय उनके कदम के क्रमबद्ध ताल को तोड़ दिया जाता है। ऐसा न किया जाय तो उत्पन्न होने वाली प्रतिध्वनि से पुल के टूटने का खतरा हो सकता है। वेला वाद्य यन्त्र पर एक स्वर को तालयुक्त बारम्बार बजाया जाय तो पुल टूट जायेगा। यह तालबद्धता की शक्ति है। 

तालयुक्त श्वास प्रक्रिया द्वारा ही अन्तरिक्ष में संव्याप्त प्राण-तत्व को अधिक मात्रा में खींचा कर अपने अन्दर भरा जाता है। इस प्रक्रिया में जितनी दक्षता प्राप्त होती जाती है, उतनी ही सामर्थ्य भी बढ़ती जाती है। प्राणाकर्षण का विकसित रूप वह है, जिसमें श्रद्धा निष्ठा का समावेश होता है और जो प्राण तत्व की चेतना को भी आकर्षित करने तथा धारणा करने में समर्थ होता है। 

प्राण तत्व ब्रह्म प्रेरणा बनकर भीतर आता है। 

प्राण विद्या की परिपक्व उच्चस्तरीय अवस्था है। यह है कि प्राण उपासना की विद्या हमारी अपनी संपत्ति है। प्राण के वास्तविक महत्व को समझना, इस शरीर तथा बाहरी जगत में उसके सच्चे कार्य तथा व्यापक प्रभाव को परखना, तथा किसी देवता का जप कर उस की उपासना करना । यह सब सिद्धांत इस भारत भूमि पर ही हमारे पूर्वजों की सात्विक बुद्धि तथा उर्वर मस्तिष्क के कारण ही प्राचीन काल में उत्पन्न हुए तथा अब भी हमें किसी न किसी रूप में दृष्टिगोचर होते हैं।

प्राणविद्या का प्रारम्भिक अंश वह है, जो गहरे, लय-तालबद्ध श्वास-प्रश्वास के अभ्यास से आरम्भ होता है। इसमें श्रद्धा की मात्रा उतनी बढ़ी-चढ़ी नहीं रह पाती। मात्र स्वास्थ्यप्रद, स्फूर्तिदायक प्राणशक्ति को भीतर गहराई तक खींचने और धारणा करने का ही भाव रहता है। आरम्भिक अभ्यासियों के लिए इतना ही पर्याप्त है। 

हल्के और विश्रृंखलित श्वास-प्रश्वास से फेफड़ों तक के सारे हिस्से लाभान्वित नहीं हो पाते। इसीलिए जो लोग गहरे श्वास-प्रश्वास का पर्याप्त अभ्यास नहीं करते और न ही, सुदीर्घ श्वसन को प्रेरित करने वाला श्रम करते, वे शरीर के पोषण के लिए वाँछित पर्याप्त प्राण-शक्ति तक वायुमण्डल से नहीं खींच पाते और बीमार पड़ जाते हैं। इसलिए सुदीर्घ श्वास लेने योग्य परिश्रम करना, अथवा उसका नियमित अभ्यास करना स्वास्थ्य-लाभ एवं स्वास्थ्य-संरक्षण के लिए अनिवार्य है। यह शरीर-शक्ति की बात हुई।

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