सचेतन 224: शिवपुराण- वायवीय संहिता – रजोगुण के कारण सुख की कल्पना प्रारंभ होती है
मैं सुखी हूँ! यह धर्म समझ कर आसक्त होने से आपके ज्ञान की वृत्ति धीरे धीरे अभिमान की तरफ़ बढ़ने लगती है
आप अपने ज्ञानशक्ति और अपने कला के द्वारा क्रिया करते हैं तो आपका गुण विकसित होकर बाहर निकलता है। यह गुण तीन रूप में प्रकट होता है जो सत्त्व, रज और तम के रूप में आपके प्रकृति को बताता है।
आप अपने गुण कारण अपने शरीर से बांधे रहते हैं यह गुण ही हमारे जीवन में माया रूपी आवरण से भ्रम पैदा करता ।
इन तीनों गुणों मे सत्त्वगुण तो निर्मल होता है और इसका आवरण सुख की अनुभूति और ज्ञान का विस्तार करता है। इस गुण से आप अपने उच्चतम मनोवृत्ति में प्रतिष्ठत होते हैं। आपको स्वयं का आत्म सम्मान या आपकी मौजूदगी महसूस होती है। यह सत्त्वगुण के कारण आप प्रभावशाली और उद्यमशील हो जाते हैं।
लेकिन जब हम स्वयं के बारे में नहीं जान पाते हैं तो अज्ञानता के कारण जो भी कर्म कर रहे होते हैं उससे हमारे अंदर अहंकार और स्वार्थ जैसे मूल दोष उत्पन्न होता है। आप जिसे घमंड कहते हैं की यह कार्य मैंने ही तो किया है और ऐसे माया के आवरण के कारण आपके अंदर रजोगुण और तमोगुण उत्पन्न होना शुरू हो जाता है।
रजो गुण जब बढ़ता है तो हम विषयों में सुख की कल्पना और विक्षेप करना प्रारंभ कर देते हैं। हम अपने कर्मों से बहुत प्रयत्न करते रहते हैं और इन प्रयन्त के फलस्वरूप हमको इष्ट विषय और वस्तु की प्राप्ति भी होती है। तब क्षणभर के लिये विक्षेपों की शान्ति हो जाती है। उस शान्त स्थिति में आत्मा का आनन्द भी अभिव्यक्त होता है।
परन्तु हम यही समझने लगते हैं की वह सुख उसे विषय या वस्तु से प्राप्त हुआ है और मन कहता है की तुम उसी सुख वृत्ति के साथ तादात्म्य हो जाओ। मैं सुखी हूँ मन का भाव और यह सुखवृत्ति क्षेत्र आपका धर्म बनाने लगता है उसे आप अपना धर्म समझ कर उसमें आसक्त हो जाते हैं और इस गुण के न्यूनाधिक्य कारण से व्यक्तियों की बौद्धिक क्षमता एक समान नहीं रहती है आपके ज्ञान की वृत्ति धीरे धीरे अभिमान की तरफ़ बढ़ने लगता है और आप आसक्ति के बन्धन में बंध जाते हैं।
वेशक आप अपने प्रयत्नों के फलस्वरूप इष्ट विषय की प्राप्ति कर तो लेते हैं लेकिन आपकी बुद्धि और स्वभाव स्थिर नहीं हो पाती होती है।
अब तमो गुण को परखें तो पायेंगे की यह गुण आपके देहाभिमानियों को मोहित करके रखता है।आपके मन में बहुत सारी कामनाएँ पैदा होती है जिसे हम ख़याली प्लाव भी कहते हैं। और इस कामना के कारण मनुष्य को जो करना चाहिये, वह नहीं करता और जो नहीं करना चाहिये, वह कर बैठता है। इस प्रकार कामना देहाभिमानी कहलाती है जो पुरुष को मोहित कर देती है।
आप इन कामना के कारण क्रोध से भरे होते हैं। इस क्रोध से सम्मोह होकर सिर्फ़ मूढ़भाव ही उत्पन्न होता है। यदि कामना में बाधा न पहुँचे, तो कामना से लोभ और लोभ से सम्मोह उत्पन्न होता है। तात्पर्य यह कि कामना से पदार्थ न मिले तो ‘क्रोध’ उत्पन्न होता है और पदार्थ मिले तो ‘लोभ’ उत्पन्न होता है। उनसे फिर ‘मोह’ उत्पन्न होता है। कामना रजोगुणका कार्य है और मोह तमोगुणका कार्य।