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निशाचरी लंका ने गूढ़ रहस्य का बखान करते हुए हनुमान्जी से कहा की साक्षात् स्वयम्भू ब्रह्माजी ने उन्हें बताया था की जब कोई वानर तुझे अपने पराक्रम से वश में कर ले, तब तुझे यह समझ लेना कि अब राक्षसों पर बड़ा भारी भय आ पहुँचा है। वानरेश्वर! राक्षसराज रावण के द्वारा पालित यह सुन्दर पुरी स्त्री अभिशाप से ही नष्टप्राय हो चुकी है। अब हनुमान्जी का लंकापुरी एवं रावण के अन्तःपुर में प्रवेश का वर्णन सुनिए- इच्छानुसार रूप धारण करनेवाली श्रेष्ठ राक्षसी लंकापुरीको अपने पराक्रमसे परास्त करके महातेजस्वी महाबली महान् सत्त्वशाली वानरशिरोमणि कपिकुंजर हनुमान् बिना दरवाजे के ही रात में चहारदीवारी फाँद गये और लंकाके भीतर घुस गये। कपिराज सुग्रीव का हित करने वाले हनुमान्जी ने इस तरह लंकापुरी में प्रवेश करके मानो शत्रुओं के सिरपर अपना बायाँ पैर रख दिया। प्रबिसि नगर कीजे सब काजा। हृदयँ राखि कौसलपुर राजा।। गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिंधु अनल सितलाई।। राक्षसी लंका ने कहा की अयोध्यापुरी के राजा श्री रघुनाथजी को हृदय में रखते हुए नगर में प्रवेश करके सब काम कीजिए। उसके लिए विष अमृत हो जाता है, शत्रु मित्रता करने लगते हैं, समुद्र गाय के खुर के बराबर हो जाता है, अग्नि में शीतलता आ जाती है। सत्त्वगुणसे सम्पन्न पवनपुत्र हनुमान् उस रात में परकोटे के भीतर प्रवेश करके बिखेरे गये फूलों से सुशोभित राजमार्ग का आश्रय ले उस रमणीय लंकापुरी की ओर चले। जैसे आकाश श्वेत बादलों से सुशोभित होता है, उसी प्रकार वह रमणीय पुरी अपने श्वेत मेघ से दृश्य गृहों से उत्तम शोभा पा रही थी। वे गृह अट्टहासजनित उत्कृष्ट शब्दों तथा वाद्यघोषों से मुखरित थे। उनमें वज्रों तथा अंकुशोंके चित्र अंकित थे और हीरों के बने हुए झरोखे उनकी शोभा बढ़ाते थे। उस समय लंका श्वेत बादलों के समान सुन्दर एवं विचित्र राक्षस-गृहों से प्रकाशित हो रही थी। उन गृहों में से कोई तो कमल के आकार में बने हुए थे। कोई स्वस्तिक के- चिह्न या आकार से युक्त थे और किन्हीं का निर्माण वर्धमान संज्ञक गृहों के रूप में हुआ था। वे सभी सब ओर से सजाये गये थे। गरुड़ सुमेरु रेनु सम ताही। राम कृपा करि चितवा जाही॥ अति लघु रूप धरेउ हनुमाना। पैठा नगर सुमिरि भगवाना॥ और हे गरुड़जी! सुमेरु पर्वत उसके लिए रज के समान हो जाता है, जिसे श्री रामचंद्रजी ने एक बार कृपा करके देख लिया। तब हनुमान्जी ने बहुत ही छोटा रूप धारण किया और भगवान् का स्मरण करके नगर में प्रवेश किया। वानरराज सुग्रीव का हित करनेवाले श्रीमान् हनुमान् श्रीरघुनाथ जी की कार्य-सिद्धिके लिये विचित्र पुष्पमय आभरणों से अलंकृत लंका में विचरने लगे। उन्होंने उस पुरी को अच्छी तरह देखा और देखकर प्रसन्नता का अनुभव किया। उन कपिश्रेष्ठ ने जहाँ-तहाँ एक घर से दूसरे घर पर जाते हुए विविध आकार-प्रकार के भवन देखे तथा हृदय, कण्ठ और मूर्धा-इन तीन स्थानोंसे निकलने वाले मन्द, मध्यम और उच्च स्वरसे विभूषित मनोहर गीत सुने। अगर आपको जीवन में सर्व कार्य सिद्धि को हनुमान जी की तरह से सिद्ध करना ही या किसी भी साधना मे सफलता प्राप्त करना हो तो सबसे पहले सुख और शांति की अनुभूति का भाव बनाना होगा। कार्य सिद्धि का अर्थ- ‘कार्य’ शब्द का अर्थ है प्रयास और ‘सिद्धि’ का अर्थ है पूर्ति या सफलता। इक्षा पूरा करने के लिए मन में सकारात्मक बदलाव लेन की शक्ति का नाम ही हनुमान है। उन्होंने स्वर्गीय अप्सराओं के समान सुन्दरी तथा काम-वेदना से पीड़ित कामिनियोंकी करधनी और पायजेबों की झनकार सुनी।इसी तरह जहाँ-तहाँ महामनस्वी राक्षसों के घरों में सीढ़ियों पर चढ़ते समय स्त्रियों की कांची और मंजीर की मधुर ध्वनि तथा पुरुषों के ताल ठोकने और गर्जने की भी आवाजें उन्हें सुनायी दीं। राक्षसों के घरों में बहुतों को तो उन्होंने वहां मंत्र जपते हुए सुना और कितने ही निशाचरों को स्स्वाध्याय में तत्पर देखा। कई राक्षसों को उन्होंने रावण की स्तुति के साथ गर्जना करते और निशाचरों की एक बड़ी भीड़ को राजमार्ग रोककर कड़ी हुई देखा। नगरके मध्यभाग में उन्हें रावण के बहुत-से गुप्तचर दिखायी दिये। उनमें कोई योग की दीक्षा लिये हुए, कोई जटा बढ़ाये, कोई मूड़ मुँड़ाये, कोई गोचर्म या मृगचर्म धारण क कोई नंग-धड़ंग थे। कोई मुठ्ठीभर कुशोंको ही किये और अस्वरूपसे धारण किये हुए थे। किन्हींका अग्निकुण्ड ही आयुध था। किन्हींके हाथमें कूट या मुद्गर था। कोई डंडेको ही हथियाररूपमें लिये हुए थे।