सचेतन 2.105: भगवान रुद्र ने जैसे त्रिपुर को जलाया था, उसी प्रकार हनुमान जी ने लंका नगरी को जला दिया

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हनुमान ने लंका नगरी को स्वयम्भू ब्रह्माजी के रोष से नष्ट किया था  

“हनुमान जी की लंका में लीला” 

नमस्कार श्रोताओं! स्वागत है “धर्म की कहानियां” में, जहां हम आपको पौराणिक कथाओं की अद्भुत दुनिया में ले जाते हैं। आज की हमारी कहानी है भगवान हनुमान और लंका दहन। तो चलिए, इस दिव्य कथा की शुरुआत करते हैं।

जैसे भगवान रुद्र ने पूर्वकाल में त्रिपुर को जलाया था, उसी प्रकार महात्मा हनुमान जी ने भी अपनी अद्वितीय शक्ति का प्रदर्शन करते हुए लंका नगरी को जला दिया। हनुमान जी की लगाई हुई आग ने लंका के पर्वत-शिखरों को अपने प्रचंड रूप में घेर लिया।

तारकाक्ष, विद्युन्माली और कमलाक्ष नामक असुर भाइयों की तिकड़ी त्रिपुरासुर है , जो असुर तारकासुर के पुत्र थे। इन तीनों ने कठोर तपस्या शुरू कर दी। तब उन्हें ब्रह्मा द्वारा तीन किले: सोना, चांदी और लोहा प्राप्त करने का वरदान दिया गया, जिससे देवता नाराज हो गए। तब विष्णु ने उन्हें दुष्ट बनाने के लिए एक नया धर्म बनाया और असुरों को मारने का उद्देश्य भगवान शिव ने अपने ऊपर ले लिया, जिसमें युद्ध के मैदान में तीन दिन लगे, अंत में त्रिपुरासुर को मार डाला और तीन शहरों को नष्ट कर दिया। यह कार्तिक माह की पूर्णिमा के दिन हुआ और इसलिए इस दिन को त्रिपुरारी पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है।त्रिपुरासुर की कथा का उल्लेख सर्वप्रथम कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय संहिता में मिलता है – असुरों के तीन गढ़ थे; सबसे निचला लोहे का था, फिर एक चांदी का, फिर एक सोने का। देवता उन्हें जीत नहीं सकते थे; उन्होंने उन्हें घेरकर जीतना चाहा; इसलिए वे कहते हैं – जो ऐसा जानते हैं और जो नहीं जानते, दोनों कहते हैं – ‘घेराबंदी करके वे महान गढ़ों को जीतते हैं।’ उन्होंने एक बाण तैयार किया, अग्नि को नोक , सोम को गर्त, विष्णु को डंडा। उन्होंने कहा, ‘इसे कौन चलाएगा?’ ‘ रुद्र ‘, उन्होंने कहा, ‘रुद्र भयंकर हैं, उन्हें इसे चलाने दो।’ उन्होंने कहा, ‘मुझे एक वरदान चुनने दो; मुझे पशुओं का अधिपति बनने दो।’ इसलिए रुद्र पशुओं के अधिपति हैं। रुद्र ने इसे जाने दिया; इसने गढ़ों को चीर दिया और असुरों को इन लोकों से दूर भगा दिया। -कृष्ण यजुर्वेद, तैत्तिरीय संहिता, 6.2.3।

जब हनुमान जी ने अपनी पूंछ में लगी आग को लंका में छोड़ा, तो वह आग चारों ओर तेजी से फैलने लगी। हवा का सहारा पाकर वह आग इतनी बढ़ गई कि उसका रूप प्रलयकालीन अग्नि के समान दिखने लगा। उसकी ऊँची लपटें स्वर्गलोक को स्पर्श करने लगीं। लंका के भवनों में लगी आग की ज्वाला में धूम का नाम भी नहीं था। राक्षसों के शरीररूपी घी की आहुति पाकर उसकी ज्वालाएँ और भी प्रचंड हो उठीं।

समूची लंका नगरी को अपनी लपटों में लपेटकर फैली हुई वह प्रचंड आग करोड़ों सूर्यों के समान प्रज्वलित हो रही थी। मकानों और पर्वतों के फटने आदि से होने वाले नाना प्रकार के धड़ाकों के शब्द बिजली की कड़क को भी मात कर रहे थे। उस समय वह विशाल अग्नि ब्रह्माण्ड को फोड़ती हुई-सी प्रकाशित हो रही थी।

लंका के निवासी दीनभाव से तुमुल नाद करते हुए फूट-फूटकर रोने लगे। वे बोले—’हाय रे बप्पा! हाय बेटा! हा स्वामिन्! हा मित्र! हा प्राणनाथ! हमारे सब पुण्य नष्ट हो गये।’ इस तरह भाँति-भाँति से विलाप करते हुए राक्षसों ने बड़ा भयंकर एवं घोर आर्तनाद किया।

हनुमान जी के गरजते  हुए आवाज़ निकाल रहे थे। हनुमान जी के क्रोध-बल से अभिभूत हुई लंका नगरी आग की ज्वाला से घिर गई थी। उसके प्रमुख-प्रमुख वीर मार डाले गये थे। समस्त योद्धा तितर-बितर और उद्विग्न हो गये थे। इस प्रकार वह पुरी शाप से आक्रान्त हुई-सी जान पड़ती थी। महामनस्वी हनुमान ने लंका नगरी को स्वयम्भू ब्रह्माजी के रोष से नष्ट हुई पृथ्वी के समान देखा। वहाँ के समस्त राक्षस बड़ी घबराहट में पड़कर त्रस्त और विषादग्रस्त हो गये थे।

पवनकुमार वानरवीर हनुमान जी उत्तमोत्तम वृक्षों से भरे हुए वन को उजाड़कर, युद्ध में बड़े-बड़े राक्षसों को मारकर तथा सुंदर महलों से सुशोभित लंका नगरी को जलाकर शांत हो गये। महात्मा हनुमान बहुत-से राक्षसों का वध और बहुसंख्यक वृक्षों से भरे हुए प्रमदावन का विध्वंस करके निशाचरों के घरों में आग लगाकर मन-ही-मन श्रीरामचन्द्रजी का स्मरण करने लगे।

तत्पश्चात सम्पूर्ण देवताओं ने वानरवीरों में प्रधान, महाबलवान्, वायु के समान वेगवान्, परम बुद्धिमान् और वायुदेवता के श्रेष्ठ पुत्र हनुमान जी का स्तवन किया। उनके इस कार्य से सभी देवता, मुनिवर, गन्धर्व, विद्याधर, नाग तथा सम्पूर्ण महान् प्राणी अत्यन्त प्रसन्न हुए। उनके उस हर्ष की कहीं तुलना नहीं थी।

हनुमान जी की विजय चारों ओर हो रही थी 

श्रेष्ठ भवनों के विचित्र शिखरपर खड़े हुए वानरराजसिंह हनुमान अपनी जलती पूँछ से उठती हुई ज्वाला-मालाओं से अलंकृत हो तेजःपुञ्ज से देदीप्यमान सूर्यदेव के समान प्रकाशित होने लगे। इस प्रकार सारी लंका नगरी को पीड़ा देकर वानरशिरोमणि महाकपि हनुमान ने उस समय समुद्र के जल में अपनी पूँछ की आग बुझायी।

तत्पश्चात लंका नगरी को दग्ध हुई देख देवता, गन्धर्व, सिद्ध और महर्षि बड़े विस्मित हुए। उस समय वानरश्रेष्ठ महाकपि हनुमान को देख ‘ये कालाग्नि हैं’ ऐसा मानकर समस्त प्राणी भय से थर्रा उठे।

भगवान हनुमान के इस अद्भुत पराक्रम और साहस की कथा सुनकर हम सभी को उनके धैर्य और वीरता से प्रेरणा मिलती है। इस दिव्य कथा को सुनने के लिए धन्यवाद। अगले एपिसोड में हम एक और रोमांचक पौराणिक कथा के साथ फिर मिलेंगे। तब तक के लिए, जय श्री राम!

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