सचेतन :20. श्रीशिवपुराण- भगवान शिव की पूजा मूर्ति में और लिंग में भी क्यों की जाती है ?
सचेतन :20. श्रीशिवपुराण- भगवान शिव की पूजा मूर्ति में और लिंग में भी क्यों की जाती है ?
Sachetan:Why is Lord Shiva worshiped in idol as well as in Linga?
विद्येश्वरसंहिता
यदि वेदार्थ ज्ञान से श्रवण, कीर्तन तथा मनन की साधना करना असम्भव हो तो क्या करें?
सूतजी कहते हैं- शौनक ! जो श्रवण, कीर्तन और मनन – इन तीनों साधनों के अनुष्ठान में समर्थन हो, वह भगवान् शंकर के लिंग एवं मूर्ति की स्थापना करके नित्य उसकी पूजा करे तो संसार-सागर से पार हो सकता है। उसके लिये भक्तिभाव, पूआ और व्यंजनों से युक्त भाँति-भाँति नैवेद्य, राजोपचार, नमस्कार तथा यथाशक्ति जप, से भगवान् शिव लिंग एवं मूर्ति को चढ़ाये। प्रदक्षिणा, नमस्कार तथा यथाशक्ति जप करे आवाहन से लेकर विसर्जन तक सारा कार्य प्रतिदिन भक्ति भाव से सम्पन्न करे।
ऋषियोंने पूछा- मूर्तिमें ही सर्वत्र देवताओं की पूजा होती है (लिंग में नहीं), परंतु भगवान् शिव की पूजा सब जगह मूर्ति में और लिंग में भी क्यों की जाती है ?
सूतजीने कहा- मुनीश्वरो ! तुम्हारा यह प्रश्न तो बड़ा ही पवित्र और अत्यंत अद्भुत है। इस विषय में महादेव जी ही वक्ता हो सकते हैं। दूसरा कोई पुरुष कभी और कहीं भी इसका प्रतिपादन नहीं कर सकता। इस प्रश्न के समाधान के लिये भगवान शिव ने जो कुछ कहा है और उसे मैंने गुरूजी के मुख से जिस प्रकार सुना है उसी तरह क्रमशः वर्णन करूँगा। एकमात्र भगवान शिव ही ब्रह्म रूप होने के कारण की ‘निष्कल’ (निराकार) कहे गये हैं। रूपवान होने के कारण उन्हें ‘सकल’ भी कहा गया है। इसलिये वे सकल और निष्कल दोनों हैं। शिव के निष्कल निराकार होने के कारण ही उनकी पूजा का आधारभूत लिंग भी निराकार ही प्राप्त हुआ है। अर्थात् शिवलिंग शिवके निराकार स्वरूपका प्रतीक है। इसी तरह शिवके सकल या साकार होनेके कारण उनकी पूजाका आधारभूत विग्रह साकार प्राप्त होता है अर्थात् शिवका साकार-विग्रह उनके साकार स्वरूपका प्रतीक होता है। सकल और अकल (समस्त अंग- आकारसहित साकार और अंग आकारसे सर्वथा रहित निराकार) रूप होनेसे ही वे ‘ब्रह्म’ शब्दसे कहे जानेवाले परमात्मा हैं। यही कारण है कि सब लोग लिंग (निराकार) और मूर्ति (साकार) दोनोंमें ही सदा भगवान् शिवकी पूजा करते हैं। शिवसे भिन्न जो दूसरे दूसरे देवता हैं, वे साक्षात् ब्रह्म नहीं हैं। इसलिये कहीं भी उनके लिये निराकार लिंग नहीं उपलब्ध होता ।
हम मनुष्य और हमारे आस पास के प्राकृतिक संपदा का भी निराकार और साकार स्वरूप है
हमारा शकल सूरत ढाँचा साकार स्वरूप है। हमारे गुण अवगुण और सोच द्रष्टा निराकार स्वरूप है। हम प्रकृति के हर रूप में इसी का दर्शन करते हैं, सागर की उछलती लहरों के रूप में कौन हंसता है, रिमझिम बरसात किसके कारण होती है, शीतल हवा के झोंकों के रूप में किसका स्पर्श होता है, फूलों में किसकी सुगंध होती है। यही तो परमात्मा का विश्व रूप दर्शन है, यह कठिन हो सकता है किन्तु उस दिशा में तो जाना ही है। क्योंकि सगुण में ग्राह्यता होती है तो निर्गुण में व्यापकता होती है। सगुण से निर्गुण की ओर जाना ही तो अध्यात्म है और सद्गुरु को ईश्वर तुल्य मानकर पूजना ही साकार भक्ति या सगुण भक्ति है।
तात्पर्य यह है कि ईश्वर को साकार रूप में देखने के लिए एक अलौकिक व दिव्य दृष्टि की आवश्यकता होती जो केवल सद्गुरु की कृपा से ही प्राप्त होती है। हम भाग्यशाली हैं कि सद्गुरु सदा ही निराकार एवं साकार दोनों रूपों में हमारे अंग-संग रहते हैं। यहां सद्गुरु शरीर रूप में निराकार प्रभु परमात्मा का ही स्वरूप है, अतः इसके दोनों ही रूप हैं और दोनों की ही पहचान है। जब हम सद्गुरु को इसके निराकार रूप में याद करते हैं तो सद्गुरु और निराकार परमात्मा में कोई अन्तर कोई भेद नहीं रखते हैं और एक के प्रति की जाने वाली प्रार्थना दूसरे तक स्वयं पहुंच जाती है।