सचेतन :37. श्री शिव पुराण- कर्म का संचय और उसके भोगों का निर्धारण
सचेतन :37. श्री शिव पुराण- कर्म का संचय और उसके भोगों का निर्धारण
Sachetan: Accumulation of Karma and Determination of its Enjoyments
विचार से कर्म की उत्पत्ति होती है, कर्म से आदत की उत्पत्ति होती है, आदत से चरित्र की उत्पत्ति होती है और चरित्र से आपके प्रारब्ध की उत्पत्ति होती है। यहाँ तक की हमारे विचारों, शब्दों, कार्यों और उन कार्यों पर भी लागू होता है जो हमारे निर्देशों पर दूसरे किया करते हैं।
प्रारब्ध कर्म का एक विशेष अंश है, जो हमारे भोगों का निर्धारण करता है। जीव स्थूल देह में नवीन कर्म करता रहता है, यह संचितकर्म कहलाते हैं। संचितकर्म में से एक अंश हमें प्रारब्ध कर्म की ओर ले जाता है। प्रारब्ध कर्म सुख, दुःख, हानि, लाभ हमारा से व्यवसाय, जाति, आयु और भोग का निर्धारण होता है।कर्मो के भौतिक परिणामों के संचित प्रतिफल में ही प्रारब्ध रूप व्याप्त होते हैं l इसका भोग तीन प्रकार से होता है –
अनिच्छा से -वे बातें जिन पर मनुष्य का वश नहीं और न ही विचार किया हो जैसे भूकंप आदि.
परेच्छा से -दूसरों के द्वारा दिया गया सुख दुःख .
स्वेच्छा से -इस समय मनुष्य की बुद्धि ही वैसी हो जाया करती है, जिससे वह प्रारब्ध के वशीभूत अपने भोग के लिये स्वयं कारक बन जाता है; किसी विशेष समय में विशेष प्रकार की बुद्धि हो जाया करती है तथा उसके अनुसार निर्णय लेना प्रारब्ध है
प्रारब्ध में न हो तो मुँह तक पहुँच कर निवाला भी छीन जाता है।
भगवान के लिये श्रृष्टि, स्थिति और संहार लीला मात्र है पर जीवात्मा के लिये यह कर्म-बंधन से मुक्त होने का मौका है। पूर्वाचार्यों ने ये बात विभिन्न उदाहरणों के माध्यम से समझाया है:
१) नृत्य करता हुआ मोर: जिस प्रकार मोर बादल को देख प्रसन्नचित्त होकर नृत्य करता है, उसी प्रकार भगवान भी हमारी माता महालक्ष्मी को देखकर प्रसन्न होते हैं और श्रृष्टि करते हैं। समझने हेतु अगर हम मोर को ब्रह्म, पंख को अचित यानी चेतना-रहित, अचेतन और मोर की आँखों को चित (आत्मा) मान लें तो मोर का पंख फैलाकर नृत्य करना श्रृष्टि है और पंखों को समेट लेना ही संहार। दोनों ही स्थति में चित, अचित ब्रह्म से अभिन्न होते हैं। क्या पंख और मोर एक ही हैं? नहीं। क्या मोर पंख से भिन्न है? नहीं। उसी प्रकार चित और अचित भी ब्रह्म नहीं हैं पर ब्रह्म के अभिन्न अंश हैं।
२) समुद्र की लहरें: जिस प्रकार वायु के कारण समुद्र में लहरों का निर्माण होता है, उसी प्रकार भगवान के संकल्प शक्ति मात्र से संसार की श्रृष्टि होती है। अगर लहरों को चित, अचित और समुद्र को ब्रह्ममान लें तो श्रृष्टि को संहार की प्रक्रिया स्पष्ट समझ आती है।
३) मकड़ी का जाल: इस उदाहरण में मकड़ी ब्रह्म है और जाल चित, अचित। जिस प्रकार मकड़ी जाल को फैलाती है और अंततः वापस अपने अन्दर खींच लेती है, उसी प्रकार भगवान भी चित, अचित को नाम, रूप आदि देकर इस संसार की श्रृष्टि करते हैं और प्रलय-काल में सारे चित,अचित भगवान में ही समा जाते हैं।
जब पुनर्जन्म का चक्र समाप्त हो जाता है, तब कहा जाता है कि उस व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति होती है, या संसार से मुक्ति मिलती है। सभी पुनर्जन्म मानव योनि में ही नहीं होते हैं। कहते हैं कि पृथ्वी पर जन्म और मृत्यु का चक्र 84 लाख योनियों में चलता रहता है, लेकिन केवल मानव योनि में ही इस चक्र से बाहर निकलना संभव है।