सचेतन :49 श्री शिव पुराण- कैसे करें शिवलिंग की प्राणप्रतिष्ठा
सचेतन :49 श्री शिव पुराण- कैसे करें शिवलिंग की स्थापना और प्राणप्रतिष्ठा?
ऋषियों ने पूछा- सूत जी ! शिवलिंग की स्थापना कैसे करनी चाहिए? उसका लक्षण क्या है? तथा उसकी पूजा कैसे करनी चाहिए किस देश काल में करनी चाहिए और किस द्रव्य के द्वारा उसका निर्माण होना चाहिए श्रुति जी ने कहा महर्षि मैं तुम लोगों के लिए इस विषय का वर्णन करता हूं। ध्यान देकर सुनो और समझो। अनुकूल एवं शुभ समय में किसी पवित्र तीर्थ में नदी आदि के तट पर अपनी रूचि के अनुसार ऐसी जगह शिवलिंग की स्थापना करनी चाहिए जहां नित्य पूजन हो सके। पार्थिव द्रव्य (जो द्रव्य पृथ्वी पर अथवा पृथ्वी के भीतर पाये जाते हैं, वे इस श्रेणी के अन्तर्गत आते हैं। मिट्टी, सुधा (चूना), रेत, पत्थर, नमक, क्षार पदार्थ, अंजन, गेरू विभिन्न धातुं (जैसे – लोहा, ताँबा, सोना, चाँदी आदि), पारा (Mercury), उपरस, विभिन्न प्रकार के मणि तथा रत्न आदि इस प्रकार के द्रव्य हैं।) से जलमय द्रव्य से अथवा तैजस पदार्थ से अपनी रुचि के अनुसार कल्पोक्त लक्षणों से युक्त शिवलिंग का निर्माण करके उसकी पूजा करने से उपासक को उस पूजन का पूरा पूरा फल प्राप्त होता है। संपूर्ण शुभ लक्षणों से युक्त शिवलिंग कि यदि पूजा की जाए तो वह तत्काल पूजा का फल देने वाला होता है। यदि चल प्रतिष्ठा करनी हो तो इसके लिए छोटा सा शिवलिंग अथवा विग्रह श्रेष्ठ माना जाता है और यदि अचलप्रतिष्ठा करनी हो तो स्थूल शिवलिंग अथवा विग्रह अच्छा माना जाता है। (प्राण-प्रतिष्ठा दो प्रकार से होती है। प्रथम चल-तथा द्वितीय अचल। अचल में मिट्टी या बालू से बनी मूर्तियों का आह्वान और विसर्जन किया जाता है किंतु लकड़ी और रत्नयुक्त मूर्ति का आह्वान या विसर्जन करना ऐच्छिक है।) उत्तम लक्षणों से युक्त शिवलिंग की पीठ सहित स्थापना करनी चाहिए। शिवलिंग का पीठ मंडला कार (गोल) चौकोर कोमा त्रिकोण अथवा खाट के पाए की भांति ऊपर तथा नीचे मोटा और बीच में पतला होना चाहिए। ऐसा लिंग पीठ महान फल देने वाला होता है पहले मिट्टी से प्रस्तर आदि से अथवा लोहे आदि से शिवलिंग का निर्माण करना चाहिए। जिस द्रव्य से शिवलिंग का निर्माण हो, उसी से उसका पीठ भी बनाना चाहिए,यही स्थावर अचल प्रतिष्ठा वाले शिवलिंग की विशेष बात है चल प्रतिष्ठा वाले शिवलिंग में भी लिंग और पीठ का एक ही उपदान होना चाहिए, किंतु बाढ़ लिंग के लिए यह नियम नहीं है। लिंग की लंबाई निर्माण करता या स्थापना करने वाले यजमान के 12 अंगुल के बराबर होनी चाहिए ऐसे ही शिवलिंग को उत्तम कहा गया है। इसमें कम लंबाई हो तो फल में कमी आ जाती है अधिक हो तो कोई दोष की बात नहीं है। चरलिंग में भी वैसा ही नियम है। उसकी लंबाई कम से कम कर्ता के एक अंगुल के बराबर होनी चाहिए। उससे छोटा होने पर अल्प फल मिलता है। किंतु उससे अधिक होना दोष की बात नहीं है यजमान को चाहिए कि वह पहले शिल्प शास्त्र के अनुसार एक विमान या देवालय बनवाए जो देव गणों की मूर्तियों से अलंकृत हो। उसका गर्भग्रह बहुत ही सुंदर, सुदृढ़ और दर्पण के समान स्वच्छ हो। उसमें पूर्व और पश्चिम दिशा में दो मुख्य द्वार हो। जहां शिवलिंग की स्थापना करनी हो, उस स्थान के गर्त में नीलम, लाल वैदूर्य, श्याम, मरकत, मोती, मूंगा, गोमेद और हीरा इन नौ रत्नों को तथा अन्य महत्वपूर्ण द्रव्यों को वैदिक मंत्रों के साथ छोड़ें।
सद्योजात आदि पांच वैदिक मंत्रों द्वारा शिवलिंग का 5 स्थानों में क्रमशः पूजन करके अग्नि में भविष्य की अनेक आहुतियां दें और परिवार सहित मेरी पूजा करके गुरु स्वरूप आचार्य को धन से तथा भाई बंधुओं को मनचाही वस्तुओं से संतुष्ट करें।
भारतीय धर्मों में, जब किसी मूर्ति की प्राणप्रतिष्ठा की जाती है तब मंत्र द्वारा उस देवी या देवता का आवाहन किया जाता है कि वे उस मूर्ति में प्रतिष्ठित (विराजमान) हों। इसी समय पहली बार मूर्ति की आँखें खोली जाती हैं।मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा में महत्व मूर्ति की शिल्पगत सुंदरता का नहीं होता । अगर कोई साधारण- सा पत्थर भी रख दिया जाए और उसकी प्राण प्रतिष्ठा हो जाए तब वह भी उतना ही फलदायक रहता है, जितनी कि कोई सुंदर कलाकार द्वारा निर्मित की गई मूर्ति होती है। बहुत से पवित्र देवस्थानों में हम यही देखते हैं। बारह ज्योतिर्लिंग हजारों वर्ष पहले किसी महान सत्ता के द्वारा प्राणप्रतिष्ठा से जागृत किए गए थे । उनमें स्थापित मूर्तियाँ शिल्प की दृष्टि से बहुत सुंदर नहीं कही जा सकती हैं । केदारनाथ में तो हम जिस मूर्ति की उपासना करते हैं, वह एक अनगढ़ चट्टान का टुकड़ा अथवा पाषाण मात्र है । लेकिन उसकी दिव्यता अद्भुत है। मूर्ति का मूल्य उसके पत्थर की कीमत से अथवा उसकी सुंदरता से नहीं आंका जाता । यह इस बात पर निर्भर करता है कि उस स्थान विशेष की परिधि में पहुँचते ही साधक को दिव्यता का अनुभव होने लगता है तथा ईश्वर के साथ उसका संपर्क तत्काल जुड़ने लगता है। प्राण प्रतिष्ठा एक असाधारण और अद्भुत कार्य है । कोई-कोई ही हजारों वर्षों में जन्म लेता है , जो मूर्तियों में प्राण प्रतिष्ठा कर सकने में समर्थ होता है। हजारों साल पहले बारह ज्योतिर्लिंग किसी महापुरुष ने प्राणप्रतिष्ठित कर दिए और वह अभी तक चले आ रहे हैं रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा ,रामपुर उत्तर प्रदेश
अगर आप किसी आकार की स्थापना या प्रतिष्ठा मंत्रों के माध्यम से कर रहे हों, तो आपको उसे निरंतर बनाए रखना होगा। भारत में, पारंपरिक रूप से, हमें यह बताया जाता है कि घर में पत्थर की प्रतिमा नहीं रखनी चाहिए, क्योंकि आपको उचित प्रकार की पूजा और अनुष्ठान के साथ उसे प्रतिदिन पूजना होगा। अगर किसी देव प्रतिमा की स्थापना मंत्रोच्चार के साथ हो और प्रतिदिन उनकी पूजा न हो, तो इस तरह यह ऊर्जा को सोखने लगती है और आसपास रहने वालों को भारी हानि हो सकती है। दुर्भाग्यवश बहुत से मंदिर ऐसे ही हो गए हैं क्योंकि वहाँ उचित प्रकार से रख-रखाव नहीं किया जाता। लोग उन मंदिरों को जीवित रखना नहीं जानते।
12 ज्योतिर्लिंग के नाम – सोमनाथ, नागेश्वर, भीमाशंकर, त्र्यंबकेश्वर, ग्रिशनेश्वर, बैद्यनाथ, महाकालेश्वर, ओंकारेश्वर, काशी विश्वनाथ, केदारनाथ, रामेश्वरम और मल्लिकार्जुन
प्राण-प्रतिष्ठा के दौरान ऐसा नहीं होता। जीवन ऊर्जाओं के बल पर, एक आकार की प्रतिष्ठा या स्थापना की जाती है, उसे मंत्रों या अनुष्ठानों से जाग्रत नहीं किया जाता। जब यह एक बार स्थापित हो जाए, तो यह हमेशा के लिए रहता है, इसे किसी रख-रखाव की आवश्यकता नहीं पड़ती। यही कारण है कि ध्यानलिंग में पूजा नहीं की जाती क्योंकि इसे उसकी ज़रूरत ही नहीं है। मंदिर के अनुष्ठान आपके लिए नहीं, बल्कि देवता को जाग्रत रखने के लिए होते हैं। अन्यथा, वे धीरे-धीरे मृतप्राय हो जाते हैं। ध्यानलिंग को ऐसे रख-रखाव की ज़रूरत नहीं है क्योंकि इसे प्राण-प्रतिष्ठा के साथ स्थापित किया गया है, और यह हमेशा ऐसा रहेगा। भले ही आप लिंग का पत्थर वाला हिस्सा हटा दें, यह फिर भी वैसा ही रहेगा। अगर सारी दुनिया का भी अंत हो जाए, तो भी यह वैसा ही रहेगा। आप इसे नष्ट नहीं कर सकते।