सचेतन :63 श्री शिव पुराण- रूद्र संहिता: ब्रह्मा-विष्णु को भगवान शिव के शब्दमय शरीर का दर्शन

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सचेतन :63 श्री शिव पुराण- रूद्र संहिता: ब्रह्मा-विष्णु को भगवान शिव के शब्दमय शरीर का दर्शन

#RudraSamhita

ब्रह्मा- विष्णु के बीच में अग्नि-स्तम्भ प्रकट हुआ उन्होंने तय किया कि जो भी इस स्तंभ का अंतिम छोर खोज लेगा, वही श्रेष्ठ होगा। ब्रह्मा जी स्तंभ के ऊपरी भाग में गए और विष्णु जी नीचे वाले हिस्से में गए।लेकिन जब विष्णु जी को स्तंभ का अंतिम छोर नहीं मिला तो वे लौट आए, वहीं दूसरी तरफ ब्रह्मा जी ने खुद को श्रेष्ठ साबित करने के लिए केतकी के फूल के साथ मिलकर एक योजना बनाई स्तंभ से बाहर निकलकर केतकी के फूल ने झूठ बोल दिया कि ब्रह्मा जी ने इस स्तंभ का अंतिम छोर ढूंढ लिया है।जैसे ही केतकी के फूल ने ये झूठ बोला, शिव जी ने ब्रह्मा जी के झूठ को पकड़ लिया और क्रोधित होकर उन्होंने ब्रह्मा जी को शाप दे दिया कि आपने झूठ बोला है, इसलिए अब से आपकी पूजा नहीं होगी। फिर विष्णु जी ने शिव जी से शाप वापस लेने का निवेदन किया तो शिव जी ने उनकी बात मानते हुए कहा कि अब से यज्ञ में ब्रह्मा जी को गुरु के रूप में स्थापित किया जा सकेगा।

ब्रह्मा जी के बाद शिव जी ने केतकी के फूल से कहा कि तूने झूठ में साथ दिया और झूठ बोला है, इसलिए अब से तू मेरी पूजा में वर्जित रहेगा।

इस किस्से की सीख यह है कि हमें किसी भी स्थिति में झूठ नहीं बोलना चाहिए। झूठ शुरुआत में भले ही अच्छा लगता है, लेकिन जब झूठ पकड़ा जाता है तो हमारे लिए संकट बढ़ जाता है। सच शुरुआत में भले ही मुश्किल लगता है, लेकिन बाद के लिए जीवन सुखी हो जाता है।

ब्रह्मा और विष्णु को अपनी भूल का एहसास हुआ। भगवान शिव साकार रूप में प्रकट हुए और कहा कि आप दोनों ही बराबर हैं। इसके बाद शिव ने कहा कि पृथ्वी पर अपने ब्रह्म रूप का बोध कराने के लिए मैं लिंग रूप में प्रकट हुआ इसलिए अब पृथ्वी पर इसी रूप में मेरे परम ब्रह्म रूप की पूजा होगी। इसकी पूजा से मनुष्य को भोग और मोक्ष की प्राप्ति हो सकेगी।

ब्रह्माजी बोले ;– मुनिश्रेष्ठ नारद! हम दोनों देवता घमंड को भूलकर निरंतर भगवान शिव का स्मरण करने लगे। हमारे मन में ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट परमेश्वर के वास्तविक रूप का दर्शन करने की इच्छा और प्रबल हो गई। शिव शंकर गरीबों के प्रतिपालक, अहंकारियों के गर्व को चूर करने वाले तथा सबके अविनाशी प्रभु हैं। वे हम पर दया करते हुए हमारी उपासना से प्रसन्न हो गए। 

उस समय वहां उन सुरश्रेष्ठ से ‘ॐ’ नाद स्पष्ट रूप से सुनाई दे रहा था। उस नाद के विषय में मैं और विष्णुजी दोनों यही सोच रहे थे कि यह कहां से सुनाई पड़ रहा है। उन्होंने लिंग के दक्षिण भाग में सनातन आदिवर्ण अकार का दर्शन किया। 

आदिवर्ण अकार विस्मयाभिभूत शब्द है, विस्मय और अभिभूत दो शब्दों के योग से बना है। इसमें विस्मय के य के साथ अभिभूत के अ के मिलने से या हो गया है। अ आदि वर्ण हैं। ये सभी वर्ण-ध्वनियों में व्याप्त हैं। व्यंजन वर्णों में इसके योग को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है, जैसे- क्+अ = क इत्यादि। अ की मात्र के चिह्न (।) से आप परिचित हैं। अ की भांति किसी शब्द में आ के भी जुड़ने से अकार की मात्र ही लगती है, जैसे- मंडल+आकार = मंडलाकार। मंडल और आकार की संधि करने पर (जोड़ने पर) मंडलाकार शब्द बनता है और मंडलाकार शब्द का विग्रह करने पर (तोड़ने पर) मंडल और आकार दोनों अलग होते हैं।

उत्तर भाग में उकार का अनुभव किया।यानी जब आपके शारीरिक से या पेट के अन्दर से हवा एका एक शब्द करती हुई मह के रास्ते बाहर निकलती है। उक्त हवा के मुँह से निकलते समय होने वाला शब्द। 

मध्य भाग में मकार का अनुभव किया। इसे पंचमकार शब्द भी कहते है जिसका अर्थ ‘म से आरम्भ होने वाली पाँच वस्तुएँ’ है, ये पाँच वस्तुएँ जिसके साधना से मद्य यानी  अमृत का पैदा होना, दूसरा मांस- शरीर के मांसपेशियों पर नियंत्रण यानी वाणी पर नियंत्रण, मत्स्य यानी गति पर नियंत्रण इड़ा और पिंगला नाड़ी का प्राणायाम द्वारा नियंत्रण, मुद्रा यानी दैनिक जीवन में क्रय और विक्रय हमारा व्यवहार विचार अर्थात् सत्संग और पाँचवा मैथुन यानी पुनरुत्पति की कलाएँ अपने आपको ऊर्जावान बनाना यानी कुण्डलिनी को सहस्रचक्र तक ले जाना

और अंत में ‘ॐ’ नाद का साक्षात दर्शन एवं अनुभव किया। 

आप ध्वनि को सिर्फ सुन ही नहीं सकते, देख भी सकते हैं। जी हां, आप ध्वनि को देख सकते हैं। ध्वनि को देखने का, उसे महसूस करने का एक तरीका होता है, हम उसके बारे में भी जानेंगे।

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