सचेतन :67 श्री शिव पुराण- ॐ तत्वमसि’ महावाक्य का दृष्टिगोचर शब्द ज्ञान से संभव है

SACHETAN  > Shivpuran >  सचेतन :67 श्री शिव पुराण- ॐ तत्वमसि’ महावाक्य का दृष्टिगोचर शब्द ज्ञान से संभव है

सचेतन :67 श्री शिव पुराण- ॐ तत्वमसि’ महावाक्य का दृष्टिगोचर शब्द ज्ञान से संभव है

| | 0 Comments

सचेतन :67 श्री शिव पुराण- ॐ तत्वमसि’ महावाक्य का दृष्टिगोचर शब्द ज्ञान  से संभव है 

#RudraSamhita

जब आपके आंतरिक शरीर में ऋषि जैसे विशिष्ट व्यक्ति के समान अपकी विलक्षण एकाग्रता हो जाएगा तो उसके बल पर गहन ध्यान में आप विलक्षण शब्दों के दर्शन करके उनके गूढ़ अर्थों को जान सकेंगे। आप स्वयं और मानव अथवा प्राणी के कल्याण के लिये ध्यान में देखे गए शब्दों को लिखकर प्रकट कर पायेंगे। जिसे हम सभी विनियोग यानी किसी फल के उद्देश्य से या किसी विषय के प्रयोग हेतु किसी वैदिक कृत्य के लिए इस मंत्र का प्रयोग कर सकते हैं।

इसकी सिद्धि यजुर्वेद में भी होती है। जिसके ज्ञान से आप दिव्यमय हो सकते हैं और विश्वपालक भगवान का और स्वयं का एक अद्भुत व सुंदर रूप देख सकते हैं । 

‘अकार’ उनका मस्तक और आकार ललाट है। इकार दाहिना और ईकार बायां नेत्र है। उकार दाहिना और ऊकार बायां कान है। ऋकार दायां और ऋकार बायां गाल है। ऌ, र्लिं उनकी नाक के छिद्र हैं। एकार और ऐकार उनके दोनों होंठ हैं। ओकार और औकार उनकी दोनों दंत पक्तियां हैं। अं और अः देवाधिदेव शिव के तालु हैं। ‘क’ आदि पांच अक्षर उनके दाहिने पांच हाथ हैं और ‘च’ आदि बाएं पांच हाथ हैं। ‘त’ और ‘ट’ से शुरू पांच अक्षर उनके पैर हैं। पकार पेट है, फकार दाहिना और बकार बायां पार्श्व भाग (अर्धनारीश्वर का एक पार्श्व स्त्री का तथा दूसरा पुरुष का) है। भकार कंधा, मकार हृदय है। हकार नाभि है। ‘य’ से ‘स’ तक के सात अक्षर सात धातुएं हैं जिनसे भगवान शिव का शरीर बना है।

ब्रह्माजी ने महर्षि नारद जी से कहा की इस प्रकार भगवान महादेव व भगवती उमा के दर्शन कर हम दोनों कृतार्थ हो गए। हमने उनके चरणों में प्रणाम किया तब हमें पांच कलाओं से युक्त ॐकार जनित मंत्र का साक्षात्कार हुआ। 

तत्पश्चात महादेव जी ‘ॐ तत्वमसि’ महावाक्य का दृष्टिगोचर हुआ, जो परम उत्तम मंत्ररूप है। वह ब्रह्म तूम हो वह दूर नहीं है, बहुत पास है, पास से भी ज्यादा पास है। तेरा होना ही वही है। इस महावाक्य का अर्थ है-‘वह ब्रह्म तुम्हीं हो।’ 

ब्रह्म ही दुनिया की आत्मा है। वो विश्व का कारण है, जिससे विश्व की उत्पत्ति होती है, जिसमें विश्व आधारित होता है और अन्त में जिसमें विलीन हो जाता है। वो एक और अद्वितीय है। वो स्वयं ही परमज्ञान है, और प्रकाश-स्त्रोत की तरह रोशन है। वो निराकार, अनन्त, नित्य और शाश्वत है। ब्रह्म सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी है।

सृष्टि की उत्पत्ति से पहले भी तुम थे और अभी भी तुम हो और भविष्य में भी तुम रहोगे। वही ब्रह्म आज भी विद्यमान है। उसी ब्रह्म को ‘तत्त्वमसि’ कहा गया है। वह शरीर और इन्द्रियों में रहते हुए भी, उनसे परे है। आत्मा में उसका अंश मात्र है। उसी से उसका अनुभव होता है, किन्तु वह अंश परमात्मा नहीं है। वह उससे दूर है। वह सम्पूर्ण जगत में प्रतिभासित होते हुए भी उससे दूर है।

1197 ई. में द्वैत वेदान्त की परिकल्पना हुई जिसमें पाँच भेदों को आधार माना जाता है- जीव ईश्वर, जीव जीव, जीव जगत्‌, ईश्वर जगत्‌, जगत्‌ जगत्‌। इनमें भेद स्वत: सिद्ध है। भेद के बिना वस्तु की स्थिति असंभव है। 

जगत्‌ और जीव ईश्वर से पृथक्‌ हैं किंतु ईश्वर द्वारा नियंत्रित हैं। सगुण ईश्वर जगत्‌ का स्रष्टा (सृष्टि या विश्व की रचना करनेवाले), पालक और संहारक है। भक्ति से प्रसन्न होने वाले ईश्वर के इशारे पर ही सृष्टि का खेल चलता है। यद्यपि जीव स्वभावतः ज्ञानमय और आनन्दमय है परन्तु शरीर, मन आदि के संसर्ग से इसे दुःख भोगना पड़ता है। 

यह संसर्ग कर्मों के परिणामस्वरूप होता है। जीव ईश्वर नियंत्रित होने पर भी कर्ता और फलभोक्ता है। ईश्वर में नित्य प्रेम ही भक्ति है जिससे जीव मुक्त होकर, ईश्वर के समीप स्थित होकर, आनन्दभोग करता है। भौतिक जगत्‌ ईश्वर के अधीन है और ईश्वर की इच्छा से ही सृष्टि और प्रलय में यह क्रमशः स्थूल और सूक्ष्म अवस्था में स्थित होता है।


Manovikas Charitable Society 2022

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *