सचेतन :74-75 श्री शिव पुराण- मनुष्य के अंदर के छह सबसे बड़े शत्रु

#RudraSamhita   https://sachetan.org/

भगवान शिव की भक्ति सुखमय, निर्मल एवं सनातन रूप है तथा समस्त मनोवांछित फलों को देने वाली है। यह दरिद्रता, रोग, दुख तथा शत्रु द्वारा दी गई पीड़ा का नाश करने वाली है। सनातन का अर्थ है जो शाश्वत हो, सदा के लिए सत्य हो। जिन बातों का शाश्वत महत्व हो वही सनातन कही गई है। हमारे जीवन का सत्य यह है की जब तक मनुष्य भक्तिभाव से सनातन यानी सत्य नहीं हो जाता है, तब तक ही उसे दरिद्रता, दुख, रोग और शत्रु जनित पीड़ा, ये चारों प्रकार के पाप दुखी करते हैं। 

दरिद्रता का आशय केवल धनाभाव व सुख-सुविधाओं से वंचित होना ही नहीं है। वस्तुत: दरिद्रता मनुष्य के भीतर पनपने वाला एक ऐसा हीनभाव है, जो औरों की तुलना में स्वयं को गुणों, साम‌र्थ्य, सत्ता और योग्यता में कमतर समझता है। 

वेदांत ने सुखदुःख के ज्ञान को अविद्या कहा है । अविद्या शब्द का प्रयोग माया के अर्थ में होता है। भ्रान्ति एवं अज्ञान भी इसके पर्याय है। यह चेतनता की स्थिति तो हो सकती है, लेकिन इसमें जिस वस्तु का ज्ञान होता है, वह मिथ्या होती है। सुखदुःख की निवृत्ति ब्रह्माज्ञान द्वारा हो जाती है। योग की परिभाषा में दुःख एक प्रकार का चित्तविक्षेप या अंतराय है जिससे समाधि में विध्न पड़ता है। 

शरीर के किसी अंग/उपांग की संरचना का बदल जाना या उसके कार्य करने की क्षमता में कमी आना ‘रोग’ कहलाता है।

शत्रु जनित पीड़ा का अर्थ है की हम जिसके साथ भारी विरोध या वेमनस्य से रहते हैं यह रिपु, दुश्मन और एक असुर के समान है।

भय मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। विश्वास और विकास दोनों ही इससे कुंठित हो जाते हैं। भय मानसिक कमजोरी है। मन दुर्बल हो जाए तो शरीर भी दुर्बल हो जाता है। निर्भय मन स्वस्थ शरीर का आधार बनता है।

केशव कृष्ण ने बताया कि मनुष्य के अंदर छह सबसे बड़े शत्रु विराजमान रहते हैं – काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईष्र्या, द्वेष। 

ज्ञान से बड़ा व्यक्ति का कोई मित्र नहीं है। ज्ञानी व्यक्ति संसार में आने के उद्देश्य को अच्छी तरह समझता है और अपने कर्म को बेहतर तरीके से करता है। वो कभी सांसारिक बातों में नहीं पड़ता। मुश्किल समय में उसका ज्ञान ही उसे सही मार्ग दिखाता है। ऐसा व्यक्ति हर जगह सम्मान पाता है। 

वहीं मोह इंसान का सबसे बड़ा शत्रु है। ये मोह ही है, जो व्यक्ति को पक्षपाती बना देता है। सांसारिक चीजों में फंसा कर रखता है। उसे जीवन का मूल उद्देश्य नहीं समझने देता। ऐसा व्यक्ति दूसरों से उम्मीदें रखता है और दुख पाता है। यदि जीवन को सार्थक करना है तो मोह से खुद को दूर रखें।

इंसान का सबसे बड़ा रोग कामवासना है। कामवासना को संभोग की तीव्र इच्छा या विषय भोग की कामना से जोड़ सकते हैं। ऐसा व्यक्ति किसी काम में अपना मन नहीं लगा पाता। उसे हर वक्त इसी चीज का खयाल रहता है। काम वासना व्यक्ति को दिमागी रूप से बीमार बनाती है और उसके सोचने समझने की शक्ति को हर लेती है।

क्रोध से भयंकर कोई आग नहीं है। क्रोध ऐसी अग्नि है जो व्यक्ति को अंदर ही अंदर जलाकर खोखला कर देती है। उसकी बुद्धि को हर लेती है। क्रोध में व्यक्ति अक्सर गलत निर्णय ले लेता है, जिसके लिए बाद में उसे पछताना पड़ता है।

लोभ: किसी प्रकार का सुख या आनन्द देनेवाली वस्तु के सम्बन्ध में मन की ऐसी स्थिति को लोभ कहते हैं जिसमें उस वस्तु के अभाव की भावना होते ही प्राप्ति, सान्निध्य या रक्षा की प्रबल इच्छा जग पड़े, लोभ कहते हैं। दूसरे की वस्तु का लोभ करके लोग उसे लेना चाहते हैं, अपनी वस्तु का लोभ करके लोग उसे देना या नष्ट होने देना नहीं चाहते। 

आजकल जिसे लोग प्रेम कहते हैं, वह किसी दूसरे के साथ खुद को बांधने का, खुद की पहचान बनाने का एक तरीका है। लेकिन यह प्रेम नहीं है, यह मोह है, आसक्ति है। हम हमेशा आसक्ति को ही प्रेम समझ बैठते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि आसक्ति का प्रेम से कोई लेना-देना नहीं है वह मोह है।

भगवान शिव की पूजा करते ही ये दुख समाप्त हो जाते हैं और अक्षय सुखों की प्राप्ति होती है। वह सभी भोगों को प्राप्त कर अंत में मोक्ष प्राप्त करता है। शिवजी का पूजन करने वालों को धन, संतान और सुख की प्राप्ति होती है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों को सभी कामनाओं तथा प्रयोजनों की सिद्धि के लिए विधि अनुसार पूजा-उपासना करनी चाहिए ।


Posted

in

by

Tags:

Comments

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *