सचेतन 98:– श्री शिव पुराण- शतरुद्र संहिता-  दरिद्रता देवी की वामदेव पर कृपा 

सचेतन 98:– श्री शिव पुराण- शतरुद्र संहिता-  दरिद्रता देवी की वामदेव पर कृपा 

शिव का वामदेव अवतार वर्तमान में जीने पर जोर देता है। और वर्तमान आपके लिए रुकता नहीं एक क्षण। वैसे महावीर समय का मतलब ही यह कहते हैंः समय का वह हिस्सा जो हमारे हाथ में होता है। वह आखिरी टुकड़ा काल का जो हमारे हाथ में होता है, उसका नाम समय है। और इसलिए सामायिक का मतलब हैः उस क्षण में होना जो हमारे हाथ में है। समय का मतलब ही यह है कि मोमेंट का आखिरी टुकड़ा। क्षण का वह अंतिम एटाॅमिक हिस्सा जो हमारे हाथ में होता है। जिससे हम वस्तुओं को तोड़ें तो एटम आएगा। और अगर हम काल को तोड़ें, टाइम को तोड़ें तो समय आएगा। क्षण आएगा।

एक बार इंद्र ने युद्ध के लिए वामदेव को ललकारा इंद्र वामदेव के सम्मुख परास्त हो गये। इंद्र के परास्त होने के बाद सभी देवताओं की एक बैठक में वामदेव ने कहा, कि यदि कोई इंद्र को लेना चाहता है तो उसे मुझे दस दुधारु गाय देनी होगी तथा वामदेव ने यह शर्त भी रखी कि यदि इंद्र उसके शत्रुओं का नाश कर देगा तो वामदेव उन गायों को लौटा देंगे। वामदेव की इस बात से इंद्र क्रोध से तमतमा रहे थे तदुपरांत वामदेव ने इंद्र की स्तुति करके उन्हें शांत कर दिया।

वामदेव पर एक बार दरिद्रता देवी ने कृपा की। इसी कारण वामदेव के सभी मित्रों ने वामदेव से मुँह मोड़ लिया-कष्ट चारों ओर से घिर आये। वामदेव के तप, व्रत ने भी उनकी कोई सहायता नहीं की। वामदेव के आश्रम के सभी पेड़-पौधे फलविहीन हो गये। वामदेव ऋषि की पत्नी पर वृद्धावस्था और जर्जरता का प्रकोप हुआ। पत्नी के अतिरिक्त सभी ने वामदेव ऋषि का साथ छोड़ दिया था, किंतु ऋषि शांत और अडिग थे। वामदेव ऋषि के पास खाने के लिए और कुछ भी नहीं था तभी एक दिन वामदेव ने यज्ञ-कुंड की अग्नि में कुत्ते की आंते पकानी आरंभ कीं। 

तभी वामदेव को एक सूखे ठूंठ पर एक श्येन पक्षी बैठा दिखायी दिया, उसने पूछा “वामदेव जहाँ तुम हवि अर्पित करते थे, वहाँ कुत्ते की आंतें पका रहे हो-यह कौन सा धर्म है?” 

ऋषि ने कहाँ, “यह आपद धर्म है। चाहो तो तुम्हें भी इसी से तुष्ट कर सकता हूँ। वामदेव ने कहा मैंने अपने समस्त कर्म भी क्षुधा को अर्पित कर दिये हैं। आज जब सबसे उपेक्षित हूँ, तो हे पक्षी, तुम्हारा कृतज्ञ हूँ कि तुमने करुणा प्रदर्शित की।

“श्येन पक्षी वामदेव की करुण स्थिति को देखकर द्रवित हो उठा। इंद्र ने श्येन का रुप त्याग अपना स्वाभविक रुप धारण किया तथा वामदेव को मधुर रस अर्पित किया। वामदेव का कंठ कृतज्ञता से अवरुद्ध हो गया।


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