सचेतन 99: श्री शिव पुराण- शतरुद्र संहिता-  आपद धर्म या आपद्धर्म

| | 0 Comments

रक्त नामक बीसवें कल्प में रक्तवर्ण वामदेव का अवतार हुआ। शिव के इस स्वरूप वामदेव, का संबंध संरक्षण से है। अपने इस स्वरूप में शिव, कवि भी हैं, पालनकर्ता भी हैं और दयालु भी हैं। शिवलिंग के दाहिनी ओर पर मौजूद शिव का यह स्वरूप उत्तरी दिशा की ओर देखता है।

वामदेव पर एक बार दरिद्रता देवी ने कृपा की। इसी कारण वामदेव के सभी मित्रों ने वामदेव से मुँह मोड़ लिया-कष्ट चारों ओर से घिर आये। वामदेव के तप, व्रत ने भी उनकी कोई सहायता नहीं की। वामदेव के आश्रम के सभी पेड़-पौधे फलविहीन हो गये। वामदेव ऋषि की पत्नी पर वृद्धावस्था और जर्जरता का प्रकोप हुआ। पत्नी के अतिरिक्त सभी ने वामदेव ऋषि का साथ छोड़ दिया था, किंतु ऋषि शांत और अडिग थे। वामदेव ऋषि के पास खाने के लिए और कुछ भी नहीं था तभी एक दिन वामदेव ने यज्ञ-कुंड की अग्नि में कुत्ते की आंते पकानी आरंभ कीं। 

तभी वामदेव को एक सूखे ठूंठ पर एक श्येन पक्षी बैठा दिखायी दिया, उसने पूछा “वामदेव जहाँ तुम हवि अर्पित करते थे, वहाँ कुत्ते की आंतें पका रहे हो-यह कौन सा धर्म है?” 

ऋषि ने कहाँ, “यह आपद धर्म है। चाहो तो तुम्हें भी इसी से संतुष्ट कर सकता हूँ। वामदेव ने कहा मैंने अपने समस्त कर्म भी क्षुधा को अर्पित कर दिये हैं। आज जब सबसे उपेक्षित हूँ, तो हे पक्षी, तुम्हारा कृतज्ञ हूँ कि तुमने करुणा प्रदर्शित की।

“श्येन पक्षी वामदेव की करुण स्थिति को देखकर द्रवित हो उठा। इंद्र ने श्येन का रुप त्याग अपना स्वाभविक रुप धारण किया तथा वामदेव को मधुर रस अर्पित किया। वामदेव का कंठ कृतज्ञता से अवरुद्ध हो गया।

आपद धर्म या आपद्धर्म (=आपद्+धर्म) का अर्थ है संकट काल में अपनाया जाने वाला धर्म, विशेष परिस्थितियों में अपनाया जाने वाला धर्म। महाभारत के शान्ति पर्व इसी नाम से एक उपपर्व है।

आपद्धर्म के सम्बन्ध में एक रोचक कथा छांदोग्य उपनिषद में है। यह कथा ‘उषस्ति की कथा’ नाम से जानी जाती है। कुरु देश में एक बार ओलों के कारण सब फसल नष्ट हो गई । ऐसी कठिन स्थिति में, उषस्ति चाक्रायण नाम के ऋषि अति निर्धन हो गए, और हाथीवानों (महावतों ) की बस्ती में अपनी पत्नी के साथ रहने लगे ।

एक दिन उनको भूख ने उतावला कर दिया । वे अपनी पत्नी के साथ भोजन की खोज में भटकने लगे।

उन्होंने एक हाथीवान को कुछ खाते हुए देखा, तो उषस्ति उनके पास गए और पूछा कि क्या खा रहे हो?

महावत ने उत्तर दिया, उड़द खा रहा हूँ।

उषस्ति ने कहा, मुझे उसमें से थोड़ा दो ना। मैं दो दिन से भूखा हूँ।

वह व्यक्ति बोला – महाराज ! अवश्य देता किन्तु ये सब जूठे हो गये है।

उस पर उषस्ति बोले – जूठे ही सही, मुझे थोडे से दे दो।

उस व्यक्ति ने एक पत्ते पर थोडे उड़द उषस्ति और उनकी पत्नी को दिये। और थोड़ा पानी भी उषस्ति के लिये रख दिया। किन्तु उडद खाना पूर्ण होने के बाद उषस्ति ने पत्ता फेंक दिया और जाने लगे ।

तो उस व्यक्ति ने कहा – महाराज !, पानी तो पी लो।

उषस्ति बोले – मैं जूठा पानी नहीं पीता।

महावत बोला – जूठे उड़द खाते हो, तो जूठा पानी क्यौं नहीं चलता।

उषस्ति ने कहा – मैं जूठे उड़द नहीं खाता तो मर जाता। अब मुझ में कुछ जान आयी है। कहीं आसपास झरना होगा तो देखता हूँ। अब में जल ढूढ़ सकता हूँ तो में उसे कही और प्राप्त करूँगा। विचारकर भी झूठा जल ग्रहण करना, पूर्णतया गलत है जिसे आपद्धर्म नहीं कहा जा सकता। जूठे उड़द खाना यह आपद्धर्म है।

आपद्धर्म को नियमित धर्म नहीं बनाना चाहिये।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Sachetan Logo

Start your day with a mindfulness & focus boost!

Join Sachetan’s daily session for prayers, meditation, and positive thoughts. Find inner calm, improve focus, and cultivate positivity.
Daily at 10 AM via Zoom. ‍