तप यानी ज्ञानशक्ति और कला से क्रिया करना जिससे शारीरिक शुद्धि और बुद्ध का गुण विकसित हो सके
हमारे जीवन में पुण्यकर्म और पापकर्म दोनों ही कर्म की प्रधानता होते हैं और यह प्रधानता को समझने के लिए महेश्वर की कृपाप्रसाद चाहिए जिसकी कृपा से आपका मल नाश हो सके और आप निर्मल-शिव के समान महसूस कर सकें। महेश्वर से प्रार्थना करना है की वे आपके आत्माश्रित दुष्ट भाव का नाश करें, मिथ्या ज्ञान की समाप्ति हो सके, अधर्म के मार्ग पर चलाने से बचा जा सके, आपकी शक्ति का क्षय या दुरुपयोग नहीं हो, अकारण किसी का हेतु यानी माध्यम बनाने से रूका जा सके और च्युति नहीं बनाना पड़े यानी उपयुक्त कर्म को करने से चूकने का मौक़ा नहीं गमाना पड़े। यही आप अपने माल का नाश करने के लिए ईश्वर से प्रार्थना कर सकते हैं।
वैसे तो मल का पूर्ण नाश तप से ही संभव होता है। तप का अर्थ यहाँ है की पुरुष अपने ज्ञानशक्ति और अपने कला के द्वारा क्रिया शक्ति करे जिससे उसकी शारीरिक शुद्धि और बुद्ध का गुण विकसित होकर बाहर निकल कर आये। यह गुण त्रिगुणमय होता है जो सत्त्व, रज और तम के रूप में आपके ही प्रकृति को प्रकट करता है।
सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण- ये मनुष्य की प्रकृति से ही उत्पन्न होता है और यह गुण आपके जीवात्मा को है यानी आपके माया के आवरण को आपके शरीर में बांधे रखता है, प्रायः यह गुण हम सभी के जीवन में भ्रम की अवस्था बनाये रखता है।
इन तीनों गुणों मे सत्त्वगुण तो निर्मल होने के कारण प्रकाश करने वाला और विकार रहित है। वह सुख और ज्ञान से सम्बन्ध रखता है अर्थात यह आपके अभिमान को बांध कर रखता है।जब आप गर्व या मग्नता की उच्चतम मनोवृत्ति में प्रतिष्ठत होते हैं तो आपको स्वयं का आत्म सम्मान या आपकी मौजूदगी महसूस होती है। सत्त्वगुण के कारण आप प्रभावशाली और उद्यमशील हो जाते हैं। इन तीनों गुणोंमें सत्त्वगुण निर्मल (मलरहित) है।सत्त्वगुण आपकी स्वाभाविक रुचि परमात्मा की तरफ चलने में तत्पर होती है। यहाँ तक की अगर कुछ मलिन भाव होने पर भी सत्त्वगुण में भी बुद्धि सांसारिक विषय को अच्छी तरह समझने में समर्थ होती है। जैसे की सत्त्वगुणकी वृद्धि होने से वैज्ञानिक नये नये आविष्कार करता है। यहाँ तक की जब उसका उद्देश्य परमात्मा की प्राप्ति करने के लिए भले नहीं हो वह अंहकार या मान बड़ाई, धन आदि के लिए कल्याणकारी अविष्कार किया हो फिर भी वह सत्त्वगुण से प्रेरित कर्म है।
अगर हमको स्वयं के बारे में ज्ञान नहीं है यानी आत्मस्वरूप का अज्ञानता है या यूँ कहें की हम जो कर्म कर रहे हैं उसके बारे में ज्ञान नहीं है और फिर हमारे अंदर अहंकार और स्वार्थ जैसे मूल दोष विराजमान है की यह कार्य मैंने ही तो किया है तो समझिए इन दोष के कारण आपके अंदर रजोगुण और तमोगुण उत्पन्न होना शुरू हो गया है।
Leave a Reply