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सांत्वना यानी ढारस और आश्वासन के लिए उचित भाषा का चयन करना चाहिए पराक्रमी हनुमान जी ने भी सीताजी का विलाप, त्रिजटाकी स्वप्नचर्चा तथा राक्षसियों की डाँट-डपट— ये सब प्रसंग ठीक-ठीक सुन लिये और उन्होंने सोचा की यदि मैं इन्हें सान्त्वना दिये बिना ही लौट जाऊँ और श्री रामचन्द्रजी के कार्य की सिद्धि के लिये अपने स्वामी वानर राज सुग्रीव को उत्तेजित करूँ तो वानर सेना के साथ उनका यहाँ तक आना व्यर्थ हो जायगा (क्योंकि सीता इसके पहले ही अपने प्राण त्याग देंगी)। अच्छा तो राक्षसियों के रहते हुए ही अवसर पाकर आज मैं यहीं बैठे-बैठे इन्हें धीरे-धीरे सांत्वना यानी शांति देने का काम, ढारस और आश्वासन। दूंगा; क्योंकि इनके मन में बड़ा संताप है। मानव जीवन में संताप कोई ऐसा बहुत बड़ा कष्ट या दुःख है जिससे मन जलता हुआ सा जान पड़े। बहुत तीव्र मानसिक क्लेश या पीड़ा लगता हो। दुश्मन का भय सताता हो। और प्रायः जब आप कोई पाप आदि करते है तो मन में होने वाला अनुताप भी संताप बन जाता है। हनुमान जी ने विचार किया की एक तो मेरा शरीर अत्यन्त सूक्ष्म है, दूसरे मैं वानर हूँ। विशेषतः वानर होकर भी मैं यहाँ मानवोचित संस्कृत-भाषा में बोलूंगा। परंतु ऐसा करने में एक बाधा है, यदि मैं द्विज की भाँति संस्कृत-वाणी का प्रयोग करूँगा तो सीता मुझे रावण समझकर भयभीत हो जायँगी। ऐसी दशा में अवश्य ही मुझे उस सार्थक भाषा का प्रयोग करना चाहिये, जिसे अयोध्या के आस-पास की साधारण जनता बोलती है, अन्यथा इन सती-साध्वी सीता को मैं उचित आश्वासन नहीं दे सकता। भाषा की सहायता से हम अतीत और भविष्य दोनों से जुड़ जाते हैं और तमाम समस्याओं का हल ढूंढा सकते हैं। इसीलिए भाषा का सीखना जीवन के आधारभूत कौशल में शामिल है। कोई भी काम चाहे तात्कालिक हो प्रत्यक्ष हो या परोक्ष, या फिर हम यूँ कहें की पीढ़ी-दर-पीढ़ी सांस्कृतिक को निरंतरता अक्षुण बनाये रखन हो तो भाषा की मदद के बिना इसके के बारे में सोचा ही नहीं जा सकता। आज हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के उपयोग करने से हिचकिचाते हैं और फिर अंग्रेजी और पाश्चात्य भाषा का उपयोग करना हम बड़प्पन समझते हैं तो यहाँ आपको हनुमान जी से सांस्कृतिक संदर्भ को समझना जरूरी है। हनुमान जी ने सोचा की यदि मैं सामने जाऊँ तो मेरे इस वानररूप को देखकर और मेरे मुख से मानवोचित भाषा सुनकर ये जनकनन्दिनी सीता, जिन्हें पहले से ही राक्षसों ने भयभीत कर रखा है और भी डर जायँगी। मन में भय उत्पन्न हो जाने पर ये विशाललोचना मनस्विनी सीता मुझे इच्छानुसार रूप धारण करने वाला रावण समझकर जोर-जोर से चीखने चिल्लाने लगेंगी। सीता के चिल्लाने पर ये यमराज के समान भयानक राक्षसियाँ तरह-तरह के हथियार लेकर सहसा आ धमकेंगी। तदनन्तर ये विकट मुखवाली महाबलवती राक्षसियाँ मुझे सब ओर से घेरकर मारने या पकड़ लेने का प्रयत्न करेंगी। आपको बता दूँ की संस्कृत का अर्थ है “संस्कार की गयी ” अर्थात “बदलाव की गयी या ‘शुद्धीकरण की गई हो। वैसे तो इतिहास में 500,000-10,000 ईसा पूर्व भारत में पाषाण काल की संस्कृति थी और वह प्राचीन भारत का नाम हिंदुस्तान के नाम से जाना जाता था। यहाँ की सबसे पुरानी भाषा प्राकृत पाली है व सबसे प्राचीन लिपि धम्म लिपि (ब्राह्मी लिपि) है 5 वीं सदी ईसा पूर्व में भी इसका उदाहरण मिलता है।अगर देखा जाए सबसे प्राचीन भाषा व लिपि सिंधु घाटी सभ्यता की भाषा जो अब तक नही पढ़ी गयी है। इसीलिए हनुमान जी ने सांस्कृतिक संदर्भ को समझते हुए अयोध्या के आस-पास की साधारण जनता द्वारा बोली जाने वाली भाषा कई प्रयोग किया। हनुमान जी ने फिर सोचा की मुझे बड़े-बड़े वृक्षों की शाखा-प्रशाखा और मोटी-मोटी डालियों पर दौड़ता देख ये सब-की-सब सशङ्क हो उठेगी। वन में विचरते हुए मेरे इस विशाल रूप को देखकर राक्षसियाँ भी भयभीत हो बुरी तरहसे चिल्लाने लगेंगी। इसके बाद वे निशाचरियाँ राक्षसराज रावण के महल में उसके द्वारा नियुक्त किये गये राक्षसों को बुला लेंगी। इस हलचल में वे राक्षस भी उद्विग्न होकर शूल, बाण, तलवार और तरह-तरह के शस्त्रास्त्र लेकर बड़े वेग से आ धमकेंगे। उनके द्वारा सब ओर से घिर जाने पर मैं राक्षसों की सेना का संहार तो कर सकता हूँ; परंतु समुद्र के उस पार नहीं पहुँच सकता। यदि बहुत-से फुर्तीले राक्षस मुझे घेरकर पकड़ लें तो सीताजी का मनोरथ भी पूरा नहीं होगा और मैं भी बंदी बना लिया जाऊँगा। इसके सिवा हिंसा में रुचि रखने वाले राक्षस यदि इन जनक दुलारी को मार डालें तो श्रीरघुनाथजी और सुग्रीव का यह सीता की प्राप्ति रूप अभीष्ट कार्य ही नष्ट हो जायगा। मनोरथ का अर्थ है की किसी शुभ कार्य का पूरा होना, या फिर यह कह सकते हैं कि किसी ऐसे कार्य का पूरा होना जिसको आप ने मन में संजोये हुए रखा था जिसे हम लक्ष्य कहते हैं।