सचेतन 2.81: रामायण कथा: सुन्दरकाण्ड – सीता जी को कौआ ने चोंच मारा
सचेतन में आज हम सभी सुन्दरकाण्ड के इस कहानी के इस अद्भुत पथ पर हैं जहां, हनुमानजी ने अपनी कौशल भरी चालाकी और नेतृत्व का परिचय दिया। अब, चलिए, सुनिए उनकी इस अद्भुत कहानी को।
सीताजी का हनुमान जी को पहचान के रूप में चित्रकट पर्वत पर घटित हुए एक कौए के प्रसंग को सुनाती है। और श्रीराम को शीघ्र बुलाने के लिए अनुरोध करती है और अपनी चूड़ामणि देती है।
कहानी की बात सुनकर सीता जी के इस वचन से कपिश्रेष्ठ हनुमान जी को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे बातचीत में कुशल थे। उन्होंने पूर्वोक्त बातें सुनकर सीताजी से कहा— ‘देवि! आपका कहना बिलकुल ठीक और युक्तिसंगत है। शुभदर्शने! आपकी यह बात नारी स्वभाव के तथा पतिव्रताओं की विनयशीलता के अनुरूप है॥ ‘इसमें संदेह नहीं कि आप अबला होने के कारण मेरी पीठ पर बैठकर सौ योजन विस्तृत समुद्र के पार जाने में समर्थ नहीं हैं॥
‘जनकनन्दिनि! आपने जो दूसरा कारण बताते हुए कहा है कि मेरे लिये श्रीरामचन्द्रजी के सिवा दूसरे किसी पुरुष का स्वेच्छापूर्वक स्पर्श करना उचित नहीं है, यह आपके ही योग्य है। देवि! महात्मा श्रीराम की धर्मपत्नी के मुख से ऐसी बात निकल सकती है। आपको छोड़कर दूसरी कौन स्त्री ऐसा वचन कह सकती है।
‘देवि! मेरे सामने आपने जो-जो पवित्र चेष्टाएँ की और जैसी-जैसी उत्तम बातें कही हैं, वे सब पूर्णरूप से श्रीरामचन्द्रजी मुझसे सुनेंगे॥ ‘देवि! मैंने जो आपको अपने साथ ले जाने का आग्रह किया, उसके बहुत-से कारण हैं। एक तो मैं श्रीरामचन्द्रजी का शीघ्र ही प्रिय करना चाहता था। अतः स्नेहपूर्ण हृदय से ही मैंने ऐसी बात कही है। ‘दूसरा कारण यह है कि लंका में प्रवेश करना सबके लिये अत्यन्त कठिन है। तीसरा कारण है, महासागर को पार करने की कठिनाई इन सब कारणों से तथा अपने में आपको ले जाने की शक्ति होने से मैंने ऐसा प्रस्ताव किया था।
यह सुन्दर वार्ता अन्तिम चरण की ओर बढ़ रही है। सीता की विनयशीलता और हनुमान की नेतृत्व क्षमता ने इस कहानी को एक नई ऊंचाई तक पहुंचा दिया है और हनुमान जी ने कहा मैं आज ही आपको श्रीरघुनाथजी से मिला देना चाहता था। अतः अपने परमाराध्य गुरु श्रीराम के प्रति स्नेह और आपके प्रति भक्ति के कारण ही मैंने ऐसी बात कही थी, किसी और उद्देश्य से नहीं।
किंतु सती-साध्वी देवि! यदि आपके मन में मेरे साथ चलने का उत्साह नहीं है तो आप अपनी कोई पहचान ही दे दीजिये, जिससे श्रीरामचन्द्रजी यह जान लें कि मैंने आपका दर्शन किया है।
सीता जी ने कहा “वानरश्रेष्ठ! तुम मेरे प्रियतम से यह उत्तम पहचान बताना—’नाथ! चित्रकूट पर्वत के उत्तर-पूर्ववाले भाग पर, जो मन्दाकिनी नदी के समीप है तथा जहाँ फल-मूल और जल की अधिकता है, उस सिद्धसेवित प्रदेश में तापसाश्रम के भीतर जब मैं निवास करती थी, उन्हीं दिनों नाना प्रकार के फूलों की सुगन्ध से वासित उस आश्रम के उपवनों में जलविहार करके आप भीगे हुए आये और मेरी गोद में बैठ गये।
तदनन्तर (किसी दूसरे समय) एक मांसलोलुप कौआ आकर मुझ पर चोंच मारने लगा। मैंने ढेला उठाकर उसे हटाने की चेष्टा की, परंतु मुझे बार-बार चोंच मारकर वह कौआ वहीं कहीं छिप जाता था। उस बलिभोजी कौए को खाने की इच्छा थी, इसलिये वह मेरा मांस नोचने से निवृत्त नहीं होता था। ‘मैं उस पक्षी पर बहुत कुपित थी। अतः अपने लहँगे को दृढ़तापूर्वक कसने के लिये कटिसूत्र (नारे)को खींचने लगी। उस समय मेरा वस्त्र कुछ नीचे खिसक गया और उसी अवस्था में आपने मुझे देख लिया।
हनुमानजी ने कहा ही माते आपका इस कथा सुनकर हृदय से प्रभावित हो रहा है। कृपया, कथा का अगले भाग को भी कहिए और आप सभी भी इस कथा के अगले भाग का इंतजार कीजिए।