सचेतन 174: श्री शिव पुराण- उमा संहिता- सुख बांटने का जरिया है दान
सर्वे भवंतु सुखिन: सर्वे संतु निरामया
शान्ति पाठ के रूप में आप सभी ने सुना होगा “सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया,
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुख भागभवेत। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः”
अर्थ – “सभी प्रसन्न रहें, सभी स्वस्थ रहें, सबका भला हो, किसी को भी कोई दुख ना रहे। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः”।
यह शान्ति पाठ सिर्फ एक धारणा नहीं है बल्कि यह सामाजिक व्यवस्था के रूप में है। दान उसी व्यवस्था का एक हिस्सा है। कहा जाता है कि बांटने से दुख घटते हैं, जबकि सुख बढते हैं। दान सुख की साझेदारी का जरिया है। अगर रूढिय़ों से मुक्त होकर दान की सच्ची अवधारणा को समझा और उस पर अमल किया जा सके तो यह मनुष्यता के समग्र कल्याण का माध्यम बन सकता है।
भारतीय या संपूर्ण विश्व की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक सोच में ही दान एक परंपरा है और जिसकी बड़ी महिमा बताई गई है। अगर आप सहृदयता और सहायता करने की सोच के साथ किसी जरूरतमंद को कुछ देते हैं तो इसका ही अर्थ दान है।
भारतीय परंपरा में दान को कर्तव्य और धर्म दोनों ही माना जाता है। यही कारण है कि दान की महिमा को हमारी सभ्यता में बडे ही धार्मिक और सात्विक रूप में स्वीकार किया गया है। इसे बहुत कल्याणकारी कर्म माना गया है, क्योंकि इससे त्याग करने की क्षमता बढती है।
धर्मग्रंथों में बताया गया है कि हर व्यक्ति को अपनी कमाई का एक नियत भाग जरूरतमंदों को दान करना ही चाहिए। त्याग का यह भाव हमें सार्वजनिक जीवन से जोड़कर ‘सर्वे भवंतु सुखिन: की सोच की ओर मुड़ता है। इसीलिए दान में अन्न, जल, वस्त्र, धन-धान्य, शिक्षा, गाय, बैल आदि दिए जाने की रीति है।
दान देने वाले वस्तु या द्रव्य के तीन भेद गिनाए गए हैं – शुक्ल, मिश्रित और कृष्ण। शास्त्र, तप, योग, परंपरा, पराक्रम और शिष्य से उपलब्ध द्रव्य शुक्ल कहा गया है। शुक्ल शब्द का अर्थ उजला होता है।
कुसीद यानी ब्याज पर रुपया देने की रीति, कृषि और वाणिज्य से समागत द्रव्य मिश्रित बताया गया है। सेवा, द्यूत यानी जुआ से खेल कर अर्जित धन और चौर्य यानी करों या वैधानिक प्रतिबंधों से आँख छिपाकर या उनकी चोरी कर लाभ कमाने के लिये अवैध रूप से अर्जित मुद्रा या द्रव्य को कृष्ण कहा है।
शुक्ल द्रव्य के दान से सुख की प्राप्ति होती है। मिश्रित द्रव्य के दान से सुख एवं दु:ख, दोनों को उपलब्धि होती है। कृष्ण द्रव्य का दान दिया जाए तो केवल दु:ख ही मिलता है।
द्रव्य की तीन ही परिस्थितियाँ देखी जाती हैं – दान, भोग और नाश। उत्तम कोटि के व्यक्ति अपने द्रव्य का उपयोग दान में करते हैं। मध्यम पुरुष अपने द्रव्य का व्यय उपभोग में करते हैं। इन दोनों से अतिरिक्त व्यक्ति अपने द्रव्य का उपयोग न दान में ही करते हैं न उपभोग में। उनका द्रव्य नाश को प्राप्त होता है। इस प्रकार के व्यक्तियों की गणना अधम कोटि में होती है।
दान देने की विधि भी बताई गई है, यह दान विधि महादान, लघु दान और सामान्य दान प्रभृति अनेक भेद भी गिनाए गए हैं। महादान भी 16 तरह के कहे गए हैं। इनमें तुलादान को प्राथमिकता मिली हैं। पौराणिक संदर्भ में तुला दान की बहुत सारी कथा है श्री कृष्ण की पत्नी सत्यभामा की कथा में ज़रूर सुनाऊँगा।
लेकिन आज के युग में भी तुला दान होता है जिसको मैचिंग उपहार या ग्रांट कहते हैं। कई कॉर्पोरेट या जनहितैषी दाता फिलैंथरोपिस्ट उतना ही उपहार या दान देते हैं जब उनके कोई कर्मचारियों या हितेषी किसी गैर-लाभकारी संगठनों जितना आर्थिक रूप मदद करता है है मैचिंग ग्रांट कहलाता है। जब कोई कर्मचारी दान करता है, तो वे अपने नियोक्ता से मेल खाने वाले उपहार का अनुरोध करता है, तो कंपनियां आमतौर पर दान का मिलान 1:1 के अनुपात में करती हैं, लेकिन कुछ 2:1, 3:1, या यहाँ तक कि 4:1 के अनुपात में भी दान का मिलान करता है।
पौराणिक युग में संदर्भ में तुला दान एक अनुष्ठान होता था। जिसको महादान कहा जाता है।