सचेतन 170 : श्री शिव पुराण- उमा संहिता- स्वाध्याय कब कब करें
सचेतन 170 : श्री शिव पुराण- उमा संहिता- स्वाध्याय कब कब करें
स्वाध्याय व्यक्ति की जीवन दृष्टि को बदल देता है
स्वाध्याय का प्रयोजन बहुत से कारणों से करना चाहिए जिसमें प्रमुख है की ज्ञान की प्राप्ति के लिये, सम्यक् ज्ञान की प्राप्ति के लिये यानी जो पदार्थ जैसा है, उसे वैसे को वैसा ही जानना, न कम जानना,न अधिक जानना और न विपरीत जानना – जो ऐसा बोध कराता है, वह सम्यक ज्ञान है। स्वाध्याय सदाचरण में प्रवृत्ति हेतु और दुराग्रहों और अज्ञान का विमोचन करने के लिये करना चाहिए। यथार्थ का बोध या अवस्थित भावों का ज्ञान प्राप्त स्वाध्याय से होता है।
स्वाध्याय के प्रयोजन और भी हो सकते हैं जैसे बुद्धि की निर्मलता, प्रशस्त मनोभावों की प्राप्ति, निजशासन की रक्षा, संशय की निवृत्ति, परवादियों अर्थात् शिकायत की शंका का निरसन, और तप-त्याग की वृद्धि और अतिचारों (दोषों) की शुद्धि के लिए हो सकता है।
२४ घंटे में आठ प्रहर होते हैं जिसमें दिन के चार प्रहर- पूर्वान्ह, मध्यान्ह, अपरान्ह और सायंकाल और रात के चार प्रहर- प्रदोष, निशिथ, त्रियामा एवं उषा। जैसे प्रत्येक प्रहर में गायन, पूजन, जप और प्रार्थना का महत्व है वैसे ही स्वाधाय का महत्व भी है।
पहला पहर: शाम 6 बजे से लेकर रात 9 बजे तक के समय को रात्रि का पहला प्रहर प्रदोष कहा जाता है और इस प्रहर में स्वाध्याय करना चाहिए।
दूसरा प्रहर: रात 9 बजे से लेकर 12 बजे तक को दूसरा प्रहर को निशिथ कहा जाता है जिसमें ध्यान करना चाहिए।
तीसरा प्रहर: रात के 12 से 3 बजे तक का समय तीसरा प्रहर त्रियामा का होता है जिसमें निद्रा करना चाहिए।
चौथा प्रहर भोर के 3 बजे से सुबह के 6 बजे तक लगता है जिसे उषा कहते हैं जिसमें पुन: स्वाध्याय का निर्देश बहुत ही महत्वपूर्ण है।
पांचवां प्रहर: सुबह 6 बजे से लेकर 9 बजे तक के समय को पांचवें प्रहर पूर्वान्ह के रूप में देखा जाता है इसमें स्वाध्याय करने का महत्व है।
छठा प्रहर: सुबह 9 बजे से लेकर दोपहर 12 बजे तक का समय छठा प्रहर मध्यान्ह कहलाता है इसमें ध्यान करे।
सातवां प्रहर: दोपहर 12 बजे से शाम 3 बजे तक की अवधि को सातवां पहर अपरान्ह बोला जाता है जिसमें भिक्षा-चर्या एवं दैहिक आवश्यकता की निवृत्ति का कार्य करे। आठवां प्रहर: शाम 3 बजे से लेकर शाम 6 बजे की अवधि आखिरी सायंकाल प्रहर कहलाती है जिसमें स्वाध्याय करे।
इस प्रकार प्रतिदिन आठों प्रहर स्वाध्याय में रत रहे। दूसरे शब्दों में साधक जीवन का आधा भाग स्वाध्याय के लिये नियत है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि स्वाध्याय का महत्त्व प्राचीन काल से ही सुस्थापित रहा है, क्योंकि यही एक ऐसा माध्यम था जिसके द्वारा व्यक्ति के अज्ञान का निवारण तथा आध्यात्मिक विशुद्धि सम्भव थी।
सत्साहित्य के पठन के रूप में स्वाध्याय की क्या उपयोगिता है?
सत्साहित्य का अध्ययन व्यक्ति की जीवन दृष्टि को बदल देता है। ऐसे अनेक लोग हैं जिनकी सत्साहित्य के अध्ययन से जीवन की दिशा ही बदल गयी। स्वाध्याय एक ऐसा माध्यम है, जो एकान्त के क्षणों में हमें अकेलापन महसूस नहीं होने देता और एक सच्चे मित्र की भाँति सदैव साथ देता है तथा मार्ग-दर्शन करता है।
वर्तमान युग में यद्यपि लोगों में पढ़ने-पढ़ाने की रूचि विकसित हुई है, किन्तु हमारे पठन की विषय वस्तु सम्यक् नहीं है। आज के व्यक्ति के पठन-पाठन का मुख्य विषय पत्र-पत्रिकाएँ हैं या मोबाइल है। इनमें मुख्य रूप से वे ही पत्रिकाएं अधिक पसन्द की जा रही हैं जो वासनाओं को उभारने वाली तथा जीवन के विद्रपित पक्ष को यथार्थ के नाम पर प्रकट करने वाली हैं।
आज समाज में नैतिक मूल्यों का जो पतन है उसका कारण हमारे प्रसार माध्यम भी हैं। इन माध्यमों में पत्र-पत्रिकाएँ तथा आकाशवाणी एवं दूरदर्शन प्रमुख हैं। आज स्थिति ऐसी है कि ये सभी अपहरण, बलात्कार, गबन, डकैती, चोरी, हत्या इन सबकी सूचनाओं से भरे पड़े होते हैं और हम उनको पढ़ने तथा देखने में अधिक रस लेते हैं। इनके दर्शन और प्रदर्शन से हमारी जीवनदृष्टि ही विकृत हो चुकी है, आज सच्चरित्र व्यक्तियों एवं उनके जीवन वृत्तान्तों की सामान्य रूप से, इन माध्यमों के द्वारा उपेक्षा की जाती है। अत: नैतिक मूल्यों और सदाचार से हमारी आस्था उठती जा रही है।
इन विकृत परिस्थितियों में यदि मनुष्य के चरित्र को उठाना है और उसे सन्मार्ग एवं नैतिकता की ओर प्रेरित करना है तो हमें अपने अध्ययन की दृष्टि को बदलना होगा। आज साहित्य के नाम पर जो भी है वह पठनीय है, ऐसा नहीं है। आज यह आवश्यक है कि सत्साहित्य का प्रसारण हो और लोगों में उसके अध्ययन की अभिरुचि जागृत हो। यही सच्चे अर्थ में स्वाध्याय है।