सचेतन 167 : श्री शिव पुराण- उमा संहिता- स्वाध्याय का महत्व
जीवन में समभाव (सामायिक) होना चाहिए और समभाव की उपलब्धि हेतु स्वाध्याय और साहित्य का अध्ययन आवश्यक है।
स्वाध्याय का शाब्दिक अर्थ है- ‘स्वयं का अध्ययन करना’। यह एक वृहद संकल्पना है जिसके अनेक अर्थ होते हैं। विभिन्न हिन्दू दर्शनों में स्वाध्याय एक ‘नियम’ है। स्वाध्याय का अर्थ ‘स्वयं अध्ययन करना’ तथा वेद एवं अन्य सद्ग्रन्थों का पाठ करना भी है।स्व- (sva-, “self”) + अध्याय (adhyāy, “study, learning”).
श्री शिव पुराण के उमा संहिता में सनत्कुमारजी कहते हैं-मुने! जो वन में जंगली फल-मूल खाकर तप करता है और जो वेद की एक ऋचा का स्वाध्याय करता है, इन दोनों का फल समान है।
श्रेष्ठ द्विज वेदाध्ययन से जिस पुण्य को पाता है, उससे दूना फल वह उस वेद को पढ़ाने से पाता है।
मुने ! जैसे चन्द्रमा और सूर्य के बिना जगत में अन्धकार छा जाता है, उसी प्रकार पुराण के बिना ज्ञान का आलोक नहीं रह जाता है-अज्ञान का अन्धकार छाया रहता है। इसलिये सदा पुराण का अध्ययन करना चाहिये ।
अज्ञानता के कारण नरक में पड़कर सदा संतप्त होने वाले लोक को जो शास्त्र का ज्ञान देकर समझाता है, वह पुराण वक्ता अपनी इसी महत्ता के कारण सदा पूजनीय है। जो साधु पुरुष पुराण वक्ता विद्वान को दान का पात्र समझकर बड़ी प्रसन्नता के साथ उसे उत्तमोत्तम वस्तुएँ देता है, वह परम गति को प्राप्त होता है। परम गति का एक अर्थ है की समभाव को पाना।
‘समभाव’ का अर्थ है ऐसा भाव जिसके विपरीत न जाना पड़े। कोई ऐसा भाव जो इतना आकर्षक हो, इतना विराट हो कि तुम्हें पूरा ही सोख ले अपने में।
जीवन में समभाव (सामायिक) होना चाहिए और समभाव की उपलब्धि हेतु स्वाध्याय और साहित्य का अध्ययन आवश्यक है।
सर्व धर्म सम भाव के बरे में आपने सुना होगा यह हिंदू धर्म की एक अवधारणा है जिसके अनुसार सभी धर्मों द्वारा अनुसरण किए जाने वाले मार्ग भले ही अलग हो सकते हैं, किंतु उनका गंतव्य एक ही है।
इस अवधारणा को रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानन्द के अतिरिक्त महात्मा गांधी ने भी अपनाया था। हालाँकि ऐसा माना जाता है कि इस विचार का उद्गम वेदों में है, इसका अविष्कार गांधीजी ने किया था। उन्होंने इसका उपयोग पहली बार सितम्बर १९३० में हिन्दुओं और मुसलमानों में एकता जगाने के लिए किया था, ताकि वे मिलकर ब्रिटिश राज का अंत कर सकें।
यह भारतीय पंथनिरपेक्षता (Indian secularism) के प्रमुख सिद्धांतों में से एक है, जिसमें धर्म को सरकार एक-दूसरे से पूरी तरह अलग न करके सभी धर्मों को समान रूप से महत्त्व देने का प्रयास किया जाता है।
सर्व धर्म सम भाव को अति-रूढ़िवादी हिन्दुओं के एक छोटे-से हिस्से ने यह खारिज कर दिया है कि धार्मिक सार्वभौमिकता के चलते हिंदू धर्म की अपनी कई समृद्ध परंपराओं को खो दिया है।
‘समभाव’ का जागरण आपको साहित्य का स्वाध्याय करके ही मिल सकता है। ‘समभाव’ मनुष्य का एक ऐसा मित्र है, जो अनुकूल एवं प्रतिकूल दोनों स्थितियों में उसका साथ निभाता है और उसका मार्ग-दर्शन कर उसके मानसिक विक्षोभों एवं तनावों को समाप्त करता है। ऐसे साहित्य के स्वाध्याय से व्यक्ति को सदैव ही आत्मतोष और आध्यात्मिक आनन्द की अनुभूति होती है, मानसिक तनावों से मुक्ति मिलती है। यह मानसिक शान्ति का अमोघ उपाय है।
सत्साहित्य स्वाध्याय का महत्त्व अति प्राचीन काल से ही स्वीकृत रहा है। उपनिषद चिन्तन में जब शिष्य अपनी शिक्षा पूर्ण करके गुरु के आश्रम से बिदाई लेता था, तो उसे दी जाने वाली अन्तिम शिक्षाओं में एक शिक्षा होती थी—स्वाध्यायान् मा प्रमद: अर्थात् स्वाध्याय में प्रमाद मत करना। स्वाध्याय एक ऐसी वस्तु है जो गुरु की अनुपस्थिति में भी गुरु का कार्य करती थी। स्वाध्याय से हम कोई न-कोई मार्ग-दर्शन प्राप्त कर ही लेते हैं। महात्मा गांधी कहा करते थे कि “जब भी मैं किसी कठिनाई में होता हूँ, मेरे समाने कोई जटिल समस्या होती है, जिसका निदान मुझे स्पष्ट रुप से प्रतीत नहीं होता है। मैं गीता-माता की गोद में चला जाता हूँ, वहाँ मुझे कोई-न-कोई समाधान अवश्य मिल जाता है।” यह सत्य है कि व्यक्ति कितने ही तनाव में क्यों न हो, अगर वह ईमानदारी से सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय करता है तो उसे उनमें अपनी पीड़ा से मुक्ति का मार्ग अवश्य ही दिखाई देता है।