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सचेतन 172 : श्री शिव पुराण- उमा संहिता- दान से बड़ा दान देने और लेने की भावना है

दान देने के लिये कायिक, वाचिक और मानसिक संकल्प की आवश्यकता होती है। दान का साधारण अर्थ है देना और किसी भी सराहनीय कार्य और अवश्य किए जाने काम के लिए अग्र आप कुछ भी देते हैं तो उसका अर्थ दान से बढकर सेवा और सहायता हो जाता है। इस प्रकार का दान किसी न […]

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सचेतन 171 : श्री शिव पुराण- उमा संहिता- दान देना क्या होता है?

मानसिक रूप से क्षमा का दान देना बहुत ही महत्वपूर्ण है  दान का शाब्दिक अर्थ है – ‘देने की क्रिया’। सभी धर्मों में सुपात्र को दान देना परम् कर्तव्य माना गया है। हिन्दू धर्म में दान की बहुत महिमा बतायी गयी है। आधुनिक सन्दर्भों में दान का अर्थ किसी जरूरतमंद को सहायता के रूप में […]

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सचेतन 170 : श्री शिव पुराण- उमा संहिता- स्वाध्याय कब कब करें

सचेतन 170 : श्री शिव पुराण- उमा संहिता- स्वाध्याय कब कब करें  स्वाध्याय व्यक्ति की जीवन दृष्टि को बदल देता है स्वाध्याय का प्रयोजन बहुत से कारणों से करना चाहिए जिसमें प्रमुख है की ज्ञान की प्राप्ति के लिये, सम्यक् ज्ञान की प्राप्ति के लिये यानी जो पदार्थ जैसा है, उसे वैसे को वैसा ही […]

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सचेतन 169 : श्री शिव पुराण- उमा संहिता- स्वाध्याय के लाभ

स्वाध्याय से आत्मा मिथ्या ज्ञान का आवरण दूर होता है  स्वाध्याय से हम आध्यत्मिक साधना कर सकते हैं जो ज्ञान के प्रकाश से प्राप्त होता है, और इससे समस्त दु:खों का क्षय हो जाता है। वस्तुत: स्वाध्याय ज्ञान प्राप्ति का एक महत्त्वपूर्ण उपाय है।  स्वाध्याय शब्द का सामान्य अर्थ है-स्व का अध्ययन। स्वाध्याय आत्मानुभूति है, […]

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सचेतन 167 : श्री शिव पुराण- उमा संहिता- स्वाध्याय का महत्व

जीवन में समभाव (सामायिक) होना चाहिए और समभाव की उपलब्धि हेतु स्वाध्याय और साहित्य का अध्ययन आवश्यक है।  स्वाध्याय का शाब्दिक अर्थ है- ‘स्वयं का अध्ययन करना’। यह एक वृहद संकल्पना है जिसके अनेक अर्थ होते हैं। विभिन्न हिन्दू दर्शनों में स्वाध्याय एक ‘नियम’ है। स्वाध्याय का अर्थ ‘स्वयं अध्ययन करना’ तथा वेद एवं अन्य […]

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सचेतन 166 : श्री शिव पुराण- उमा संहिता- तपस्या – एक आध्यात्मिक अनुशासन है

अपने शरीर का तप, वाणी का तप और मन का तप कर लेने से आप तपस्वी बन सकते हैं।  तपस्या कोई आत्म-यातना नहीं है और तपस्या का मतलब स्वेच्छा से अलगाव और कठिनाई का जीवन जीना भी नहीं है। तपस्या का अर्थ आत्म-संयम और पवित्रता का जीवन जीना है। जो तपस्या में संलग्न है, उनको […]

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सचेतन 165 : शंकराचार्य सनातन धर्म में सर्वोच्च धर्म गुरु का पद है

जगद्गुरु के तौर पर सत्ययुग में वामन, त्रेतायुग में सर्व गुरू ब्रम्हर्षि वशिष्ठ थे, द्वापर के सर्वगुरू वेदव्यास थे। आदिशङ्कराचार्य ये भारत के एक महान दार्शनिक एवं धर्मप्रवर्तक थे। उन्होने अद्वैत वेदान्त को ठोस आधार प्रदान किया। भगवद्गीता, उपनिषदों और वेदांतसूत्रों पर लिखी हुई इनकी टीकाएँ बहुत प्रसिद्ध हैं। उन्होंने सांख्य दर्शन का प्रधानकारणवाद और […]

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सचेतन 164 : श्री शिव पुराण- उमा संहिता- तप सबसे शक्तिशाली है

भगवान प्रजापति ने तप से ही इस समस्‍त संसार की सृष्टि की है तथा ऋषियों ने तप से ही वेदों का ज्ञान प्राप्त किया है। तपस्या हमारे जीवन के शासन की महिमा, गरिमा एवं प्रभाव को बढ़ाने वाला अदभुत कार्य है। तप वो ही करता है जो अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण कर सकता है। तप […]