तैत्तिरीयोपनिषद् का लक्ष्य यह दिखाना है कि — मनुष्य जिसे “सुख” समझता है (धन, शरीर, पद, कला, सौंदर्य, शक्ति आदि), वह सब सीमित और क्षणभंगुर है। अगर उस सुख को धीरे-धीरे 100–100 गुना बढ़ाते चलें, तब भी उसका एक अंत है।लेकिन आत्मा का आनंद (ब्रह्मानन्द) — उसके परे है, और अनंत है।भौतिक और दैवी सुख […]
Category: Manushyat-मनुष्यत
सचेतन- 26:तैत्तिरीय उपनिषद् आनन्द की सीढ़ियाँ (आनन्दमिमांसा)
‘मीमांसा’ शब्द का अर्थ है गंभीर मनन, विचार-विमर्श, या किसी विषय के मूल तत्त्वों का गहन ज्ञान प्राप्त करने के लिए किया जाने वाला विवेचन। मीमांसा दर्शन का मुख्य उद्देश्य धर्म के सार को समझना और मानव कर्तव्य को स्पष्ट करना है। 1. मानव-सुख (Manuṣyānanda) कल्पना करो कि एक 25 वर्ष का युवा है — […]
सचेतन- 25:तैत्तिरीय उपनिषद्: परम आनन्द ही ब्रह्म है
“आनन्दो ब्रह्मेति” ✨इसका अर्थ है — परम आनन्द ही ब्रह्म है। तैत्तिरीयोपनिषद् का भाव कि साधक जब अन्न (शरीर), प्राण (जीवन-शक्ति), मन (विचार-भावना) और विज्ञान (विवेक-ज्ञान) की सीमाओं को पार कर लेता है, तब वह पहुँचता है आनन्दमय कोश में।यहीं अनुभव होता है कि — यही अवस्था है — आनन्दो ब्रह्मेति। क्यों कहा गया “आनन्द […]
सचेतन- 23:तैत्तिरीय उपनिषद्: विज्ञानपुरुष ही “कर्त्ता” है
विज्ञानमय कोश = वह आवरण/स्तर जिसमें बुद्धि (Intellect), विवेक (Discrimination), और निर्णय-शक्ति काम करते हैं। कर्त्ता अर्थात् वह जो कार्य करता है (doer/subject)। उदाहरण: राम फल खाता है। → यहाँ “राम” कर्त्ता है, क्योंकि खाने का काम वही कर रहा है।वाक्य का वह अंग जिससे यह ज्ञात होता है कि क्रिया किसके द्वारा की जा […]
सचेतन- 22:तैत्तिरीय उपनिषद्: विज्ञानमय कोश
मान लीजिए कोई बच्चा पूछे — “बुद्धि क्या होती है?”यदि हम कहें “निर्णय करने की शक्ति”, तो वह अमूर्त लगेगा।लेकिन यदि हम इसे “एक राजा” के रूपक में समझाएँ —जैसे राजा अपनी प्रजा को नियंत्रित करता है, वैसे ही बुद्धि हमारे मन, प्राण और शरीर को नियंत्रित करती है — तो बच्चा तुरंत समझ जाएगा। […]
सचेतन- 21:तैत्तिरीय उपनिषद्: ब्रह्मांड की रचना
पुरुष के त्याग (बलिदान) से ही सूर्य, चन्द्रमा, इन्द्र, अग्नि, वायु और दिशाएँ उत्पन्न हुईं। ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद भी उसी पुरुष से प्रकट हुए।अर्थात: हर कोश को ऐसे समझो, जैसे वह एक जीवित व्यक्ति हो, जिसके अंग-प्रत्यंग हों। 🌱 तैत्तिरीयोपनिषद् में प्रयोग मान लीजिए कोई बच्चा पूछे — “बुद्धि क्या होती है?”यदि हम […]
सचेतन- 20:तैत्तिरीय उपनिषद्: पुरुष-रूपक
पुरुष-रूपक का अर्थ: जब किसी अमूर्त या दार्शनिक सत्य (जैसे अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश, आनन्दमय कोश) को समझाना कठिन हो, तो उपनिषद् उसे “पुरुष” (मनुष्य-आकृति) के रूप में दिखाते हैं। “कोश” (Sanskrit: कोश) का अर्थ है — आवरण या परत।उपनिषदों में कहा गया है कि आत्मा (पुरुष / ब्रह्म) सीधे दिखाई […]
सचेतन- 19:तैत्तिरीय उपनिषद्: ज्ञान और विवेक ही ब्रह्म है
“विज्ञानं ब्रह्मेति” = ज्ञान और विवेक ही ब्रह्म है। विज्ञान यहाँ केवल भौतिक विज्ञान (Science) नहीं है, बल्कि आत्म-बोध और विवेकपूर्ण ज्ञान है।यह वह स्तर है जहाँ साधक केवल मन और भावना (मनोमय कोश) से ऊपर उठकर सही-गलत को पहचानने वाली बुद्धि (विज्ञानमय कोश) तक पहुँचता है।यही विवेक उसे ब्रह्म की ओर ले जाता है।क्यों […]
सचेतन- 18: तैत्तिरीय उपनिषद्: मन ही ब्रह्म है
सचेतन- 18: तैत्तिरीय उपनिषद्: मन ही ब्रह्म है “मनो ब्रह्मेति” का अर्थ है —मन ही ब्रह्म है, क्योंकि मन ही वह केंद्र है जहाँ विचार, भावना, इच्छा और संकल्प जन्म लेते हैं। मन क्यों ब्रह्म है? मन केवल सोचने का यंत्र नहीं है, बल्कि चेतना का दर्पण है। हर अनुभव (सुख, दुख, प्रेम, क्रोध, शांति) […]
सचेतन- 17:तैत्तिरीय उपनिषद्: प्राण ही ब्रह्म है।
सचेतन- 17:तैत्तिरीय उपनिषद्: प्राण ही ब्रह्म है। “प्राणो ब्रह्मेति” का अर्थ है – प्राण ही ब्रह्म है। यह उपनिषद की शिक्षा है कि ब्रह्म को केवल बाहर या किसी दूरस्थ सत्ता में मत खोजो, बल्कि अपने भीतर की जीवन-शक्ति (श्वास, ऊर्जा, चेतना का प्रवाह) में पहचानो। प्राण क्या है? श्वास का आना-जाना ही नहीं, बल्कि […]
