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सचेतन 2.105: भगवान रुद्र ने जैसे त्रिपुर को जलाया था, उसी प्रकार हनुमान जी ने लंका नगरी को जला दिया

हनुमान ने लंका नगरी को स्वयम्भू ब्रह्माजी के रोष से नष्ट किया था   “हनुमान जी की लंका में लीला”  नमस्कार श्रोताओं! स्वागत है “धर्म की कहानियां” में, जहां हम आपको पौराणिक कथाओं की अद्भुत दुनिया में ले जाते हैं। आज की हमारी कहानी है भगवान हनुमान और लंका दहन। तो चलिए, इस दिव्य कथा की […]

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सचेतन 261: शिवपुराण- वायवीय संहिता – योगक्षेमं वहाम्यहम्

आपका हरेक कर्म इस सृष्टि में शून्यता से ही प्रारंभ होता है। ‘शिव’ का अर्थ है शून्य, ‘शिव’ यानी ‘जो नहीं है’। एक बार अपने शून्य होने की सहनशीलता को सक्षम करके देखिए आपको लगेगा की आपका हरेक कर्म इस सृष्टि में शून्यता से ही प्रारंभ होता है। अगर जीवन में यह जान पाये तो […]

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सचेतन 260: शिवपुराण- वायवीय संहिता – भगवान की योगमाया आपको चिन्मय बनती है

यह सनातन सत्य हैं की आप स्वयं से संबंध स्थापित कर सकते हैं  आप अपने बाह्य दुनियाँ को देखें जिसे बहिरंग प्रकृति कहते हैं इसका नाम “माया’ है। भावयोग के ज्ञान मात्र से जब आप अपने आंतरिक प्रकृति से जुड़ने लगाते हैं तभी ही  हम भगवान की अन्तरंगा शक्ति के साथ अपना संबंध स्थापित कर […]

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सचेतन 259: शिवपुराण- वायवीय संहिता – भाव योग से जीवन ऊर्जा का महासागर बन जाता है

भगवान नित्य विग्रह और चिन्मय हैं जिनमें आपका भगवत्स्वरूप दिखता है। भाव योग में जब जीवन ऊर्जा का रूपांतरण होता है तो आपका हृदय करुणा रस से द्रवित हो जाता है। यही भाव योग के मूल में श्रद्धा का होना है। अगर श्रद्धा का भाव नहीं है तो सब कुछ मिथ्या है। भाव करते-करते भगवत्कृपा […]

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सचेतन 258: शिवपुराण- वायवीय संहिता – भाव योग जीवन ऊर्जा को रूपांतरित कर देता है

करुण रस में हृदय द्रवित हो जाता है  हम बात कर रहे थे की अध्यात्म यानी एक ऐसी प्रक्रिया जो जीवन और मृत्यु के बारे में नहीं होती यह आध्यात्मिक प्रक्रिया आपके बारे में होती है, जो कि न तो जीवन है और न ही मृत्यु। अगर इसे आसान शब्दों में कहा जाए तो इस […]

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सचेतन 257: शिवपुराण- वायवीय संहिता – भाव योग उच्चाति-उच्च प्रेम है

भाव योग की प्रक्रिया में संन्यासी का अर्थ महत्वपूर्ण है  कल हमने द्वेष के बारे में बात किया था और यह किसी दुःख के अनुभव होने के पश्चात् जो वासना चित्त में शेष रह जाती है, वह ‘द्वेष’ क्लेश कहलाती है। अगर हम बात करें तो दुःख के आभास होने या जिससे दुःख को हम […]

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सचेतन 256: शिवपुराण- वायवीय संहिता – भाव योग

समत्व-बुद्धि का भाव योग का प्रथम सोपान है  दूसरों के प्रति समान भाव का उद्भव ही समत्व बुद्धि होना है। राग व द्वेष के कारण ही हम अपने से दूसरों को अलग समझने की नादानी करते हैं। ये राग-द्वेष ही काम, क्रोध, लोभ, मोह व अहंकार को बढ़ाते हैं। दूसरे शब्दों में कहें कि इन […]

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सचेतन 255: शिवपुराण- वायवीय संहिता – योग वर्णन

सविषय ध्यान सूर्य किरणों को आश्रय देने वाला होता है और निर्विषय ध्यान अपनी बुद्धि के विस्तार से होते हैं। उपमन्यु बोले; हे केशव ! त्रिलोकीनाथ भगवान शिव का सभी योगी-मुनि ध्यान करते हैं। इसी के द्वारा सिद्धियां प्राप्त होती हैं। सविषय और निर्विषय आदि ध्यान कहे गए हैं। निर्विषय ध्यान करने वाले अपनी बुद्धि […]

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सचेतन 254: शिवपुराण- वायवीय संहिता – योग गति में विघ्न

विघ्नों के शांत होने पर उपसर्ग (विशेषता या परिवर्तन) उत्पन्न हो जाते हैं।  उपमन्यु बोले ;- हे केशव! आलस्य, व्याधि, प्रमाद, स्थान, संशय, चित्त का एकाग्र न होना, अश्रद्धा, दुख, वैमनस्य आदि योग में पड़ने वाले विघ्न हैं। इन विघ्नों को सदा शांत करते रहना चाहिए। इन सब विघ्नों के शांत होने पर छः उपसर्ग […]

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सचेतन 253: शिवपुराण- वायवीय संहिता – स्पर्श योग करने से जीवन में कोई तनाव या खिंचाव आपके ऊपर एक भी खरोंच नहीं डाल पाएगा