“विज्ञानं ब्रह्मेति” = ज्ञान और विवेक ही ब्रह्म है। विज्ञान यहाँ केवल भौतिक विज्ञान (Science) नहीं है, बल्कि आत्म-बोध और विवेकपूर्ण ज्ञान है।यह वह स्तर है जहाँ साधक केवल मन और भावना (मनोमय कोश) से ऊपर उठकर सही-गलत को पहचानने वाली बुद्धि (विज्ञानमय कोश) तक पहुँचता है।यही विवेक उसे ब्रह्म की ओर ले जाता है।क्यों […]
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सचेतन- 18: तैत्तिरीय उपनिषद्: मन ही ब्रह्म है
सचेतन- 18: तैत्तिरीय उपनिषद्: मन ही ब्रह्म है “मनो ब्रह्मेति” का अर्थ है —मन ही ब्रह्म है, क्योंकि मन ही वह केंद्र है जहाँ विचार, भावना, इच्छा और संकल्प जन्म लेते हैं। मन क्यों ब्रह्म है? मन केवल सोचने का यंत्र नहीं है, बल्कि चेतना का दर्पण है। हर अनुभव (सुख, दुख, प्रेम, क्रोध, शांति) […]
सचेतन- 17:तैत्तिरीय उपनिषद्: प्राण ही ब्रह्म है।
सचेतन- 17:तैत्तिरीय उपनिषद्: प्राण ही ब्रह्म है। “प्राणो ब्रह्मेति” का अर्थ है – प्राण ही ब्रह्म है। यह उपनिषद की शिक्षा है कि ब्रह्म को केवल बाहर या किसी दूरस्थ सत्ता में मत खोजो, बल्कि अपने भीतर की जीवन-शक्ति (श्वास, ऊर्जा, चेतना का प्रवाह) में पहचानो। प्राण क्या है? श्वास का आना-जाना ही नहीं, बल्कि […]
सचेतन- 16:तैत्तिरीय उपनिषद्: अन्न ही ब्रह्म है
सचेतन- 16:तैत्तिरीय उपनिषद्: अन्न ही ब्रह्म है “अन्नं ब्रह्मेति” (तैत्तिरीय उपनिषद्) का अर्थ है – भोजन ही ब्रह्म है। क्योंकि भोजन (अन्न) से ही शरीर का पोषण और जीवन का आधार बनता है। शरीर के बिना साधना या ज्ञान सम्भव नहीं, और शरीर अन्न पर टिका है। अन्न से प्राण शक्ति मिलती है, जिससे मन […]
सचेतन- 15:तैत्तिरीय उपनिषद्: ब्रह्मानंदवल्ली-तप, सत्य, और आत्म-संयम
ब्रह्मानंदवल्ली — उस साधक को ब्रह्मानंद (ब्रह्म का आनंद) की अनुभूति तक ले जाती है। तैत्तिरीयोपनिषद् ब्रह्म को केवल जानने की बात नहीं करता, बल्कि ब्रह्म “होने” की बात करता है। और इसका माध्यम है — तप, सत्य, और आत्म-संयम। तैत्तिरीयोपनिषद् में ब्रह्म केवल एक ज्ञान का विषय नहीं है कि हम उसे “जान” लें, […]
सचेतन- 14:तैत्तिरीय उपनिषद्: शिक्षावल्ली – स्वर, लय और ताल का संतुलन
शिक्षावल्ली तैत्तिरीय उपनिषद् (यजुर्वेद की शाखा) का प्रथम भाग है। “वल्ली” का अर्थ है — लता या शाखा। इसलिए शिक्षावल्ली = वह शाखा जिसमें शिक्षा (उच्चारण, स्वर, लय और पाठ की शुद्धि) के विषय में ज्ञान दिया गया है। शिक्षा में उच्चारण, स्वर, मात्रा और बल की शुद्ध परंपरा।इसके छः अंग (तत्त्व) हैं शिष्य को […]
सचेतन- 13:तैत्तिरीय उपनिषद्: शिक्षावल्ली -शुद्ध उच्चारण क्यों आवश्यक है?
शिक्षावल्ली तैत्तिरीय उपनिषद् (यजुर्वेद की शाखा) का प्रथम भाग है। “वल्ली” का अर्थ है — लता या शाखा। इसलिए शिक्षावल्ली = वह शाखा जिसमें शिक्षा (उच्चारण, स्वर, लय और पाठ की शुद्धि) के विषय में ज्ञान दिया गया है। शिक्षा में उच्चारण, स्वर, मात्रा और बल की शुद्ध परंपरा।इसके छः अंग (तत्त्व) हैं शिष्य को […]
सचेतन- 12:तैत्तिरीय उपनिषद्: शिक्षा से ब्रह्मानंद तक — साधना की संपूर्ण यात्रा
ब्रह्मविद्या कि साधना पढ़ने या सुनने से नहीं, बल्कि तप, साधना और आत्मनिष्ठा से प्रकट होती है। ब्रह्मविद्या का अर्थ – “ब्रह्म” का ज्ञान। ब्रह्म = अनंत, सर्वव्यापक चेतना, जो सृष्टि के प्रत्येक कण में विद्यमान है।ब्रह्मविद्या वह विद्या है जो हमें यह समझाती है कि — हम केवल शरीर या मन नहीं हैं, बल्कि […]
सचेतन- 11: तैत्तिरीयोपनिषद् — आत्मानुभूति और ब्रह्मविद्या का रहस्य
साधना में आत्मानुभूति और ब्रह्मविद्या साधना के मार्ग में आत्मानुभूति मंज़िल है और ब्रह्मविद्या उसका नक्शा। आत्मानुभूति — स्वयं का प्रत्यक्ष साक्षात्कार।यह केवल “मैं कौन हूँ” का उत्तर नहीं, बल्कि गहराई से जिया हुआ अनुभव है कि हम शरीर या मन नहीं, बल्कि शुद्ध, अविनाशी चेतना हैं।जैसे अंधेरे में दीप जलने पर सब स्पष्ट दिखने […]
सचेतन- 10: “ऋतम् वद” — सत्य और नियम में जियो, वही परम जीवन है।
ऋत के माध्यम से अमृत (ज्ञान, आत्मा, स्वर्ग) की अनुभूति होती है। “ऋतम् वद” का अर्थ है — सत्य बोलो, सत्य जियो, और जीवन को नियम व नैतिकता के मार्ग पर चलाओ।यह केवल सच बोलने की बात नहीं, बल्कि अपने विचार, वाणी और कर्म में सत्य, न्याय, और ब्रह्मांडीय व्यवस्था को अपनाने की शिक्षा है। […]