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सचेतन 221: शिवपुराण- वायवीय संहिता – आध्यात्मिक मार्ग पर चलना

वाकई आप आध्यात्मिक मार्ग पर हैं तो आपके चारों ओर उथल-पुथल है। हमारे कर्म सिर्फ़ एक सीमित संभावना को खोज कर सकता है और एक सीमित इंसान बनाए रखने में मदद करता है। अगर आप आध्यात्मिक मार्ग पर हैं, तो आपको सब कुछ धुंधली नज़र आएगी। इसको साफ़ देखने के लिए आपको अपने कर्म की […]

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सचेतन 220: शिवपुराण- वायवीय संहिता – कर्म की बेड़ियों को ढीला कैसे करेंगे?

आध्यात्मिक प्रक्रिया जीवन में बहुत सारे आयाम खोल देती है। सामान्यतः  कर्म फल का नियम मन से प्रेरित क्रियाओं में ही लागू होता है। वैसे दो  प्रकार के कर्म होते हैं संचित कर्म और प्रारब्ध कर्म । संचित कर्म यह कर्म का गोदाम है, वहाँ सारी जानकारी मौजूद है। अगर आप अपनी आंखें बंद करते […]

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सचेतन 219: शिवपुराण- वायवीय संहिता – संचित और प्रारब्ध कर्म

कर्म एक सीमित संभावना है और यही आपको एक सीमित इंसान बनाता है। हमने बात किया था की कला का सीधा संबंध हमारे कर्म से है और कर्म का अर्थ होता है ‘क्रिया’। अगर आप कर्म को सोचेंगे तो आपको लगेगा की जो कुछ कर्म मनुष्य करता है उससे कोई फल उत्पन्न होता है और […]

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परब्रह्म

नमस्कार, प्रिय मित्रों और सभी विशिष्ट अतिथियों। आज हम सब यहां एक विशेष अवसर पर एकत्र हुए हैं और आज आप सबके आने से हम सभी की का आनंद का स्तर बढ़ा है। मनोविकास परिवार शुरू से ही समाज में मानवीय मूल्यों को बहाल करने और समृद्धि और सामाजिक समरसता यानी सभी को समान मानने […]

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सचेतन 218: शिवपुराण- वायवीय संहिता – कर्म मन:प्रेरित क्रिया होती है।

कर्म आपकी भावना पर आधारित होता है जिसका स्वतः फल मिलता है। हमारी सर्वव्यापी चेतन ही हमारी प्रकृति है या कहें की यह महेश्वर की शक्ति यानी  माया है जो आपको आवृत करके रखती है। और यही आवरण कला है। जब हम कला कहते हैं तो यह कला न की ज्ञान हैं, न शिल्प हैं, […]

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सचेतन 217: शिवपुराण- वायवीय संहिता – कला से मनोवृत्तियों में रुपान्‍तरण  होता है 

कला के द्वारा हमारी आत्म को परमानन्द का अनुभव होता है। कल हमने भगवान विष्णु तथा कृष्ण की प्रचलित कथा भगवद्गीता को ध्यान करते हुए विश्वरूप दर्शन का ज़िक्र किया था वैसे तो ईश्वर के अनेक अलौकिक रूप, आकृति तथा रंग हैं, सिर्फ़ प्रश्न यह है की हम कैसा रूप देखना चाहते हैं और याद […]

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सचेतन 216: शिवपुराण- वायवीय संहिता – हम सभी विराट रूप से आवृत हैं 

जीव स्वत: शिव हो जाता है जब वह विशुद्ध शिवत्व को समझता है  हमने सचेतन में बातचीत किया था की आपके अपने शरीर में उपस्थित मन, बुद्धि, अहंकार और माया शक्ति यानी प्राकृति से व्यक्तित्त्व निर्मित होता है। आपके   व्यक्तित्त्व आपकी सोच से आपके इस शरीर का रूप बहुत व्यापक यानी फैला हुआ और […]

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सचेतन 215: शिवपुराण- वायवीय संहिता – शरीर शुभ-अशुभ विचारों और कर्मों से पोषित हो कर भाग्य का निर्माण करता है।

आत्म साक्षात्कार से कर्मबंधन सर्वथा मुक्त हो सकते है  क्षर का अर्थ होता है जिसका क्षरण होता हो जो नाशवान् या नष्ट होने वाला है जैसे हमारा शरीर क्षर है जो यहाँ का यहीं रहा जाता है लेकिन इस शरीर के बिना हमारे अस्तित्व की उत्पत्ति का बोध होना मुश्किल है। हम अपने शरीर से […]

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सचेतन 214: शिवपुराण- वायवीय संहिता – क्षर और अक्षर पुरुष दोनों भगवान् स्वयं ही हैं।

सचेतन 214: शिवपुराण- वायवीय संहिता – क्षर और अक्षर पुरुष दोनों भगवान् स्वयं ही हैं।  क्षर, अक्षर तथा अतीत तीन तत्त्व के बारे में जानकारी  किसी भी वस्तु के तीन भेद बताये हैं- जड (प्रकृति ), चेतन (जीव) और उन दोनों का नियन्ता (परमेश्वर)। इन्हीं तीनों को क्रम से पाश, पशु तथा पशुपति कहते हैं। […]

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सचेतन 212: शिवपुराण- वायवीय संहिता – हमारी आध्यात्मिक यात्रा

जीवन में वास्तविकता और आपके चेतना के बीच संतुलन आपको ‘पशुपति’ बना देता है। सचेतन तो हमारी यात्रा है- पशु से परमात्मा बनने तक। हम वानर (बंदर) थे। हम नर बन गये हैं । हमें नारायण (सभी पशु और मानव विशेषताओं का स्वामी, जो इन दोनों से परे है) बनना है। यह हमारी आध्यात्मिक यात्रा […]