सचेतन 108 : श्री शिव पुराण- शतरुद्र संहिता-  ईश्वर बहुत ही न्यायपूर्ण है 

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सचेतन 108 : श्री शिव पुराण- शतरुद्र संहिता-  ईश्वर बहुत ही न्यायपूर्ण है 

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कर्म का विभाजन हमारे आध्यात्मिक जीवन से होता है। हम क्या संचय करना चाहते हैं और उस कर्म के फल का ‘प्रारब्ध’ कैसा होगा जिससे हमारे वर्तमान कर्म ‘क्रियमाण’ का निर्धारण हो सकेगा। 

पशु और छोटे बच्चे नए कर्म की रचना नहीं करते हैं (इसलिए अपने भावी नियति को प्रभावित नहीं कर सकते हैं) क्योंकि वे सही और गलत का अंतर करने में अक्षम होते हैं। हालांकि, सभी संवेदनशील जीव कर्म के प्रभाव को समझ सकते हैं, आनंद और पीड़ा में जिसका अनुभव किया जाता है।

“दया धर्म का मूल है पाप मूल अभिमान, 

तुलसी दया न छोडिये जब तक घट में प्राण।”

तुलसीदास जी ने कहा की धर्म, दया भावना से उत्पन्न होती और अभिमान तो केवल पाप को ही जन्म देता हैं, मनुष्य के शरीर में जब तक प्राण हैं तब तक दया भावना कभी नहीं छोड़नी चाहिए।

संत तुलसीदास ने कहा, “हमारे शरीर के अस्तित्व में आने से बहुत पहले ही हमारी नियति आकार ग्रहण कर लेती है। संचित कर्म का भंडार जब तक चलता रहता है, तब तक प्रारब्ध कर्म के रूप में इसके एक एक भाग के सुख का हरेक जीवन में जीना जारी रहता है। कर्म जन्म एवं मृत्यु के चक्र की ओर ले जाता है। एक जीव को जन्म और मृत्यु के चक्र से मोक्ष (मुक्ति) तब तक प्राप्त नहीं हो सकती, जब तक कि जमा संचित कर्म पूरी तरह से समाप्त न हो जाय। 

एक रोज रास्ते में एक महात्मा अपने शिष्य के साथ भ्रमण पर निकले। गुरुजी को ज्यादा इधर-उधर की बातें करना पसंद नहीं था, कम बोलना और शांतिपूर्वक अपना कर्म करना ही गुरू को प्रिय था। परन्तु शिष्य बहुत चपल था, उसे हमेशा इधर-उधर की बातें ही सूझती, उसे दूसरों की बातों में बड़ा ही आनंद आता था।

चलते हुए जब वो तालाब से होकर गुजर रहे थे, तो उन्होंने देखा कि एक धीवर नदी में जाल डाले हुए है। शिष्य यह सब देख खड़ा हो गया और धीवर को अहिंसा परमोधर्म का उपदेश देने लगा।

लेकिन धीवर कहाँ समझने वाला था, पहले उसने टालमटोल करनी चाही और बात जब बहुत बढ़ गयी तो शिष्य और धीवर के बीच झगड़ा शुरू हो गया। यह झगड़ा देख गुरूजी जो उनसे बहुत आगे बढ़ गए थे, लौटे और शिष्य को अपने साथ चलने को कहा एवं शिष्य को पकड़कर ले चले।

गुरूजी ने अपने शिष्य से कहा- बेटा हम जैसे साधुओं का काम सिर्फ समझाना है, लेकिन ईश्वर ने हमें दंड देने के लिए धरती पर नहीं भेजा है! शिष्य ने पुछा- महाराज को न तो बहुत से दण्डों के बारे में पता है और न ही हमारे राज्य के राजा बहुतों को दण्ड देते हैं। तो आखिर इसको दण्ड कौन देगा?

शिष्य की इस बात का जवाब देते हुए गुरूजी ने कहा- बेटा! तुम निश्चिंत रहो इसे भी दण्ड देने वाली एक अलौकिक शक्ति इस दुनिया में मौजूद है जिसकी पहुँच सभी जगह है… ईश्वर की दृष्टि सब तरफ है और वो सब जगह पहुँच जाते हैं।

इसलिए अभी तुम चलो, इस झगड़े में पड़ना गलत होगा, इसलिए इस झगड़े से दूर रहो! शिष्य गुरुजी की बात सुनकर संतुष्ट हो गया और उनके साथ चल दिया।

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