सचेतन- 6: निदिध्यासन – आत्मा का साक्षात्कार
स्वामी विवेकानंद कहते थे —
“जब विचारों का शुद्धिकरण हो जाता है, तब मन सत्य में स्थित होता है। तब ज्ञाता और ज्ञेय के बीच भेद मिट जाता है। यही है निदिध्यासन — आत्मा के स्वरूप में स्थित हो जाना।”
निष्कर्ष
निदिध्यासन आत्म-चिंतन की वह पराकाष्ठा है, जहाँ ‘जानना’ और ‘हो जाना’ एक हो जाता है।निदिध्यासन आत्म-चिंतन की वह गहरी अवस्था है, जहाँ हम किसी बात को केवल समझते नहीं, बल्कि उसे पूरी तरह जीने लगते हैं। ‘ज्ञान’ और ‘अनुभव’ एक हो जाते हैं।
या निदिध्यासन का मतलब है – बार-बार सोचकर किसी बात को अपने जीवन का हिस्सा बना लेना। जब हम जो जानते हैं, वही हम बन जाते हैं – यही निदिध्यासन है।
यह अभ्यास व्यक्ति को मायाजाल से मुक्त करके, स्वरूप में स्थित करता है।
“मन को बार-बार सत्य की ओर मोड़ना ही निदिध्यासन है। और अंततः वही मन ब्रह्मस्वरूप हो जाता है।”
महत्व:
- यह ज्ञान को अनुभव में बदलने की प्रक्रिया है।
- केवल विचार नहीं, अनुभूति होती है।
- यहाँ साधक अपने भीतर की आत्मा को ब्रह्मरूप में देखता है।
कैसे करें:
- नियमित ध्यान करें – विशेषकर “मैं कौन हूँ?”, “सोऽहम” (मैं वही हूँ), “अहं ब्रह्मास्मि” (मैं ब्रह्म हूँ) जैसे महावाक्यों पर।
- विचारों को शांत करके अनुभव की ओर बढ़ें।
- सांस, शरीर, मन – सबका अवलोकन करते हुए अंतर्मन की गहराई में उतरें।
ऋषियों की तपस्या और समाधि – ये निदिध्यासन का उत्कृष्ट उदाहरण हैं, जहाँ उन्होंने चेतना का प्रत्यक्ष अनुभव किया।
🌺 रामण महर्षि का निदिध्यासन – आत्मा का साक्षात्कार
एक दिन एक 16 वर्षीय लड़का अपने घर में अचानक मृत्यु के भय से भर गया।
वह पलंग पर लेटा और सोचने लगा —
“अगर मैं मर जाऊँ तो क्या होगा?”
उसने अपने शरीर को मृत मान लिया — हाथ-पाँव शिथिल, आँखें बंद।
फिर मन में प्रश्न उठा:
“तो फिर जो जान रहा है कि शरीर मर रहा है — वह कौन है?”
उसने अपने भीतर उतरना शुरू किया।
हर उत्तर को काटता गया — “यह शरीर नहीं”, “यह मन नहीं”, “यह विचार भी नहीं”…
और अंत में बस शुद्ध ‘मैं’ बचा।
वह बालक था – रामण महर्षि।
उन्होंने न किसी शास्त्र को पढ़ा, न किसी गुरु से ज्ञान लिया।
उनका मार्ग था निदिध्यासनम् —
गहन ध्यान, पूर्ण आत्म-निरीक्षण, और ब्रह्म के साथ एकत्व का प्रत्यक्ष अनुभव।
उन्हें बाहर से कोई उत्तर नहीं मिला, उन्होंने उत्तर को अपने भीतर से जिया।
निष्कर्ष:
चेतना को जानने का मार्ग केवल पढ़ना या सुनना नहीं है, बल्कि:
➡️ श्रवण से ज्ञान ग्रहण करना,
➡️ मनन से उसे स्पष्ट करना, और
➡️ निदिध्यासन से उसे जीवित अनुभव बनाना — यही आत्मबोध और ब्रह्मज्ञान की यात्रा है।
✅ निष्कर्ष
- अर्जुन ने श्रवण किया — गुरु से सीधा ज्ञान लिया।
- नचिकेता ने मनन किया — सुने हुए ज्ञान पर गहन विचार किया।
- रामण महर्षि ने निदिध्यासन किया — भीतर उतरकर आत्मा को अनुभूत किया।
तीनों मार्ग मिलकर बनाते हैं — ब्रह्मज्ञान की पूर्ण यात्रा।
वशिष्ठ ऋषि की समाधि – जब चेतना स्वयं को जान गई
बहुत प्राचीन काल की बात है।
हिमालय की शांत गुफाओं में एक महान तपस्वी वशिष्ठ ऋषि ध्यान में लीन थे। वर्षों से उन्होंने न कोई शास्त्र पढ़ा, न किसी से संवाद किया।
उनका जीवन अब एक ही प्रश्न में केंद्रित हो गया था:
“मैं कौन हूँ?”
उन्होंने सुना था – “अहं ब्रह्मास्मि”, “सोऽहम”, “तत्त्वमसि” — परंतु वे केवल शब्द नहीं चाहते थे, वे अनुभव चाहते थे।
🌿 वह समय निदिध्यासन का था —
न अब वे गुरु के वचन सुन रहे थे,
न अब वे विचार कर रहे थे।
अब वे केवल प्रत्यक्ष अनुभव की दिशा में बढ़ रहे थे।
श्वास मंद हो चुकी थी,
मन शांत हो चुका था,
और विचार… एक-एक करके जैसे वाष्प की तरह विलीन हो रहे थे।
दिन बीते… फिर महीने… फिर वर्ष।
आंतरिक मौन इतना गहरा हो गया कि वहाँ अब न शरीर था, न मन — केवल चेतना।
🌟 और तभी…
एक क्षण आया — जब वशिष्ठ ऋषि ने स्वयं को जाना।
न किसी नाम से, न किसी रूप से।
वे अनुभव में उतर गए —
“मैं शरीर नहीं हूँ,
मैं मन नहीं हूँ,
मैं विचार नहीं हूँ —
मैं वही ब्रह्म हूँ, जो सदा है, जो अचल है, जो आनंदस्वरूप है।”
इस अवस्था को समाधि कहते हैं —
जहाँ साधक और साध्य एक हो जाते हैं।
वहाँ न कोई भेद बचता है, न कोई प्रश्न।
🔍 सीख:
वशिष्ठ ऋषि की समाधि यह दर्शाती है कि निदिध्यासन केवल ध्यान नहीं, वह आत्मा में उतरने की प्रक्रिया है।
जब शास्त्रों और विचारों से भी परे जाकर चेतना को प्रत्यक्ष अनुभव किया जाता है — तभी होता है आत्मसाक्षात्कार।