सचेतन 146 : श्री शिव पुराण- स्वयं को सर्वोच्च शक्ति के स्रोत के साथ जोड़ना 

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सचेतन 146 : श्री शिव पुराण- स्वयं को सर्वोच्च शक्ति के स्रोत के साथ जोड़ना 

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एक अद्भुत सितारा (आत्मा) भृकुटि के बीच सदा चमकता है।

आज हम बात करेंगे की एक अद्भुत सितारा (आत्मा) भृकुटि के बीच सदा चमकता है। जिससे आपके ईश्वरीय गुण से विकसित व्यक्तित्व का निर्माण होता है। 

शिव स्वरूप और ईश्वरीय गुण का आभास और दर्शन होने के बाद आपको स्वयं एक अनुभव होता है की हम कुछ आध्यात्मिक कार्य करें धीरे धीरे आप देखेंगे की ब्रह्माजी स्वयं आपकी भृकुटि से प्रकट होंगे। ब्रह्माजी आपके सृष्टि के निर्माता बन जाएँगे, श्रीहरि विष्णु इसका पालन करेंगे  तथा आपके स्थिरता के लिए रुद्र रूप भी उपस्थित होगा जो प्रलय के समय काम आयेगा। 

एक अद्भुत सितारा (आत्मा) भृकुटि के बीच सदा चमकता है। व्यक्तित्व अभौतिक है, आप वास्तविक रूप में आत्मा हैं। आप शरीर नहीं है। ये शरीर आपका है पर आप शरीर नहीं हैं। जिस मानव का हार्ट ट्रान्सप्लांट किया जाता है उसका स्वभाव दान किये व्यक्ति जैसा नहीं बन जाता है। हार्ट प्राप्त किये हुए व्यक्ति का व्यक्तित्व ठीक वैसा ही रहता है जैसा कि पहले था। – भारतीय संस्कृति में भृकुटि के मध्य तिलक लगाना अथवा बौद्ध धर्म में तीसरी आँख का उल्लेख, आत्मा का ही प्रतीक हैं हालांकि इन नयनों से आत्मा दिखती नहीं है किन्तु इसकी आंतरिक शक्ति का आभास आप अभ्यास करके जागृत कर सकते हैं।  यही आत्मिक शक्ति हमें सदियों तक बढ़ते रहने में सहायक रहती है

पूर्ण रूप से अपना ध्यान रखने के  लिए हमें  अपनी दिनचर्या में, कुछ समय, सचेतन या राजयोग अभ्यास द्वारा, अपनी ऊर्जा के  भंडार को रीचार्ज करने में लगाना चाहिए | राजयोग हमें उस सर्वोच्च शक्ति के स्रोत के साथ जोड़ता है। 

योग का अर्थ है चित्तवृत्ति का निरोध। चित्तभूमि या मानसिक अवस्था के पाँच रूप हैं (१) क्षिप्त (२) मूढ़ (३) विक्षिप्त (४) एकाग्र और (५) निरुद्ध। प्रत्येक अवस्था में कुछ न कुछ मानसिक वृत्तियों का निरोध होता है। 

क्षिप्त अवस्था में चित्त एक विषय से दूसरे विषय पर दौड़ता रहता है। 

मूढ़ अवस्था में निद्रा, आलस्य आदि का प्रादुर्भाव होता है। 

विक्षिप्तावस्था में मन थोड़ी देर के लिए एक विषय में लगता है पर तुरन्त ही अन्य विषय की ओर चला जाता है। यह चित्त की आंशिक स्थिरता की अवस्था है जिसे योग नहीं कह सकते। 

एकाग्र अवस्था में चित्त देर तक एक विषय पर लगा रहता है। यह किसी वस्तु पर मानसिक केन्द्रीकरण की अवस्था है। यह योग की पहली सीढ़ी है। निरुद्ध अवस्था में चित्त की सभी वृत्तियों का (ध्येय विषय तक का भी) लोप हो जाता है और चित्त अपनी स्वाभाविक स्थिर, शान्त अवस्था में आ जाता है। इसी निरुद्ध अवस्था को ‘असंप्रज्ञात समाधि’ या ‘असंप्रज्ञात योग’ कहते हैं। यही समाधि की अवस्था है।

जब तक मनुष्य के चित्त में विकार भरा रहता है और उसकी बुद्धि दूषित रहती है, तब तक तत्त्वज्ञान नहीं हो सकता। राजयोग के अन्तर्गत महिर्ष पतंजलि ने अष्टांग को इस प्रकार बताया है-

यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयः।

१- यम २- नियम ३- आसन ४- प्राणायाम ५- प्रत्याहार ६- धारणा ७- ध्यान ८- समाधि

उपर्युक्त प्रथम पाँच ‘योग के बहिरंग साधन’ हैं। धारणा, ध्यान और समाधि ये तीन योग के अंतरंग साधन हैं। ध्येय विषय ईश्वर होने पर मुक्ति मिल जाती है। यह परमात्मा से संयोग प्राप्त करने का मनोवैज्ञानिक मार्ग है जिसमें मन की सभी शक्तियों को एकाग्र कर एक केन्द्र या ध्येय वस्तु की ओर लाया जाता है।

कर्म योग की अन्तिम अवस्था समाधि’ को ही ‘राजयोग’ कहते थे।कर्मयोग अर्थात कर्म में लीन होना। योगा कर्मो किशलयाम, योग: कर्मसु कौशलम्। धर्माचरण करके पापों का क्षय करना और अपने विकास की ओर बढ़ना; परन्तु “फल की आकांक्षा न रखते हुए कर्म करना” ही कर्मयोग है।

‘राजयोग’ के अभ्यास से एक अद्भुत सितारा (आत्मा) भृकुटि के बीच सदा चमकता रहेगा।

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